मैं उनसे कहता हूं कि मेरे करने का कोई
सवाल ही नहीं है। तुम्हारा समर्पण है, तुम्हारे करने
से कुछ होता है। समर्पण करने से होता है। इसलिए कभी पत्थर की मूर्ति के सामने भी
बैठ कर अगर तुम समर्पण कर दोगे तो वहां भी हो जायेगा। यह मत सोच लेना कि पत्थर की
मूर्ति कुछ करती है। पत्थर तो पत्थर ही है। पत्थर क्या करेगा? लेकिन तुमने अगर समर्पण कर दिया तो पत्थर की मूर्ति तो
बहाना हो गई, निमित्त हो गई; इस बहाने तुमने अपनी खोपड़ी उतार कर रख दी। तुमने कहा अब ठीक, तू सम्हाल।
तुम किसी भी बहाने अगर अपने को खाली कर
सकते हो, कर तुम्हीं रहे हो। बहाना चाहिए। बिना
बहाना मुश्किल होता है, कठिनाई होती
है। इसलिए ये सब बहाने हैं। गुरु एक बहाना है। और पतंजलि ने तो योगसूत्र में कहा
कि परमात्मा भी एक बहाना .है। तुम बहुत घबडाओगे। मगर बात तो सही है। परमात्मा भी
एक विधि है। परमात्मा के बहाने तुम्हें छोड़ना आसान हो जाता है। तुम कहते हो : अब
प्रभु तुम सम्हालो। ऐसा नहीं कि कोई वहां झपट कर सम्हाल लेता है। कोई वहा नहीं है।
कोई वहां नहीं है। कोई सम्हालने वाला नहीं है। लेकिन जिस क्षण तुम छोड़ पाते हो, उसी क्षण क्रांति घट जाती है। तुम्हारे छोड़ते ही बोझ हलका
हो जाता है।
'जैसे ही कहा
आप ही सम्हाले, तत्क्षण एक हलकापन महसूस हुआ और मैं
मस्ती में डूब गया।’ वही ऊर्जा जो खोपड़ी में चल रही थी, मुक्त हो गई, मस्ती बन गई।
न तो मैंने तुम्हें सम्हाला, न मैंने
तुम्हें मस्ती दी। मस्ती उसी ऊर्जा से बन गई। वे ही अगर जो विचारों और शब्दों में
खोये जा रहे थे, मुक्त हो गये विचार—शब्दों से। क्षण भर में मदिरा तैयार हो गई, तुम मस्त हो गये, लवलीन हो गये।
तुम्हारी मस्ती तुम्हारे भीतर। तुम्हारी मधुशाला तुम्हारे भीतर।
गुरु तो तुम्हें तुम्हारे ही भीतर पहुंचा
देता है। गुरु तो गुरुद्वारा है। वह तो दरवाजा है। वह तो तुम्हें तुम्हारे ही भीतर
पहुंचा देता है।
तुम अगर सच्चाई की बात पूछो तो मैं तुम्हें
वही दे सकता हूं जो तुम अपने को देने को राजी हो। उससे ज्यादा नहीं।
तो यहां कोई आता है, परम आनंद से भर जाता है और कोई आकर वैसे का वैसा ही लौट
जाता है। जो वैसा का वैसा ही लौट जाता है, वह कहता है कि
हमें तो कुछ भी न हुआ। जो परम आनंद से भर कर लौटा, वह कहता है कि
बड़ी गुरुकृपा हुई! जो आनंद से भर कर नहीं लौटा, वह समर्पण न कर पाया। जो आनंद से भर कर लौटा, वह समर्पण कर पाया। समर्पण करने से घटना घटी।
मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं। इसलिए तो मैं
तुमसे कहता हूं कि मेरे जाने के बाद भी तुम अगर समर्पण करोगे तो काम जारी रहेगा, क्योंकि अभी भी मैं कुछ नहीं कर रहा हूं। तो जाने से भी कोई
फर्क नहीं पड़ेगा। इसीलिए तो क्राइस्ट को गये दो हजार साल हो गये, कोई फर्क नहीं पड़ता. अब भी जो क्राइस्ट को प्रेम करता है, घटना घट जाती है। बुद्ध को गये ढाई हजार साल हो गये, कोई फर्क नहीं पड़ता। जो बुद्ध की मूर्ति के सामने आज भी
भावपूर्ण हो कर डूब जाता है, घटना घट जाती
है। वह सोचता है कि अदभुत, ढाई हजार साल
हो गये, फिर भी प्रभु तुम अभी तक कृपा किए जा रहे
हो! प्रभु तब भी कृपा नहीं करते थे। तब भी बहाना थे। तब भी मूर्ति ही थे।
इसे तुम समझो तो तुम्हारे पास अपनी
मालकियत आ जाये। गुरु तुम्हें निर्भर नहीं बनाना चाहता। और जो बनाना चाहे वह गुरु
नहीं है। गुरु तुम्हें आत्मनिर्भर करना चाहता है, तुम्हें मुक्त
करना चाहता है। गुरु तुम्हें बांध ले तो दुश्मन हो गया।
मैं तुम्हें परिपूर्ण रूप से मुक्त करना
चाहता हूं। मैं तुम्हें हर स्थिति में मुक्त करना चाहता हूं। मैं तुम्हें अपने से
भी मुक्त करना चाहता हूं। तभी मुक्ति की मदिरा तुम्हारे जीवन में पूरी—पूरी उतरेगी। तो मैं फिर से दोहरा दूं। मैं तुम्हें वही
देता हूं जो तुम अपने को देने को राजी हो जाते हो। लेकिन तुम अभी इतने कुशल नहीं
हो कि सीधे—सीधे एक हाथ से अपने दूसरे हाथ को दे दो; पहले तुम मुझे देते हो, फिर मैं
तुम्हें देता हूं। ऐसे जिस दिन तुम समर्थ हो जाओगे, तुम सीधा—सीधा दे लोगे। तुम कहोगे आपको क्यों कष्ट दें! जब तक ऐसा
नहीं हुआ है, तुम मजे से मुझे कष्ट दिए चले जाओ, मुझे कोई कष्ट नहीं हो रहा है।
अष्टावक्र महागीता
ओशो
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