नक्षत्र-विज्ञान सांसारिक मन की ही दौड़
है। ज्योतिषियों के पास कोई आध्यात्मिक पुरुष थोड़े ही जाता है। ज्योतिषियों के पास
तो संसारी आदमी जाता है। कहता है : भूमि-पूजा करनी है, नया मकान बनाना है, तो लगन-महूरत; कि नई दुकान खोलनी है, तो लगन-महूरत; कि नई फिल्म का उद्घाटन करना है, लगन महूरत; कि शादी करनी है बेटे की, लगन-महूरत।
संसारी डरा हुआ है : कहीं गलत न हो जाए!
और डर का कारण है, क्योंकि सभी
तो गलत हो रहा है; इसलिए डर भी
है कि और गलत न हो जाए! ऐसे ही तो फंसे हैं,
और गलत न हो जाए!
संसारी भयभीत है। भय के कारण सब तरफ
सुरक्षा करवाने की कोशिश करता है। और जिससे सुरक्षा हो सकती है, उस एक को भूले हुए है। वही तो पलटू कहते
हैं कि जिस एक के सहारे सब ठीक हो जाए,
उसकी तो तू याद ही नहीं करता;
और सब इंतजाम करता है : लगन-महूरत पूछता है। और एक विश्वास से, एक श्रद्धा से, उस एक को पकड़ लेने से सब सध जाए--लेकिन वह
तू नहीं पकड़ता, क्योंकि वह
महंगा धंधा है। उस एक को पकड़ने में स्वयं को छोड़ना पड़ता है; सिर काट कर रखना होता है।
इसलिए वह तो तुम नहीं कर सकते। तुम कहते
हो : हम दूसरा इंतजाम करेंगे; सिर को भी
बचाएंगे और लगन-महूरत पूछ लेंगे;
सुरक्षा का और इंतजाम कर लेंगे;
और व्यवस्था कर लेंगे; होशियारी से
चलेंगे; गणित से चलेंगे; आंख खोलकर चलेंगे; संसार में सुख पाकर रहेंगे।
ज्योतिषी के पास सांसारिक आदमी जाता है।
आध्यात्मिक आदमी को ज्योतिषी के पास जाने की क्या जरूरत! आध्यात्मिक व्यक्ति तो
ज्योतिर्मय के पास जाएगा, कि ज्योतिषी
के पास जाएगा? चांदत्तारों
के बनानेवाले के पास जाएगा कि चांदत्तारों की गति का हिसाब रखनेवालों के पास जाएगा?
और फिर आध्यात्मिक व्यक्ति को तो हर घड़ी
शुभ है, हर पल शुभ है। क्योंकि
हर पल का होना परमात्मा में है;
अशुभ तो हो कैसे सकता है! कोई भी महूरत अशुभ तो कैसे हो सकता है! यह समय की
धारा उसी के प्राणों से तो प्रवाहित हो रही है। यह गंगा उसी से निकली है; उसी में बह रही है; उसी में जा कर पूर्ण होगी।
आध्यात्मिक व्यक्ति को तो सारा जगत्
पवित्र है, सब पल-छिन सब
घड़ी-दिन शुभ है। ये तो गैर-आध्यात्मिक की झंझटें हैं। वह सोचता है : कोई भूल-चूक न
हो जाए; ठीक समय में निकलूं; ठीक दिन में निकलूं; ठीक दिशा में निकलूं; महूरत पूछ कर निकलूं।
किससे डरे हो? तुमने मित्र को अभी पहचाना ही नहीं; वह सब तरफ छिपा है। तुम कैसा इंतजाम कर
रहे हो? और तुम्हारे इंतजाम
किए कुछ इंतजाम हो पाएगा?
कितना तो सोच-सोच कर आदमी विवाह करता है
और पाता क्या है ? तुम कभी सोचते
भी हो कि सब विवाह इस देश में लगन-महूरत से होते हैं और फिर फल क्या होता है? फिल्मों का फल छोड़ दो। जिंदगी का पूछ रहा
हूं। फिल्में तो सब शादी हुई, शहनाई बजी. .
. और खत्म हो जाती हैं, वहीं खत्म हो
जाती हैं। शहनाई बजते-बजते ही फिल्म खत्म हो जाती है क्योंकि उसके आगे फिल्म को ले
जाना खतरे से खाली नहीं है। सब कहानियां यहां समाप्त हो जाती हैं कि राजकुमारी और
राजकुमार का विवाह हो गया और फिर वे सुख से रहने लगे। और उसके बाद फिर कोई सुख से
रहता दिखाई पड़ता नहीं। असल में उसके बाद ही दुःख शुरू होता है। मगर उसकी बात छेड़ना
ठीक भी नहीं है।
इतने लगन-महूरत को देखकर तुम्हारा विवाह
सुख लाता है? इतना
लगन-महूरत देखकर चलते हो, जिंदगी में
कभी रस आता है? इतना सब हिसाब
बनाने के बाद भी आती तो हाथ में मौत है,
जो सब छीन लेती है; जो तुम्हें
नग्न कर जाती है, दीन कर जाती
है, दरिद्र कर जाती है।
हाथ में क्या आता है इतने सारे आयोजन-होशियारी के बाद, इतने चतुराई के बाद? पलटू कहते हैं कि अपनी चतुराई पकड़े हुए हो, मगर इस चतुराई का परिणाम क्या है? आखिरी हिसाब में तुम्हारे हाथ क्या लगता
है?
सिकंदर भी खाली हाथ जाता है। यहां सभी
हारते हैं। संसार में हार सुनिश्चित है। चाहे शुरू में कोई जीतता मालूम पड़े और
हारता मालूम पड़े-- अलग-अलग ; लेकिन आखिर
में सिर्फ हार ही हाथ लगती है।
जीते हुओं के हाथ भी हार लगती है; और हारे हुओं के हाथ हार तो लगती ही है।
यहां जो दरिद्र वे तो दरिद्र रह ही जाते है,
यहां जो धनी है वे भी तो अंततः दरिद्र
सिद्ध होते हैं। यहां जिनको कोई नहीं जानता था, जिनका कोई नाम नहीं था, कोई प्रसिद्धि नहीं थी, कोई यश नहीं था--वे तो खो ही जाते हैं; लेकिन जिनको खूब जाना जाता था, बड़ी प्रसिद्धि थी--वे भी तो खो जाते हैं।
मिट्टी सब को समा लेती है। चिता की लपटों में सभी समाहित हो जाता है। रेखा भी नहीं
छूट जाती।
अजहुँ चेत गँवार
ओशो
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