एकांत
के संबंध में
कुछ बातें समझ
लेनी चाहिए।
एकांत के तीन
रूप हैं। पहला
: जिसे हम
अकेलापन कहते
हैं,
एकाकीपन।
दूसरा. एकांत।
और तीसरा :
कैवल्य।
अकेलापन
नकारात्मक है।
अकेलापन
वास्तविक
अकेलापन नहीं
है;
दूसरे की
याद सता रही
है; दूसरा
होता तो अच्छा
होता; दूसरे
की गैर—मौजूदगी
खलती है, काटा
चुभता है, दूसरे
में मन उलझा
है। देखने को
अकेले हो, भीतर
नहीं; भीतर
भीड़ मौजूद है।
कोई आएगा तो
पाएगा अकेले
बैठै हो'।
लेकिन तुम
जानते हो कि
तुम अकेले
नहीं हो; किसी
की याद आती है,
किसी में मन
लगा है। किसी
को बुलावा भेज
रहे हो; किसी
का स्वप्न
संजो रहे हो; किसी की
पुकार चल रही
है—कोई होता, अकेले न
होते! अकेलेपन
से राजी नहीं
हो। आनंद तो
दूर. इस
अकेलेपन में
शांति भी नहीं।
अशांत हो, उद्विग्न
हो। जल्दी ही
कुछ न कुछ
उलझाव खोज
लोगे। चले
जाओगे मित्र
के घर, क्लब
में, बाजार
में, अखबार
पढ़ने लगोगे, रेडियो
सुनने लगोगे,
कुछ करोगे,
कुछ उलझाव
बना लोगे। यह
अकेलापन नीरस
है। यह
अकेलापन
भौतिक है, मानसिक
नहीं; आध्यात्मिक
तो बिलकुल ही
नहीं।
एकांत
दूसरे प्रकार
का अकेलापन है।
एकांत का अर्थ
है : रस आने लगा; अकेले
होने में मजा
आने लगा; अकेलापन
एक गीत की तरह
है अब; दूसरे
की याद भी
नहीं आ रही; अपने होने
का मजा आ रहा
है; दूसरे
की: याद भी भूल
गई है; दूसरे
का कोई
प्रयोजन भी
नहीं है; व्यस्त
होने की कोई
आकांक्षा भी
नहीं; बड़ी
शांति है।
पहला
नकारात्मक है;
दूसरा
विधायक। पहले
में दूसरे की
अनुपस्थिति
खलती है; दूसरे
में अपनी
उपस्थिति में
रस आता है।
पहले में तुम
अपने से नहीं
जुड़े हो; दूसरे
में तुम अपने
से जुड़े हो।
पहले में मन
भटक रहा है
हजार—हजार
स्थानों पर; दूसरे में
मन—पंछी अपने
घर आ गया।
दूसरा
एकांत गहन शांति
लाता है—
ध्यान की
अवस्था है।
फिर
तीसरा एकांत
है : कैवल्य।
पहले अकेलेपन
में अपना तो
पता ही नहीं
है,
दूसरे की
याद है। दूसरे
स्वात में
अपनी याद है, दूसरा भूल
गया है।
कैवल्य में
दूसरा भी भूल
गया, स्वयं
भी भूल गए, कोई
भी न बचा— न
दूसरा, न
स्व; न पर, न स्व।
क्योंकि जब तक
स्व का भाव
बचा है तब तक
कहीं कोने—कातर
में दूसरा
छिपा होगा।
क्योंकि
स्वयं की लकीर
दूसरे की
मौजूदगी के बिना
खिंच ही नहीं
सकती।’ मैं'
और ' तू
साथ— साथ होते
हैं। पहले में
' तू
प्रगाढ़ है, 'मैं' छिपा
है। दूसरे में
' मैं' प्रगाढ़
है, ' तू
छिपा है। ये
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं। पहले में
' तू ऊपर, ' मैं' नीचे;
दूसरे में '
मैं' ऊपर,
' तू नीचे।
तीसरे में
पूरा सिक्का
खो गया— न ' मैं'
बचा, न ' तू बचा; कैवल्य
बचा, चैतन्य
बचा। यह परम
एकांत है—
समाधि की
अवस्था! भीड़
तो गई ही गई, तुम भी गए
भीड़ के साथ!
तुम भी भीड़ के
ही हिस्से थे।’तुम भी भीड़
के ही एक अंग
थे।
पहली
अवस्था में
अशांति है, दूसरी
अवस्था में
शांति; तीसरी
अवस्था में
आनंद। पहली
नकारात्मक, दूसरी
विधायक, तीसरी
महोत्सव की।
सिर्फ विधायक
नहीं। सिर्फ
विधायक काफी
नहीं है। अब
विधायकता
नाचती हुई है,
गीत गाती
हुई है। अब
विधायकता बड़ी
रंगीन है।
इस
फर्क को ऐसा
समझना। एक
आदमी बीमार है; वह
नकारात्मक
स्थिति में है।
दूसरा आदमी
बीमार नहीं है।
डाक्टर के पास
जाता है तो वह
निरीक्षण
करके कहता है
कि कोई बीमारी
नहीं, स्वस्थ
हो। लेकिन उस
आदमी के भीतर
स्वास्थ्य का
कोई उत्सव
नहीं है। वह
कहता है. ' आप
कहते हैं तो
मान लेता हूं
लेकिन मुझे
कुछ मजा नहीं
आ रहा; स्वास्थ्य
की ऊर्जा
नाचती हुई
नहीं है।
बीमारी नहीं
है तो आप कहते
हैं, स्वस्थ
हूं। परिभाषा
से स्वस्थ हूं
लेकिन अभी
स्वास्थ्य का
कोई आदोलन
नहीं है, ऐसा
तरंगायित
नहीं हूं।’
तो
एक तो बीमारी
है,
दूसरा
डाक्टर का
स्वास्थ्य है—
डाक्टर के
निदान से मिला
स्वास्थ्य।
जांच कर ली, सब जांच—परख
कर ली, कहीं
कोई बीमारी
नहीं। घर भेज
दिया कि कोई
बीमारी नहीं,
इलाज की कोई
जरूरत नहीं है।
लेकिन तुम
नाचते हुए घर
नहीं आ रहे हो।
तुम्हारे
भीतर उमंग
नहीं है, उत्सव
नहीं है, हर्षोन्माद
नहीं है।
तीसरा
एक और
स्वास्थ्य है, जब
तुम डाक्टर से
पूछने ही नहीं
जाते; जब
तुम्हारा
स्वास्थ्य ही
ऐसा अहर्निश
बरसता है।
किससे पूछना
है! बीमारी भी
गई, डाक्टर
का स्वास्थ्य
भी गया; अब
तुम स्वस्थ
हो! तुम इतने
स्वस्थ हो कि
अब स्वास्थ्य
का खयाल भी
नहीं आता।
स्वास्थ्य का
खयाल भी बीमार
आदमी को आता
है। अब तुम
इतने स्वस्थ
हो कि विदेह
हो गए।
ये
तीन अवस्थाएं
हैं अकेलेपन
की।
आत्मपूजा उपनिषद
ओशो
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