भगवान, आपकी बातें सुनता हूं तो लगता है कि जब आप कहते हैं तो
परमात्मा होगा ही। फिर भी मन प्रमाण मांगता है।
परमात्मा का कोई प्रमाण नहीं है और न
परमात्मा का कोई प्रमाण हो सकता है;
क्योंकि परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं, जो उसका प्रमाण बन सके। परमात्मा ही है, रत्ती-भर भी स्थान शेष नहीं है, जहां परमात्मा का प्रमाण अपना आवास बना
सके। जो है वह परमात्मा है। प्रमाण भी होगा तो वह भी परमात्मा ही होगा।
परमात्मा का प्रमाण मन जरूर मांगता है और
मन के प्रमाण मांगने के गहरे कारण हैं। प्रमाण मांगने में ही परमात्मा नहीं है, ऐसा मन को आभास मिलना शुरू हो जाता है।
क्योंकि प्रमाण तो परमात्मा का कोई है नहीं,
दिया नहीं जा सकता, कभी दिया नहीं
गया, कभी दिया भी नहीं
जाएगा। और जिन्होंने दिए हैं, सब झूठे
प्रमाण हैं। बच्चों को समझाने की बातें हैं। उनसे कुछ मन की तृप्ति नहीं होती।
आस्तिक के पास प्रमाण नहीं होता, प्रेम होता है। नास्तिक के पास तर्क होता
है। इतना भेद है आस्तिक और नास्तिक में। ऐसा मत सोचना कि आस्तिक के पास प्रमाण हैं
और नास्तिक के पास प्रमाण नहीं हैं। आस्तिक के पास प्रेम है, कोई प्रमाण नहीं है। प्रेम चिंता भी नहीं
करता प्रमाणों की, प्रमाण प्रेम
की भाषा में भी नहीं आते। नास्तिक के पास तर्क है, प्रमाण उसके पास भी कोई नहीं है--पक्ष में या विपक्ष में।
प्रमाण तो हो ही नहीं सकता। लेकिन तर्क की एक सुविधा हैः अगर परमात्मा सिद्ध न हो
सके तो मन की बचे रहने कि लिए उपाय मिल जाता है। अगर प्रकाश नहीं है तो अंधेरा बच
सकता है और अगर प्रकाश है तो अंधेरे को मिटना होगा।
आस्तिक वही है जिसका मन मिट गया। नास्तिक
वही है, जो कहता हैः पहले
प्रमाण चाहिए। और प्रमाण मिलेंगे नहीं,
मन को मिटने का कारण न आएगा। परमात्मा के संबंध में प्रमाण मांगना मन की बड़ी
गहरी चालबाजी है।
तुम,
सौंदर्य है फूल में, इसका प्रमाण
मांगो; प्रमाण नहीं मिलेगा, सौंदर्य है! तुम भी जानते हो सौंदर्य है।
किसी सुबह सूरज की ताजीत्ताजी किरणों में तुमने कमल के फूल को खिलते देखा? क्या कह सकोगे कि सौंदर्य नहीं है? नहीं अभिभूत हो गए हो? नहीं हृदय में कुछ आंदोलित हो उठा है? रात तारों से भरी है और तुम अछूते रह गए
हो! और आकाश अनंत रहस्यों से परिपूर्ण और तुम्हारा हृदय नाचा नहीं है? लेकिन प्रमाण क्या है! तारे सुंदर हैं, इसका प्रमाण क्या है? और कमल सुंदर है, इसका प्रमाण क्या है?
क्या किसी स्त्री, किसी पुरुष, किसी मित्र के प्रेम में नहीं पड़े हो? और आंखें जादू से नहीं भर गई हैं? और रूप में कुछ अरूप की झलक नहीं मिली है।
आकार में कहीं-कहीं निराकार की पगध्वनि नहीं सुनाई पड़ी है? कभी किन्हीं आंखों में झांककर जीवन की
अतिरहस्यमयता का बोध नहीं हुआ है?
हुआ है। इतना अभागा कौन है कि जिसे जीवन में कभी भी ऐसा कोई अनुभव न हुआ हो जो
प्रमाणातीत है? लेकिन तुमने
प्रमाण नहीं मांगा।
प्रमाण मांगते तो कमल तो रह जाता, कमल क्या कीचड़ ही रह जाती, सौंदर्य विलीन हो जाता। प्रमाण मांगते, आकाश तारों से भरा रह जाता, लेकिन रात्रि का काव्य और रात्री का रहस्य
और रात्रि का संगीत सब विलीन हो गया होता। प्रमाण मांगते तो स्त्री तो रह जाती
हड्डी-मांस-मज्जा की देह, लेकिन उसमें
छलक आया अज्ञात तत्क्षण तिरोहित हो जाता। लेकिन तुमने वहां प्रमाण नहीं मांगे या
जिन्होंने मांगे हैं उनके लिए सौंदर्य भी नहीं है, सत्य भी नहीं है,
परमात्मा भी नहीं है, प्रेम भी नहीं
है, शुभ भी नहीं है, आनंद भी नहीं है। उनके लिए बचता क्या है? उनके लिए कुछ भी जीवन-योग्य नहीं बचता।
खाते-बही करो, रुपए-पैसे का
हिसाब लगाओ, धन-दौलत जोड़ो।
फिर उनके पास व्यर्थ कूड़ा-करकट इकट्ठा करने के लिए ही उपाय बचता है। क्योंकि जीवन
में जो भी महिमावान है वह उनके हाथों के बाहर हो जाता है। जिसे तुमने इनकार कर दिया, उसके द्वार तुम्हारे लिए बंद हो गए। जिस
मंदिर को तुमने नकार दिया वह मंदिर तुम्हारे लिए न रहा।
जीवन में प्रमाण हैं--क्षुद्र बातों के, व्यर्थ बातों के। जीवन में प्रमाण नहीं
हैं--विराट के, अनंत के, शाश्वत के।
प्रेम रस रंग ओढ़ी चुनरिया
ओशो
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