तुमने कभी खयाल किया, तुम्हारा शत्रु मर जाता है तो भी कुछ कुछ खाली हो जाता है भीतर। जैसे अपना कोई मर गया, अब इसके बिना क्या करेंगे?
मैं एक आदमी को जानता हूं उनका मुकदमा एक पड़ोसी से कोई चालीस साल से बस मुकदमेबाजी मुकदमेबाजी चलती थी। उनका सारा काम ही अदालत, रस ही अदालत। पुराने मालगुजार थे, पैसे की कोई तकलीफ न थी। अगर एक बात में हारे तो दूसरा मुकदमा। कोई दस पंद्रह मुकदमे वे पडोसी पर चलाते थे। और पड़ोसी भी वैसा ही जिद्दी था, वह भी मुकदमे पर मुकदमा चलाए जाता था।
फिर पड़ोसी मर गया। हार्ट अटैक से मर गया। तो मैं उस पड़ोसी के घर भी बैठने गया और उसके बाद मैं उनके जन्मजात शत्रु के घर भी मिलने गया।
तो वह कहने लगे, आप, वह मर गए तो मेरे घर क्यों आए? मैंने कहा, मैं यह देखने आया कि आपकी क्या दशा है? क्योंकि अब आप क्या करोगे? वह बहुत चौंके। वह कहने लगे कि यह तो बात बड़ी पते की कही, चिंतित तो मैं भी हूं। इसकी वजह से तो चालीस साल मजे में बीते, अब वह सब मजा खतम हुआ। यही तो हमारा रस था, यह दांव पर दाव लगाना। और वह भी एक कारीगर था, कहने लगे। उसने भी हमें काफी पछाड़ा। ऐसा नहीं कि हमीं हमीं जीतते थे, वह भी काफी जीतता था। उसके बिना जरूर हम उदास तो हुए। उसके बिना कुछ खाली तो हो गया।
और छह महीने बाद वह सज्जन भी मर गए। तो मुझे कुछ ऐसा लगा कि अगर उनका पड़ोसी जिंदा रहता तो वह कुछ देर और जिंदा रहते। पड़ोसी मर गया तो अब रहने में कोई उनका अर्थ ही न रहा। एक ही तो प्रयोजन था, एक ही लक्ष्य था, चालीस साल उसी पर उन्होंने दाव पर लगाए थे, वह आदमी ही चला गया तो अब रहने का क्या मतलब है!
तुम खयाल रखना, तुम मित्रों में ही तो नियोजन नहीं करते अपनी ऊर्जा का, अपने शत्रुओं में भी करते हो। तुम्हारे मित्र मरेंगे तो तुम निश्चित कुछ खोओगे, तुम्हारे शत्रु मरेंगे तो भी तुम कुछ खोओगे। दोनों से संबंध बन जाता है।
'वैरियों के बीच अवैरी होकर..। '
संबंध ही
न बनाने का नाम अवैर है। अब यहां थोड़ा फर्क खयाल लेना। यहां जीसस की और बुद्ध की शिक्षाओं में थोड़ा फर्क है। जीसस और महावीर की शिक्षाओं में भी वही फर्क है।
जीसस कहते हैं, शत्रु को प्रेम करो। बुद्ध और महावीर कहते हैं, शत्रु से शत्रुता न रखो,
बस। प्रेम की बात नहीं उठाते। क्योंकि प्रेम तो फिर संबंध हो गया। एक संबंध था घृणा का, उसे बदलकर तुमने प्रेम का बना लिया, लेकिन संबंध तो जारी रहा। बुद्ध और महावीर, दोनों की आकांक्षा है, तुम असंग हो जाओ, असंबंधित हो जाओ।
यह शिक्षा प्रेम की शिक्षा से भी ऊपर जाती है, क्योंकि
जिससे प्रेम है, उससे कभी भी घृणा बन सकती है। और जिससे घृणा है, उससे कभी भी प्रेम बन सकता है। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम असंबंधित हो जाओ। असंग हो जाओ, निसंग हो जाओ। कोई संबंध न रह जाए। इस दशा का नाम अवैर है। इसको बुद्ध मैत्री कह सकते थे, लेकिन मैत्री उन्होंने कहा नहीं।
उन्होंने कहा, 'वैरियों के बीच में अवैरी होकर, अहो, हम सुखपूर्वक जीवन बिता रहे हैं। '
ऐस धम्मो सनंतनो
ओशो
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