बुद्ध कहा करते थे अपने भिक्षुओं से कि जीवन एक धोखा है। और जो इस धोखे को समझ लेता है, उसकी पकड़ जीवन पर छूट जाती है।
इस पहले सूत्र को समझने की कोशिश करें--जीवन एक धोखा है। यहां जो जैसा दिखायी पड़ता है वह वैसा नहीं है। और यहां जैसी आशा बंधती है वैसा कभी फल नहीं होता है। यहां जो मानकर हम चलते हैं, उपलब्धि पर उसे कभी वैसा नहीं पाते। खोजते हैं सुख और मिलता है दुख। खोजते हैं जीवन, आती है मौत। खोजते हैं यश, अपयश के अतिरिक्त अंत में कुछ भी हाथ नहीं बचता है। खोजते हैं धन, भीतर की निर्धनता बढ़ती चली जाती है। चाहते हैं सफलता और पूरी जिंदगी असफलता की लंबी कथा सिद्ध होती है। जीतने निकलते हैं, हारकर लौटते हैं। इस पूरी जिंदगी के धोखे को ठीक से देख लेना जरूरी है उस साधक के लिए, जो स्वयं के भीतर जाना चाहता है। यदि पहचान ले कि जीवन धोखा है, तो उस पर से उसकी पकड़ छूट जाती है। तट पर बंधी हुई जंजीर से हाथ मुक्त हो जाता है।
हम जानते हैं, फिर भी देखते नहीं हैं। शायद देखना यही चाहते हैं कि जीवन शायद धोखा नहीं है। हम अपने को धोखा देना चाहते हैं। जीवन तो निमित्त मात्र है। क्योंकि वही जीवन किसी के जागने का कारण भी बन जाता है और वही जीवन किसी के सोने का आधार हो जाता है।
पंच महाव्रत
ओशो
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