पूछा है ईश्वर समर्पण ने।
समझना।
जीवन में हमेशा अतिया हैं।
और अतियों के बीच एक समन्वय चाहिए। दिन भर तुमने
श्रम किया, रात विश्राम
किया और सो गये। असल में जितना गहरा श्रम करोगे, उतनी ही रात
गहरी नींद आ जाएगी। यह बड़ा अतर्क्य है। तर्क तो यह होता कि दिन भर आराम करते,
अभ्यास करते आराम का, तो रात गहरी नींद आनी चाहिए
थी। क्योंकि जिसने दिन भर अभ्यास किया विश्राम का, करवटें बदलता
रहा बिस्तर पर पड़ा हुआ, बहाने करता रहा सोने का, उसको गहरी नींद आनी चाहिए रात में। तार्किक तो यही होता। क्योंकि दिन भर बिचारे
ने अभ्यास किया सोने का, इसके अभ्यास का फल तो मिलना चाहिए। मगर
जो दिन भर बिस्तर पर पड़ा रहा, वह रात सो न सकेगा। सोने की जरूरत
ही पैदा नहीं हुई।
विपरीत जीवन चलता है। दिन भर श्रम किया, वह रात सोएगा। इसलिए अमीर आदमी
अगर अनिद्रा से बीमार रहने लगते हैं तो कुछ आश्चर्य नहीं। निंद्रा का कारण ही नहीं
रह जाता। तुमने देखा, बंबई की सड़क पर भी मजदूर सो जाते हैं। भरी
दुपहरी में! बंबई का शोरगुल, रास्ता, और
कोई अपनी ठेलागाड़ी के ही नीचे पड़ा है और सो रहा है, और मस्त घुर्रा
रहा है! और उसी के पास खड़े महल में कोई वातानुकूलित भवन में सुंदर—सुंदर शैप्याओं पर रात भर करवट बदलता है। कुछ नींद नहीं आती। गरीब को अनिद्रा
कभी नहीं सताती। गरीब और अनिद्रा इसका मेल नहीं है। और अमीर को अगर अनिद्रा हो तो समझना
कि अमीरी में अभी कुछ कभी है। अभी अमीर हुए नहीं। अभी और 'बैंक—बैलेंस' चाहिए। अभी गरीब ही हैं, तभी तो सो रहे हैं, नहीं तो सोते कैसे!
दिन में जो श्रम करता है, वह रात विश्राम करता है। श्रम
और विश्राम का तालमेल है। दिन भर रोशनी, रात अंधेरा हो जाता है।
रात और दिन का तालमेल है। जीवन और मृत्यु, दोनों साथ—साथ हैं। एक श्वास भीतर गयी, तो एक श्वास बाहर जाती है।
एक श्वास बाहर गयी, तो फिर एक श्वास भीतर आती है। तुम अगर कहो
कि मैं भीतर ही रखूं श्वास को, तो मुश्किल हो जाएगी। तुम कहो
बाहर ही रखूं? तो मुश्किल हो जाएगी।
ऐसा ही स्मरण और विस्मरण का मेल है। ऐसे ही ध्यान
और प्रेम का मेल है।
ध्यान और प्रेम दो प्रक्रियाएं हैं। प्रेम में
दूसरे का स्मरण रहता है, ध्यान में स्वयं का। तुम चौबीस घंटे स्वयं का स्मरण करोगे तो थक जाओगे। थोड़ी—
थोड़ी देर को दूसरे का स्मरण भी आ जाना चाहिए। उतनी देर विश्राम मिल जाता
है। फिर से स्वयं का स्मरण आएगा।
इसलिए ईश्वर भाई का प्रश्न महत्वपूर्ण है। वे
कहते हज, किसी से
बात करते समय, किसी की उपस्थिति में, भोजन
करते समय ध्यान भूल— भूल जाता है। यह बिलकुल स्वाभाविक है। भूलना
ही चाहिए। अगर तुम दूसरे की उपस्थिति में ध्यान का स्मरण रखोगे, तो तुम दूसरे का अपमान करोगे। क्योंकि सका मतलब होगा, तुम दूसरे पर ध्यान दे ही नहीं रहे। वह तो ऐसे ही हुआ कि दूसरा आदमी सामने
खड़ा है और तुम भीतर कह रहे—राम—राम,
राम—राम, राम—राम! अब यह जो राम सामने खड़े हैं, इनका अपमान हो रहा
है। तुम भीतर कुछ चला रहे हो! तुम कह रहे हों—होश रखना है! देखता
रहूं! जागा रहूं! तुम एक काम में उलझे हो, यह बिचारा सामने खड़ा
है, यह देखेगा कि मुझसे तो कुछ लेना ही देना नहीं है। यह अपमान
हो जाएगा। यह राम का अपमान हो जाएगा।
जब कोई सामने मौजूद है, भूलो अपने को, पूरी तरह इसमें डूब जाओ! यह घड़ी प्रेम की है। ध्यान को प्रेम में डुबा दो।
जब कोई नहीं है, अकेले बैठे हैं, तब फिर
प्रेम को ध्यान में उठा दो, फिर ध्यान को पकड़ लो। एकांत में ध्यान,
संग साथ में प्रेम दोनों के बीच डोलते रहो। इन दोनों के बीच जितनी यात्रा
होगी, और जितनी सुगमता से यात्रा होगी, उतना ही आत्मविकास होगा। ये दोनों ऐसे ही हैं जैसे घड़ी का पेंडुलम बायें जाता,
बायें जाता, दायें जाता। घड़ी के पेंडूलम को बीच
में पकड़ लो जोर से—घडी ठप्प! फिर घड़ी नहीं चलेगी। यह जो पेंडुलम
जाता है, दायें—बायें, इसके सहारे घडी चलती है। और जीवन का पेंडुलम हमेशा बायें—दायें जा रहा है। इसी के सहारे जीवन चलता है।
सब तलों पर, सब आयामों में, रात हो दिन,
काम हो कि विश्राम, भीतर जाती श्वास हो कि बाहर
जाती श्वास, ध्यान हो कि प्रेम, हर चीज
में इन दो अतियों के बीच एक ताल मेल है। संगीत पैदा होता है ध्यानी से और शून्य के
मिलन से।
ऐसे ही जीवन का संगीत पैदा होता है प्रेम और
ध्यान से। दोनों को सम्हालो! जब अकेले तब ध्यान में, तब कोई मौजूद हो तब प्रेम में। जब प्रेम में तो
अपने को बिलकुल भूल जाओ। और जब ध्यान में तो दूसरे को बिलकुल भूल जाओ।
और यह रूपांतरण इतना सहज होना चाहिए, इतना तरल होना चाहिए,
कि इसमें जरा भी अड़चन न हो। यह सहज रूप से हो जाए। जैसे तुम घर के बाहर
आते, भीतर जाते; जैसे श्वास लेते,
श्वास छोड़ते; इतना ही सहज होना चाहिए।
अथातो भक्ति जिज्ञासा
ओशो
No comments:
Post a Comment