एकांत दो प्रकार का हो सकता है, क्योंकि मनुष्य-जाति दो भागों में बंटी है। एक, जिसको कार्ल गुस्ताव जुंग ने बहिर्मुखी व्यक्ति कहा है, ऐक्स्ट्रोवर्ट और एक, जिसको
अंतर्मुखी व्यक्ति कहा है, इंट्रोवर्ट।
दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक, जिनके लिए आंख खोलकर देखना सहज है; जो अगर परमात्मा के सौंदर्य को देखना चाहेंगे तो इन वृक्षों
की हरियाली में दिखाई पड़ेगा, चांदत्तारों
में दिखाई पड़ेगा, आकाश में मंडराते शुभ्र बादलों में दिखाई
पड़ेगा, सूरज की किरणों में, सागर की लहरों में, हिमालय के
उत्तुंग हिमाच्छादित शिखरों में, मनुष्यों की
आंखों में, बच्चों की किलकिलाहट में।
बहिर्मुखी का अर्थ है, उसका परमात्मा खुली आंख से दिखेगा। अंतर्मुखी का अर्थ है, उसका परमात्मा बंद आंख से दिखेगा, अपने भीतर। वहां भी रोशनी है। वहां भी कुछ कम चांदत्तारे
नहीं हैं। कबीर ने कहा है हजार-हजार सूरज। भीतर भी हैं! इतने ही चांदत्तारे, जितने बाहर हैं। इतनी ही हरियाली, जितनी बाहर है। इतना ही विराट भीतर भी मौजूद है, जितना बाहर है।
बाहर और भीतर संतुलित हैं, समान अनुपात में हैं। भूलकर यह मत सोचना कि तुम्हारी
छोटी-सी देह, इसमें इतना विराट कैसे समाएगा; यह विराट तो बहुत बड़ा है, बाहर विराट है, भीतर तो छोटा होगा! भूलकर ऐसा मत सोचना। तुमने अभी भीतर
जाना नहीं। भीतर भी इतना ही विराट है--भीतर, और भीतर, और भीतर! उसका
भी कोई अंत नहीं है। जैसे बाहर चलते जाओ, चलते जाओ, कभी सीमा न आएगी विश्व की--ऐसे ही भीतर डूबते जाओ, डूबते जाओ, डूबते जाओ, कभी सीमा नहीं आती अपनी भी। यह जगत् सभी दिशाओं में अनंत
है। इसलिए हम परमात्मा को अनंत कहते हैं; असीम कहते हैं, अनादि कहते हैं । सभी दिशाओं में!
महावीर ने ठीक शब्द उपयोग किया है। महावीर
ने अस्तित्व को "अनंतानंत' कहा है। अकेले
महावीर ने--और सब ने अनंत कहा है। लेकिन महावीर ने कहा, अनंतता भी अनंत प्रकार की है; एक प्रकार की
नहीं है; एक ही दिशा में नहीं है; एक ही आयाम में नहीं है--बहुत आयाम में अनंत है, अनंतानंत! इधर
भी अनंत है, उधर भी अनंत है! नीचे की तरफ जाओ तो भी
अनंत है, ऊपर की तरफ जाओ तो भी अनंत! भीतर जाओ, बाहर जाओ--जहां जाओ वहां अनंत है। यह अनंता एकांगी नहीं है, बहु रूपों में है। अनंत प्रकार से अनंत है--यह मतलब हुआ अनंतानंत
का।
तो तुम्हारे भीतर भी उतना ही विराट बैठा
है। अब या तो आंख खोलो--और देखो; या आंख बंद
करो--और देखो! देखना तो दोनों हालत में पड़ेगा। द्रष्टा तो बनना ही पड़ेगा। चेतना तो
पड़ेगा ही। चैतन्य को जगाना तो पड़ेगा। सोए-सोए काम न चलेगा।
बहुत लोग हैं जो आंख खोलकर सोए हुए हैं।
और बहुत लोग हैं जो आंख बंद करके सो जाते हैं। सो जाने से काम न चलेगा; फिर तो आंख बंद है कि खुली है, बराबर है; तुम तो हो ही
नहीं, देखनेवाला तो है ही नहीं--तो न बाहर देखोगे न भीतर देखोगे।
यह आंख बीच में है। पलक खुल जाए तो बाहर का विराट; पलक झप जाए तो
भीतर का विराट।
बहिर्मुखी का अर्थ है, जिसे परमात्मा बाहर से आएगा। अंतर्मुखी का अर्थ जिसे
परमात्मा भीतर से आएगा। अंतर्मुखी ध्यानी होगा; बहिर्मुखी, भक्त। इसलिए अंतर्मुखी परमात्मा की बात ही नहीं करेगा।
परमात्मा की कोई बात ही नहीं; परमात्मा तो
"पर' हो गया। अंतर्मुखी तो आत्मा की बात करेगा।
इसलिए महावीर ने, बुद्ध ने परमात्मा की बात नहीं की। वे परम
अंतर्मुखी व्यक्ति हैं। और मीरां, चैतन्य, इन्होंने परमात्मा की बात की। ये परम बहिर्मुखी व्यक्ति
हैं। अनुभव तो एक का ही है क्योंकि बाहर और भीतर जो है वह दो नहीं है; वह एक ही है। मगर तुम कहां पहुंचोगे? बाहर से पहुंचोगे या भीतर से, इससे फर्क पड़
जाता है।
इधर से कान पकड़ोगे या उधर से, इतना ही फर्क है। कान तो वही हाथ में आएगा। आता तो परमात्मा
ही हाथ में है। जब भी कुछ हाथ में आता है, परमात्मा ही
हाथ में आता है। और तो कुछ है ही नहीं हाथ में आने को। जिस हाथ में आता है वह हाथ
भी परमात्मा है। परमात्मा ही परमात्मा के हाथ में आता है।
अजहुँ चेत गँवार
ओशो
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