तो मैं आपसे निवेदन करूंगा, "आप', अर्थात "मैं', यह कभी भी ईश्वर का दर्शन नहीं कर सकता
है। "मैं' की कोई भाषा
ईश्वर तक ले जाने वाली नहीं है। जिस दिन "मैं' न रह जाएगा,
उस दिन तो कुछ हो सकता है। लेकिन जब तक "मैं' हूं,
कि मुझे करना है ईश्वर के दर्शन--तो यह "मैं' ही तो बाधा है।
विक्टोरिया, महारानी विक्टोरिया अपने पति से एक दिन लड़ पड़ी थी। उसका पति
अल्बर्ट कुछ भी नहीं बोला, चुपचाप जाकर
अपने कमरे में बंद होकर द्वार उसने लगा लिया। विक्टोरिया क्रोध में थी, वह भागी हुई पीछे गई। उसने जाकर द्वार पर
जोर से धक्के मारे और कहा, दरवाजा खोलो।
अल्बर्ट ने पीछे से पूछा, कौन है? उसने कहा, क्वीन आफ इंग्लैंड,
मैं हूं इंग्लैंड की महारानी। फिर पीछे से दरवाजा नहीं खुला। फिर वह दरवाजा
ठोंकती रही, फिर पीछे से
कोई उत्तर भी नहीं आया, कोई आवाज भी
नहीं।
घड़ी भर बीत जाने के बाद उसने धीरे से कहा, अल्बर्ट, दरवाजा खोलो,
मैं हूं तुम्हारी पत्नी। वह दरवाजा खुल गया। अल्बर्ट, मुस्कुराता हुआ सामने खड़ा था।
परमात्मा के द्वार पर हम जाते
हैं--"मैं हूं इंग्लैंड की महारानी',
दरवाजा खोलो। वह दरवाजा नहीं खुलने वाला है। यह "मैं' जो है, इगो, इसके लिए कोई
दरवाजा नहीं खुलता। दरवाजा खुलने के लिए ह्यूमिलिटि चाहिए, विनम्रता चाहिए। और विनम्रता वहीं होती है, जहां "मैं' नहीं होता है। और कोई विनम्रता नहीं होती।
अहंकार को लेकर कोई कभी ईश्वर तक नहीं
पहुंचा है, न पहुंच सकता
है। खो देना पड़ेगा स्वयं को तो। छोड़ देना पड़ेगा स्वयं के इस भाव को कि मैं हूं।
इसे हम बड़े जोर से पकड़े हुए हैं कि "मैं हूं'। एक सख्त दीवाल बन गई हमारे चारों तरफ, जिसमें कोई किरणें प्रकाश नहीं करतीं, नहीं प्रवेश कर पाती हैं। छोड़ देना होगा
इस "मैं' को। तो मैं
ईश्वर के दर्शन करना चाहता हूं--यह भाषा ही गलत है।
और दूसरी बात। ईश्वर के दर्शन की बात भी
गलत है। ईश्वर का दर्शन कोई आदमी का दर्शन थोड़े ही है कि आप गए और सामने खड़े हो गए
और आपने दर्शन कर लिया! ईश्वर कोई व्यक्ति तो नहीं है। कोई रूप-रंग, कोई रेखा तो नहीं है। ईश्वर के दर्शन का
मतलब: किसी व्यक्ति का कोई दर्शन थोड़े ही मिल जाने वाला है! ईश्वर के दर्शन का
मतलब है: वह जो जीवंत चेतना है,
सर्वव्यापी, वह जो ऊर्जा
है, वह जो शक्ति है जीवन
की, वह जो सृजन का
मूल-स्रोत है, वह जो सब तरफ
व्याप्त अस्तित्व है, वह जो
एक्जिसटेंस है--वही सब, उस सबका
इकट्ठापन, उसकी टोटेलिटी, उसकी होलनेस, यह अस्तित्व की समग्रता और पूर्णता ही, ईश्वर है।
तो जिस दिन मेरे अहंकार की बूंद इस विराट
अस्तित्व के सागर में खोने को राजी हो जाती है, उसी दिन मैं उसे उपलब्ध हो जाता हूं, मैं उसे जान लेता हूं। बूंद खो जाए तो
सागर के साथ एक हो जाती है। लेकिन बूंद कहे कि मैं सागर को जानना चाहती हूं, फिर बहुत कठिनाई है। बूंद कहे कि मैं
मिटने को राजी हूं, तो जिस जगह वह
मिट जाएगी, उसी जगह वह
सागर को उपलब्ध हो जाती है--वहीं मिल जाएगी सागर से। अहंकार की बूंद लिए रास्ता तय
नहीं हो सकता है।
इसलिए यह मत पूछें कि मैं ईश्वर के दर्शन
को उपलब्ध हो सकता हूं? नहीं, न तो "मैं' ईश्वर के दर्शन को उपलब्ध हो सकता है, और न ईश्वर का दर्शन किसी व्यक्ति का
दर्शन है।
असंभव क्रांति
ओशो
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