जितना गहरा सातत्य होगा, उतने ही अनुभव की प्रगाढ़ता होगी। अक्सर
ऐसा हो जाता है कि दो दिन किया,
एक दिन नहीं किया, तो आप
फिर उसी जगह खड़े हो जाते हैं,
जहां आप दो दिन करने के पहले थे। कम से कम तीन महीने के लिए तो एकदम सातत्य
चाहिए। जैसे हम कुआं खोदते हैं,
एक ही जगह खोदते चले जाते हैं। आज एक जगह खोदें, फिर दो दिन बंद रखें,
फिर दूसरे दिन दूसरी जगह खोदें,
फिर चार दिन बंद रखें, फिर कहीं
खोदें। वह कुआं कभी बनेगा नहीं। वह बनेगा नहीं।
जलालुद्दीन रूमी एक दिन अपने
विद्यार्थियों को लेकर जो ध्यान सीख रहे थे,
सूफी फकीर था, एक खेत में
गया। और उन विद्यार्थियों से कहा,
जरा खेत को गौर से देखो! वहां आठ बड़े-बड़े गङ्ढे थे। उन विद्यार्थियों ने कहा, पूरा खेत खराब हो गया। यह मामला क्या है? रूमी ने कहा, खेत के मालिक से पूछो। उस मालिक ने कहा कि
मैं कुआं खोद रहा हूं। पर उन्होंने कहा कि तुमने आठ गङ्ढे खोदे, अगर तुम एक ही जगह इतनी ताकत लगा देते आठ
गङ्ढों की, तो न मालूम
कितने गहरे कुएं में पहुंच जाते। तुम यह कर क्या रहे हो?
उसने कहा कि कभी काम पिछड़ जाता है, बंद हो जाता है। फिर मैं सोचता हूं, पता नहीं उस जगह पानी हो या न। फिर दूसरी
जगह शुरू करता हूं। वहां भी नहीं मिलता,
फिर तीसरी जगह शुरू करता हूं,
फिर चौथी जगह। आठ गङ्ढे तो खोद चुका,
लेकिन कुआं अब तक नहीं खुदा है।
रूमी ने कहा कि देखो, तुम भी अपने ध्यान में कुआं खोदते वक्त
खयाल रखना। यह किसान बड़ा कीमती है। तुम भी ऐसी भूल मत कर लेना। इसने ज्यादा नुकसान
नहीं उठाया, केवल खेत खराब
हुआ। तुम ज्यादा नुकसान उठा सकते हो,
पूरा जीवन खराब हो सकता है।
अक्सर ऐसा होता है, अक्सर ऐसा होता है, आप में से कई ने न मालूम कितनी बार ध्यान
शुरू किया होगा, फिर छोड़ दिया।
फिर शुरू करेंगे, फिर छोड़
देंगे।
नहीं; कम से कम तीन महीना बिलकुल सतत। और तीन महीना क्यों कहता
हूं? क्या इसलिए कि तीन
महीनों में सब कुछ हो जाएगा?
जरूरी नहीं है! लेकिन एक बात पक्की है कि
तीन महीने में इतना रस जरूर आ जाएगा कि फिर एक भी दिन बंद करना असंभव है। तीन
महीने में हो भी सकती है घटना। नहीं होगी,
ऐसा भी नहीं कहता हूं। तीन दिन में भी हो सकती है, तीन घंटों में भी, तीन क्षण में भी हो सकती है। आप पर निर्भर
करता है कि कितनी प्रगाढ़ता से आपने छलांग मारी। लेकिन तीन महीना इसलिए कहता हूं कि
मनुष्य के मन की कोई भी गहरी पकड़ बनने के लिए तीन महीना जरूरी सीमा है।
ध्यान दर्शन
ओशो
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