एक युवक भिक्षु नागार्जुन के पास आया और उसने कहा कि मुझे मुक्त
होना है। और उसने कहा कि जीवन लगा देने की मेरी तैयारी है। मैं मरने को तैयार हूं, लेकिन मुक्ति मुझे चाहिए।
कोई भी कीमत हो, चुकाने को राजी हूं।
अपनी तरफ से तो वह बड़ी समझदारी की बातें कह रहा था।
चिन्मय ने भी यही पूछा है आगे प्रश्न में:
देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है
उसने भी यही कहा होगा नागार्जुन को कि मरने की तैयारी है; अब तुम्हारे हाथ में सब बात
है। मुझसे न कह सकोगे कि मैंने कुछ कमी की प्रयास में। मैं सब करने को तैयार हूं।
अपनी तरफ से वह ईमानदार था। उसकी ईमानदारी पर शक भी क्या करें! मरने को तैयार
था--और क्या आदमी से मांग सकते हो? लेकिन ईमानदारी कितनी ही
हो, भ्रांत थी।
नागार्जुन ने कहा,
ठहर। एक छोटा सा प्रयोग कर। फिर, अभी इतनी
जल्दी नहीं है मरने-मारने की। यह भाषा ही नासमझी की है। यहां मरना-मारना कैसा?
तू एक तीन दिन छोटा सा प्रयोग कर, फिर
देखेंगे। और उससे कहा कि तू चला जा सामने की गुफा में, अंदर
बैठ जा, और एक ही बात पर चित्त को एकाग्र कर कि तू एक भैंस
हो गया है। भैंस सामने खड़ी थी, इसलिए नागार्जुन को खयाल आ
गया कि 'तू एक भैंस हो गया है।' यह
सामने भैंस खड़ी है। उस युवक ने कहा जरा चिंतित होकर कि इससे मुक्ति का क्या संबंध?
नागार्जुन ने कहा, वह हम तीन दिन बाद सोचेंगे।
बस तू तीन दिन बिना खाए-पीए, बिना सोए, एक ही बात सोचता रह कि तू भैंस हो गया है। तीन दिन बाद मैं हाजिर हो
जाऊंगा तेरे पास। अगर तू इसमें सफल हो गया, तो मुक्ति बिलकुल
आसान है। फिर मरने की कोई जरूरत नहीं।
उस युवक ने सब दांव पर लगा दिया। वह तीन दिन न भोजन किया, न सोया। तीन दिन अहर्निश
उसने एक ही बात सोची कि मैं भैंस हूं। अब तीन दिन अगर कोई सोचता रहे भैंस है--वह
भैंस हो गया! हो गया, नहीं कि हो गया; उसे
प्रतीत होने लगा कि हो गया। एक प्रतीति पैदा हुई। एक भ्रमजाल खड़ा हुआ।
जब तीसरे दिन सुबह उसने आंख खोलकर देखा तो वह घबड़ाया--वह भैंस
हो गया था! और भी घबड़ाया, क्योंकि अब बाहर कैसे निकलेगा! गुफा का द्वार छोटा था। आए तब तो आदमी थे;
अब भैंस थे, उसके बड़े सींग थे। उसने कोशिश भी
की तो सींग अटक गए। चिल्लाना चाहा तो आवाज तो न निकली, भैंस
का स्वर निकला। जब स्वर निकला तो नागार्जुन भागा हुआ पहुंचा। देखा, युवक है। कहीं कोई सींग नहीं हैं। मगर सींग अटक रहे हैं। कहीं कोई सींग
नहीं हैं। वह आदमी जैसा आदमी है। जैसा आया था वैसा ही है। लेकिन तीन दिन का
आत्मसम्मोहन, तीन दिन का सतत सुझाव! तीन बार भी सुझाव दो तो
परिणाम हो जाते हैं, तीन दिन में तो करोड़ों बार उसने सुझाव
दिए होंगे। फिर बिना खाए, बिना सोए!
जब तुम तीन दिन तक नहीं सोते तो तुम्हारी सपना देखने की शक्ति
इकट्ठी हो जाती है। तीन दिन तक सपना ही नहीं देखा! जैसे भूख इकट्ठी होती है तीन
दिन तक खाना न खाने से, ऐसा तीन दिन तक सपना न देखने से सपना देखने की शक्ति इकट्ठी हो जाती है।
वह तीन दिन की सपना देखने की शक्ति, तीन दिन की भूख...!
