पर्वतों
से
उतरते हुए झरनों को हमने देखा है। सागर की ओर बहती हुई नदियों से हम परिचित हैं। जल सदा ही नीचे की ओर बहता है और
नीची
जगह, और
नीची
जगह
खोज
लेता
है।
गड्डों में ही उसकी यात्रा है। अधोगमन ही उसका मार्ग है। उसकी प्रकृति है नीचे, और नीचे, और नीचे। जहां नीची जगह मिल जाए वहीं उसकी यात्रा है।
अग्नि
बिलकुल ही उलटी है। सदा ही ऊपर की तरफ बहती है। ऊर्ध्वगामी उसका पथ है। आकाश की ओर ही दौड़ती चली जाती है। कहीं भी जलाएं उसे, कैसे भी रखें उसे, उलटा भी लटका दें दीए को, तो भी ज्योति ऊपर की तरफ भागना शुरू कर देती है।
अग्नि
का
यह
ऊर्ध्वगमन अति प्राचीन समय में भी ऊर्ध्वगामी चेतनाओं को खयाल में आ गया। चेतना दोनों तरह से बह सकती है। पानी की तरह भी और अग्नि की तरह भी। साधारणत: हम पानी की तरह बहते हैं। साधारणत: हम भी नीचे गड्डे और गड्डे खोजते रहते हैं। हमारी चेतना नीचे उतरने को रास्ता पा जाए तो हम ऊपर की सीढ़ी तत्काल छोड़ देते हैं। साधारणत: हम जल की तरह हैं। होना चाहिए अग्नि की तरह कि जहां जरा सा अवसर मिले ऊपर बढ़ जाने का, हम नीचे की सीढ़ी छोड़ दें। जहां जरा सा मौका मिले पंख फैलाकर आकाश की तरफ उड़ जाने का, हम तैयार हों।
अग्नि
इसलिए प्रतीक बन गया, देवता बन गया। ऊर्ध्वगमन की जिनकी अभीप्सा थी, ऊपर जाने का जिनका इरादा था, आकांक्षा थी जिनकी निरंतर श्रेष्ठतर आयामों में प्रवेश करने की, उनके लिए अग्नि प्रतीक बन गया, देवता बन गया।
एक
और
कारण
से
अग्नि प्रतीक बना और देवता बना। जैसे ही व्यक्ति ऊपर की यात्रा पर निकलता है, ऊपर की यात्रा साथ ही साथ भीतर की यात्रा भी है। और ठीक वैसे ही नीचे की यात्रा साथ ही साथ बाहर की यात्रा भी है। गहरे अर्थों में बाहर और नीचे पर्यायवाची हैं। भीतर और ऊपर पर्यायवाची हैं। जितने भीतर जाएंगे, उतने ऊपर भी चले जाएंगे। जितने बाहर जाएंगे, उतने नीचे भी चले जाएंगे। या जितने नीचे जाएंगे, उतने बाहर चले जाएंगे। जितने ऊपर जाएंगे, उतरे भीतर चले जाएंगे।
अस्तित्व
की
दृष्टि से ऊपर और भीतर एक ही अर्थ रखते हैं, भाषा की दृष्टि से नहीं। अनुभव की दृष्टि से बाहर और नीचे एक ही अर्थ रखते हैं, भाषा की दृष्टि से नहीं। पर्यायवाची हैं। जिन लोगों ने भी ऊपर की यात्रा करनी चाही, उन्हें भीतर की यात्रा करनी पड़ी। और जैसे जैसे भीतर प्रवेश हुआ, वैसे वैसे अंधेरा कम हुआ और ज्योति बढ़ी, प्रकाश बढ़ा। अंधकार क्षीण हुआ और आलोक बढ़ा। अग्नि इसलिए भी प्रतीक बन गई अंतर्यात्रा की।
और
भी
एक
कारण
से
अग्नि प्रतीक बन गई और उसका स्मरण बड़ी ही श्रद्धा से किया जाने लगा। वह था यह कि अग्नि की एक और खूबी है, उसका एक और स्वभाव है। शुद्ध को बचा लेती है, अशुद्ध को जला देती है। डाल दें सोने को तो अशुद्ध जल जाता है, शुद्ध निखर आता है। तो अग्निपरीक्षा बन गई अशुद्ध
को
जलाने के लिए और शुद्ध को बचाने के लिए। अग्निपरीक्षा, वस्तुत: कोई सीता को किसी अग्नि में डाल दिया हो, ऐसा नहीं है। अग्निपरीक्षा एक प्रतीक बन गया। वह प्रतीक हो गया इस बात का कि अग्नि उसको जला देगी जो अशुद्ध है और उसे बचा लेगी जो शुद्ध है। वह अग्नि का स्वभाव है। शुद्ध को बचा लेने की उसकी आतुरता है। अशुद्ध को नष्ट कर देने की उसकी आतुरता है।
बहुत
कुछ
है
जो
अशुद्ध है हमारे भीतर। इतना ज्यादा है कि सोने का तो पता ही नहीं चलता। कहीं होगा छिपा हुआ। कोई ऋषि कभी घोषणा करता है स्वर्ण की। हम तो मिट्टी और कचरे को ही जानते हैं। कोई इतनी कभी पुकारता है कि भीतर स्वर्ण भी है तुम्हारे। हम तो खोजते हैं, तो कंकड़ पत्थर के सिवाए कुछ पाते नहीं हैं। तो स्वर्ण को भी अग्नि में डालना है।
स्वर्ण
को
अग्नि में डालना ही तप का अर्थ है। तप ताप से ही बना है, अग्नि से ही बना है। तप का अर्थ ऐसा नहीं है कि कोई धूप में खड़ा हो जाए, तो तप कर रहा है। तप का अर्थ है, इतनी अंतर अग्नि से गुजरे कि उसके भीतर जो भी अशुद्ध है, वह जल जाए; और जो भी शुद्ध है, वह रह जाए।
ईशावास्य उपनिषद
ओशो
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