भक्ति का आविर्भाव है मनुष्य की निर्बलता
में। भक्ति का अविर्भाव है मनुष्य की असहाय अवस्था में, मनुष्य की दीनता में। मनुष्य एक छोटा—सा अंश है इस विराट का। संघर्ष करके जीतना
भी चाहो तो न जीत सकोगे। जिससे संघर्ष करना है, वह विराट है। जो संघर्ष करने चला है, बूंद से ज्यादा उसकी सामर्थ्य नहीं। हार
सुनिश्चित है। जो जीतने चलेगा,
हारेगा, भक्ति का
शास्त्र इस सूत्र को गहराई से पकड़ लेता है।—जो जीतने
चलेगा, वह हारेगा। और इसे
रूपातरित कर देता है। भक्ति कहती है हारने चलो और जीतोगे। क्योंकि देखा हमने—जो जीतने चला, हारा। तुम गणित को उलटा कर दो। जो हारा, सो जीता। जो झुका, वही बचा। जो मिटा, वही बचा।
धन्य पराजय मेरी जिसने
बचा लिया दंभी होने से,
मनुष्य लड़ना चाहता है। अगर कोई और न मिले
लड़ने को तो अपने से ही लड़ने लगता है,
लेकिन बिना लड़े मनुष्य को चैन नहीं। और जब तक तुम लड़ोगे तब तक भक्त न हो
सकोगे। जब तक तुम लड़ोगे, तब तक तुम
विभक्त रहोगे। विभाजित रहोगे, खंडों में
बंटे रहोगे।
अखंड़ के साथ एक छंद में बंध जाना है।
विराट में लीन हो जाना है। विराट से मैत्री है भक्ति, विराट से प्रेम है भक्ति। लड़ने के बहुत
उपाय हैं। सीधे स्थूल उपाय हैं,
सूक्ष्म बारीक उपाय हैं, वितान सीधे ही
लड़ने चल पड़ता है। वितान को भाषा सीधी—साफ है, लडाई की भाषा है। प्रकृति पर विजय पानी
है। जैसे कि हम प्रकृति से अलग हैं। हम ही तो प्रकृति हैं। विजय कौन पायेगा, किस पर पायेगा? यहां विजेता होने को दो कहा हैं? यहां एक ही विस्तार है। यहां बाहर भी वही
है, भीतर भी वही है। लेकिन
वितान स्थूल भाषा बोलता है। कम से कम ईमानदार भाषा बोलता है।
अथातो भक्ति जिज्ञासा
ओशो
No comments:
Post a Comment