मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि ध्यान में कैसे उतरें? बड़ी चाह लेकर आए हैं। मैं उनसे कहता हूं
चाह है तो ध्यान में उतर न पाओगे। ध्यान में उतरने की पहली शर्त है कि चाह को बाहर
रख आओ। वे कहते, अच्छी बात।
फिर तो ध्यान में उतर सकेंगे न?
अब उनका समझ रहे हो मतलब? वे कहते हैं, चलो,
अगर चाह रख आकर चाह पूरी होती है तो हम इसके लिए भी राजी हैं, मगर चाह पूरी होगी न? तो तुम रख कर कहां आए? वे दो—चार दिन कोशिश करते हैं फिर आकर कहते हैं, चाह भी नहीं की, फिर भी अभी तक हुआ नहीं।
अगर चाह ही नहीं की तो अब क्या पूछते हो कि फिर
भी अभी तक हुआ नहीं। चाह बनी ही रही। चाह भीतर बनी ही रही। चाह ने कहा, चलो,
कहा जाता है कि चाह छोड़ने से चाह पूरी होगी, चलो, यह ढोंग भी कर
लो। मगर तुम चूक गए। तुम समझ न पाए।
इसीलिए तो निरंतर यह बात कही गई है, सारे शास्त्र कहते हैं कि जो कहा जाता है
वही सुना नहीं जाता। जो सदगुरु समझाते हैं वही तुम सुन पाते हो ऐसा पक्का नहीं है।
तुम कुछ का कुछ सुनते हो। तुम कुछ का कुछ कर लेते हो।
देख लिया, जीवन में कुछ पाया नहीं, अब तुम कहते हो,
कैसे मिट जाएं? मगर पाने की
धारणा अभी भी बनी है।
अक्सर ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति ध्यान
करता, अचानक एक दिन किरण
उतरती, रोआं—रोआं रस से भर जाता। अभिभूत हो जाता। बस
उसी दिन से मुश्किल हो जाती। फिर वह रोज चाह करने लगता है कि ऐसा अब फिर हो, ऐसा अब फिर हो 1 फिर वह मेरे पास आता, रोता, गिड़गिड़ाता;
कहता है कि बड़ी मुश्किल हो गई। घटना घटी भी, और अब क्यों नहीं घट रही?
मैं उससे कहती हूं कि जब घटी तो कोई चाह न
थी। तुम्हें पता ही न था तो चाह कैसे करते?
चाह तो उसी की हो सकती है जिसका थोड़ा सा अंदाज हो, अनुमान हो। सुन कर हो, स्वाद से हो, लेकिन जिसका थोड़ा अनुमान हो, चाह तो उसी की हो सकती है न! अब तुम्हें
पता चल गया। स्वाद लग गया, किरण उतरी।
पंखुड़ियां खिल गईं हृदय की। कमल—कमल खिल गए
भीतर। तुम गदगद हो उठे। अब तुम्हें पता चल गया, अब मुश्किल आई। अब बड़ी मुश्किल आई। ऐसी मुश्किल कभी भी न
थी। अब तुम जब भी ध्यान में बैठोगे,
यह चाह खड़ी रहेगी कि फिर हो,
दुबारा हो।
मैंने एक तिब्बती कहानी पढ़ी है। कहते हैं
दूर तिब्बत की पहाड़ियों में छिपा हुआ एक सरोवर है। उस सरोवर के किनारे एक वृक्ष
है। वृक्ष बड़ा अनूठा है। वृक्ष से भी ज्यादा अनूठा सरोवर है। कहते हैं, उस वृक्ष को जो खोज ले, उस सरोवर को जो खोज ले, और वृक्ष पर से छलांग लगा कर सरोवर में
कूद जाए तो रूपांतरित हो जाता है। कभी भूलचूक से कोई पक्षी गिर जाता है सरोवर में
तो मनुष्य हो जाता है। कभी कोई मनुष्य खोज लेता है और उस वृक्ष से कूद जाता है तो
देवता हो जाता है।
ऐसा एक दिन हुआ, एक बंदर और एक बंदरिया उस वृक्ष पर बैठे
थे। उन्हें कुछ पता न था। और एक मनुष्य न मालूम कितने वर्षों की खोज के बाद अंतत:
वहां पहुंच गया। उस मनुष्य ने वृक्ष पर चढ़ कर झंपापात किया। सरोवर में गिरते ही वह
दिव्य ज्योतिर्धर देवता हो गया। स्वभावत: बंदर और बंदरिया को बड़ी चाहत जागी।
उन्हें पता ही न था। उसी वृक्ष पर वे रहते थे लेकिन कभी वृक्ष पर से झंपापात न
किया था। कभी सरोवर में कूदे न थे। फिर तो देर करनी उचित न समझी। दोनों तत्क्षण
कूद पड़े। बाहर निकले तो चकित हो गए। दोनों सुंदर मनुष्य हो गए थे। बंदर पुरुष हो
गया था, बंदरिया सुंदर, सुंदरतम नारी हो गई थी।
बंदर ने कहा, अब हम एक बार और बूदें। बंदर तो बंदर!
उसने कहा, अब अगर हम
कूदे तो देवता होकर निकलेंगे। बंदरिया ने कहा कि देखो, दुबारा कूदना या नहीं कूदना, हमें कुछ पता नहीं। स्त्रियां साधारणत:
ज्यादा व्यावहारिक होती हैं। सोच—समझ कर चलती
हैं ज्यादा। देख लेती हैं, हिसाब—किताब बांध लेती हैं, करने योग्य कि नहीं। आदमी तो दुस्साहसी
होते हैं।
बंदर ने कहा, तू फिकर छोड़। तू बैठ, हिसाब कर। अब मैं चूक नहीं सकता। बंदरिया
ने फिर कहा, सुना है पुरखे
हमारे सदा कहते रहे ' अति सर्वत्र
वर्जयेत्'। अति नहीं
करनी चाहिए। अति का वर्जन है। अब जितना हो गया इतना क्या कम है? मगर बंदर न माना। मान जाता तो बंदर नहीं
था। कूद गया। कूदा तो फिर बंदर हो गया। उस सरोवर का यह गुण था—एक बार कूदो तो रूपांतरण। दुबारा कूदे तो
वही के वही। बंदरिया तो रानी हो गई। एक राजा के मन भा गई। बंदर पकड़ा गया एक मदारी
के हाथों में। फिर एक दिन मदारी लेकर राजमहल आया तो बंदर अपनी बंदरिया को सिंहासन
पर बैठा देख कर रोने लगा। याद आने लगी। और सोचने लगा, अगर मान ली होती बात दुबारा न कूदा होता!
तो बंदरिया ने उससे कहा, अब रोओ मत।
आगे के लिए इतना ही स्मरण रखो. अति सर्वत्र वर्जयेत्। अति वर्जित है।
ध्यान ऐसा ही सरोवर है। समाधि ऐसा ही
सरोवर है जहां तुम्हारा दिव्य ज्योतिर्धर रूप प्रकट होगा। लेकिन लोभ में मत पड़ना।
अति सर्वत्र वर्जयेत्।
अष्टावक्र महागीता
ओशो
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