भूख में भी जितना शरीर कमजोर हो जाता है, उतना मन मजबूत हो जाता है।
भूख से शरीर तो कमजोर होता है, मन मजबूत होता है। इसलिए तो
बहुत से धर्म उपवास करने लगे और बहुत से धर्मों ने रात्रि-जागरण किया। अगर रातभर
जागते रहो तो परमात्मा जल्दी दिखायी पड़ता है। सपना इकट्ठा हो जाता है।
अभी इस पर तो वैज्ञानिक शोध भी हुई है। और वैज्ञानिक भी इस बात
पर राजी हो गए हैं कि अगर तुम बहुत दिन तक सपना न देखो तो हैलूसिनेशन्स पैदा होने
लगते हैं। फिर तुम जागते में सपना देखने लगोगे। आंख खुली रहेगी और सपना देखोगे।
सपना एक जरूरत है। सपना तुम्हारे मन का निकास है, रेचन है।
तीन दिन तक जागता रहा। सपने की शक्ति इकट्ठी हो गयी। तीन दिन
भूखा रहा, शरीर
कमजोर हो गया।
यह तुमने कभी खयाल किया! बुखार में जब शरीर कमजोर हो जाए तो तुम
ऐसी कल्पनाएं देखने लगते हो जो तुम स्वस्थ हालत में कभी न देखोगे। खाट उड़ी जा रही
है! तुम जानते हो कि कहीं उड़ी नहीं जा रही। अपनी खाट पर लेटे हो, मगर शक होने लगता है। क्या,
हो क्या गया है तुम्हें? शरीर कमजोर है।
जब शरीर स्वस्थ होता है तो मन पर नियंत्रण रखता है। जब शरीर
कमजोर हो जाता है तो मन बिलकुल मुक्त हो जाता है। और मन तो सपना देखने की शक्ति का
ही नाम है। तो बीमारी में लोगों को भूत-प्रेत दिखायी पड़ने लगते हैं। स्त्रियों को
ज्यादा दिखायी पड़ते हैं पुरुषों की बजाय। बच्चों को ज्यादा दिखायी पड़ते हैं
प्रौढ़ों की बजाय। जहां-जहां मन कोमल है और शरीर से ज्यादा मजबूत है, वहीं-वहीं सपना आसान हो
जाता है।
तीन दिन का उपवास,
तीन दिन की अनिद्रा, और फिर तीन दिन सतत एक ही
मंत्र--यही तो मंत्रयोग है। तुम बैठे अगर राम-राम, राम-राम
कहते रहो कई दिनों तक, पागल हो ही जाओगे। एक सीमा है झेलने
की। वह तीन दिन तक कहता रहा: मैं भैंस हूं, मैं भैंस हूं,
मैं भैंस हूं। हो गया। मंत्रशक्ति काम कर गयी। लोग मुझसे पूछते हैं
मंत्रशक्ति? उनको मैं यह कहानी कह देता हूं। यह मंत्रशक्ति
है।
नागार्जुन द्वार पर खड़ा हंसने लगा। वह युवक बहुत शघमदा भी हुआ
और उसने कहा, लेकिन
आप हंसें, यह बात जंचती नहीं। तुम्हारे ही बताए उपाय को
मानकर मैं फंस गया हूं। अब मुझे निकालो। सींग बड़े हैं, द्वार
से निकलते नहीं बनता। और मैं भूखा भी हूं। नींद भी सता रही है।
नागार्जुन उसके पास गया,
उसे जोर से हिलाया। हिलाया तो थोड़ा वह तंद्रा से जागा। जागा तो उसने
देखा, सींग भी नदारद हैं, भैंस भी कहीं
नहीं है। वह भी हंसने लगा। नागार्जुन ने कहा: बस यही मुक्ति का सूत्र है। संसार
तेरा बनाया हुआ है, कल्पित है।
संसार को छोड़ना नहीं है,
जागकर देखना है। इसलिए जिन्होंने तुमसे कहा कि संसार छोड़ो, उन्होंने तुम्हें मोक्ष में उलझा दिया। मैं तुम्हें संसार छोड़ने को इसीलिए
नहीं कह रहा हूं। छोड़ने की बात ही भ्रांत है। जो है ही नहीं उसे छोड़ोगे कैसे?
छोड़ोगे तो भूल में पड़ोगे। जो नहीं है उसे देख लेना, जान लेना कि वह नहीं है, मुक्त हो जाना है।
इसलिए बुद्ध ने कहा: असत्य को असत्य की तरह देख लेना मोक्ष है।
असार को असार की तरह देख लेना मोक्ष है। सारा राज देख लेने में है।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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