पूछा है चिन्मय ने।
खोपड़ी से मुक्त होने का खयाल भी खोपड़ी का
ही है। मुक्त होने की जब तक आकांक्षा है,
तब तक मुक्ति संभव नहीं। क्योंकि आकांक्षा मात्र ही, आकांक्षा की अभीप्सा मन का ही जाल और खेल
है। मन संसार ही नहीं बनाता, मन मोक्ष भी
बनाता है। और जिसने यह जान लिया वही मुक्त हो गया।
साधारणतः ऐसा लगता है, मन ने बनाया है संसार, तो हम मन से मुक्त हो जाएं तो मुक्त हो
जाएंगे। वहीं भूल हो गयी। वहीं मन ने फिर धोखा दिया। फिर मन ने चाल चली। फिर मन ने
जाल फेंका। फिर तुम उलझे। फिर नया संसार बना। मोक्ष भी संसार बन जाता है।
संसार का अर्थ क्या है? जो उलझा ले। संसार का अर्थ क्या है? जो अपेक्षा बन जाए, वासना बन जाए। संसार का अर्थ क्या है? जो तुम्हारा भविष्य बन जाए। जिसके सहारे
और जिसके आसरे और जिसकी आशा में तुम जीने लगो, वही संसार है। दुकान पर बैठे हो, इससे संसार में हो; मंदिर में बैठ जाओगे, संसार के बाहर हो जाओगे--इतनी सस्ती बातों
में मत पड़ जाना।
काश,
इतना आसान होता! तब तो कुछ उलझन न थी। दुकान में संसार नहीं है, और न मंदिर में संसार से मुक्ति है।
अपेक्षा में, आकांक्षा में, आशा में संसार है; सपने में संसार है। तो तुम मोक्ष का सपना
देखो, तो भी संसार में हो।
संसार के बाहर वही है जो अभी और यहीं है।
लेकिन इसका तो अर्थ यह हुआ कि मोक्ष की आकांक्षा भी छोड़ देनी पड़ेगी। अन्यथा, मोक्ष के बहाने भी, मोक्ष की वासना से भी तुम नए-नए संसार
बनाते चले जाओगे।
समझना काफी है, छूटना नहीं है। छूटना किससे है? किसी ने बांधा होता तो छूटते। किसी ने
बांधा भी नहीं है। बंधन कहां है?
बंधन से छूटने की जल्दी मत करो। क्योंकि यह भी हो सकता है, बंधन हो ही न! तब तुम छूटने की कोशिश से
बंध जाओगे। और अगर बंधन नहीं है,
तो छूटोगे कैसे?
बंधन से छूटने की कोशिश मत करो, बंधन को जानने की कोशिश करो कि बंधन कहां
है! पूछो। जिज्ञासा करो। वासना मत करो।
विपरीत की वासना भी वासना है। तुम कुएं से
बचते हो, खाई में गिर
जाते हो। इससे क्या फर्क पड़ेगा कि तुमने गिरने का ढंग बदल लिया? तुम बाएं गिरे कि दाएं गिरे, इससे क्या भेद पड़ता है?
जिज्ञासा करो कि बंधन कहां है? बंधन क्या है? बंधन को भर आंख देखो। इसी को बुद्ध ध्यान
कहते हैं, अप्रमाद कहते
हैं, कि बंधन को भर आंख
देखो। तुम्हारे देखने-देखने में तुम पाओगे,
बंधन पिघला, बंधन गया।
क्योंकि बंधन तुम्हारी मूर्च्छा है। अगर तुम जागकर देखोगे, कैसे टिकेगा? बंधन वस्तुतः होता तो मुक्ति का कोई उपाय
न था। बंधन केवल खयाल है। बात में से बात निकल आयी है। कहीं कुछ है नहीं।
बुद्ध ने कहा: असत्य को असत्य की तरह देख
लेना मोक्ष है। असार को असार की तरह देख लेना मोक्ष है। सारा राज देख लेने में है।
यह तो पूछो ही मत कि खोपड़ी से कैसे मुक्ति
हो जाए। यह कौन है जो पूछ रहा है?
यह खोपड़ी ही है जो पूछ रही है। अगर इस खोपड़ी की बात मानकर चले, तो इससे तुम कभी मुक्त न हो पाओगे। जागकर
देखो, कौन पूछता है? गौर से सुनो, कौन प्रश्न उठाता है? यह कौन है जो मुक्त होना चाहता है? क्यों मुक्त होना चाहता है? बंधन कहां है?
और जिसने भी जागकर देखा, वह हंसने लगा; क्योंकि बंधन उसने कभी पाए नहीं। जागने
में कोई बंधन नहीं है। इसलिए बुद्ध चिल्ला-चिल्लाकर कहते हैं, प्रमाद में मत जीयो। अप्रमाद! जागो! होश
में आ जाओ! और तुम कहीं भी गए नहीं हो। तुम वहीं हो जहां तुम्हें होना चाहिए। भैंस
तुम कभी हुए नहीं हो। तुम वही हो जो तुम हो। तुम परमात्मा हो। इससे तुम रत्तीभर
यहां-वहां न हो सकते हो, न होने का कोई
उपाय है।
हां,
तुम भ्रांति में रह सकते हो। तुम अपने को जो चाहे समझ लो। मन शक्तिशाली है।
तुम जो चाहोगे वही बन जाओगे। और जिस दिन भी तुम देखना चाहोगे, उस दिन तुम दृष्टि बन जाओगे।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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