प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन साथ ही बहुत नाजुक भी है। पहली बात समझने की यह है कि
जीवन बहुत विरोधाभासी है और उसके कारण बहुत सी चीजें घटित होती हैं। विकल्प दो ही
हैं. मनुष्य स्वर्ग में हो सकता है या नरक में। तीसरी कोई संभावना नहीं है। या तो
तुम गहन दुख का जीवन चुन सकते हो या दुख—शून्य प्रगाढ़
आनंद का जीवन चुन सकते हो। ये दो ही विकल्प हैं, ये दो ही
संभावनाएं हैं, ये दो ही द्वार हैं—जीने के दो ढंग। लेकिन तब स्वभावत: प्रश्न उठता है कि
मनुष्य दुख का जीवन क्यों चुनता है?
दुख मनुष्य का चुनाव नहीं है, चुनाव तो वह सदा आनंद का ही करता है। लेकिन यहीं विरोधाभास
खड़ा हो जाता है। विरोधाभास यह है कि अगर तुम आनंद चाहते हो तो तुम्हें दुख मिलेगा, क्योंकि आनंद की पहली शर्त चुनाव—रहितता है। यही समस्या है। अगर तुम आनंद का चुनाव करते हो
तो तुम्हें दुख में जीना पड़ेगा। और अगर तुम कोई चुनाव नहीं करते हो, सिर्फ साक्षी रहते हो, चुनाव—रहित साक्षी, तो तुम आनंद
में होगे।
तो प्रश्न यह नहीं है कि आनंद और दुख के
बीच चुनाव करना है, प्रश्न यह है कि चुनाव और अचुनाव के बीच
चुनाव करना है। लेकिन ऐसा क्यों होता है कि जब भी तुम चुनाव करते हो तो तुम सदा
दुख ही पाते हो?
चुनाव विभाजन करता है, बांटता है। चुनाव का मतलब है कि तुम जीवन से कुछ को इनकार
करते हो, कुछ को अलग करते हो। चुनाव का अर्थ है कि
तुम समग्र जीवन को नहीं स्वीकार करते हो; उसमें से कुछ
को स्वीकार करते हो और कुछ को इनकार करते हो।
लेकिन जीवन का विभाजन संभव नहीं है, जब तुम बांटकर कुछ को चुनते हो तो जिसे तुम इनकार करते हो
वह तुम्हारे पास बार—बार लौट आता है। जीवन को खंडों में नहीं
बांटा जा सकता, वह अखंड है। और इसलिए जिस हिस्से को तुम
इनकार करते हो, वह इनकार करने से ही शक्तिशाली हो जाता
है। और सचाई यह है कि तुम उससे भयभीत रहते हो।
जीवन के किसी भी हिस्से को इनकार नहीं
किया जा सकता, छोड़ा नहीं जा सकता;
जीवन समग्र है, यह एक बात। और दूसरी बात कि जीवन सतत परिवर्तन है, सतत बदलाहट है। ये बुनियादी सत्य हैं। एक कि जीवन के खंड
नहीं किए जा सकते और दूसरा कि कुछ भी स्थायी नहीं है, कुछ भी ठहरा हुआ नहीं है।
तो जब तुम कहते हो कि मैं दुख नहीं लूंगा, मैं तो सदा आनंद ही लूंगा, तो तुम सुख से
चिपकोगे। और जब तुम किसी चीज से चिपकते हो तो तुम चाहते हो कि वह हमेशा बनी रहे।
लेकिन जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं है, कुछ भी ठहरा
हुआ नहीं है। जीवन एक प्रवाह है। तो जब तुम सुख का आग्रह करते हो, सुख से चिपकते हो, तो तुम इस
आग्रह के कारण ही दुख को बुलावा दे रहे हो, दुख का
निर्माण कर रहे हो। क्योंकि यह सुख तो जाने वाला है, यहं। कुछ भी
स्थायी नहीं है। यह तो एक नदी है, सतत बह रही है, भागी जा रही है। और जब तुम नदी से चिपकते हो तो तुम ऐसी
स्थिति का निर्माण कर रहे हो जिसमें देर— अबेर निराशा
ही हाथ आएगी। नदी तो आगे बढ़ जाएगी; देर— अबेर तुम पाओगे कि नदी तो जा चुकी है, तुम्हारे पास नहीं है। तुम पाओगे कि तुम्हारे हाथ खाली हैं
और तुम हाथ मल रहे हो, सिर धुन रहे
हो।
अगर तुम सुख को पकड़कर रखना चाहते हो तो
तुम इस आग्रह के कारण ही सुख को भी नहीं भोग पाओगे। उसके जाने पर तो रोओगे ही, अभी भी तुम उसका सुख नहीं ले पाओगे; क्योंकि यह भय तो निरंतर बना ही हुआ है कि कहीं यह चला न
जाए।
पहली बात कि जीवन को खंडों में नहीं बांटा
जा सकता है। और चुनाव करने के लिए बांटना जरूरी है, अन्यथा चुनाव
कैसे करोगे? और फिर तुम जिसे चुनोगे वह रुकने वाला
नहीं है—देर—अबेर वह जाने
वाला है। और तब वह हिस्सा सामने आएगा जिसको तुमने इनकार किया है; तुम उससे बच नहीं सकते। तुम यह नहीं कह सकते कि दिन तो मैं
लूंगा, लेकिन रात नहीं लूंगा; तुम यह नहीं कह सकते कि मैं श्वास लूंगा, लेकिन छोडूंगा नहीं, मैं उसे बाहर
नहीं जाने दूंगा।
जीवन विरोधों से बना है, वह विरोधी स्वरों से बना हुआ संगीत है। श्वास भीतर आती है, श्वास बाहर जाती है, और इन दो
विरोधों के बीच, उनके कारण ही, तुम जीवित हो। वैसे ही दुख है और सुख है। सुख आने वाली
श्वास की भांति है; दुख जाने वाली श्वास की भांति है। या सुख—दुख दिन—रात जैसे हैं।
विरोधी स्वरों का संगीत है जीवन। और तुम यह नहीं कह सकते कि मैं सुख के साथ ही
रहूंगा, दुख के साथ नहीं रहूंगा। और अगर तुम यह
दृष्टिकोण रखते हो तो तुम और गहरे दुख में गिरोगे। यही विरोधाभास है।
स्मरण रहे, कोई आदमी दुख
नहीं चुनता है, दुख नहीं चाहता है। तुम पूछते हो, क्यों आदमी दुख का चुनाव करता है। किसी ने भी दुख का चुनाव
नहीं किया है। तुमने तो सुखी रहने का चुनाव किया है, दुखी रहने का
नहीं। और तुमने सुखी रहने का चुनाव दृढ़ता के साथ किया है। सुखी रहने के लिए तुम
सारे प्रयत्न करते हो, उसके लिए तुम
कुछ भी उठा नहीं रखते हो। लेकिन विडंबना यह है कि इसी कारण तुम दुखी हो, इसी कारण तुम सुखी नहीं हो। फिर किया क्या जाए?
स्मरण रखो कि जीवन अखंड है, जीवन समग्र है। इसमें चुनाव संभव नहीं है। पूरे जीवन को
स्वीकार करना है। पूरे जीवन को जीना है। सुख के क्षण आएंगे और दुख के भी क्षण
आएंगे; और दोनों को अंगीकार करना है। चुनाव
व्यर्थ है; क्योंकि जीवन दोनों है। अन्यथा लयबद्धता
खो जाएगी, और इस लयबद्धता के बिना जीवन नहीं चल सकता
है।
तंत्र सूत्र
ओशो
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