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Thursday, February 28, 2019

गुरु तो सदैव मुमुक्षु की आध्यात्मिक स्थिति जान सकते हैं, परंतु मुमुक्षु कैसे जाने कि गुरु को उपलब्ध है, अथवा नहीं? और यदि शिष्य को कभी ऐसा महसूस होने लगे कि चुनाव में बाजी हार गया है, तो क्या वह दूसरे गुरु के पास जा सकता है? कृपया अपनी मान्यता स्पष्ट करें।

श्रीराम शर्मा! गुरु चुना नहीं जाता। और जो चुनेगा, वह चुनने में ही चूक गया। तुम गुरु चुनोगे, तुम चुनोगे न! तुम गलत हो, तुम्हारा चुनाव भी गलत होगा। तुम कहां से आंखें लाओगे देखने वाली? तुम्हारे पास कसौटी क्या है? तुम्हारी बुद्धि जो भी सोच सकती है, विचार कर सकती है, वह तुमसे पार का नहीं होगा। तुमसे ऊंचा नहीं होगा। तुम्हारे हाथ तुम्हारे ही हाथ हैं। इसलिए तुम जो भी पकड़ोगे, जो भी चुनोगे, वह तुम्हारी बुद्धि की सीमा के भीतर होगा। और जो तुम्हारी बुद्धि की सीमा के भीतर है, उसमें तुम बुद्धि के पार न जा सकोगे। तुम्हारे चुनाव में तुमने स्वयं को ही फिर चुन लिया। तुमने चुना, वहीं भूल हो गई तुम सोचते हो कि भूल बाद में पता चलेगी, भूल प्रथम ही हो जाती है। पहले कदम पर ही असली सवाल है। गुरु चुना नहीं जाता।

गुरु का चुनाव चुनाव नहीं है, प्रेम जैसी घटना है--हो जाता है। और अकसर तो तुम्हारी बुद्धि के बावजूद होता है। तुम्हारी बुद्धि कहती रहती हैः नहीं, नहीं; इनकार करती रहती है और तुम्हारा हृदय कदम बढ़ा लेता है और छलांग लगा लेता है। गुरु का संबंध हृदय का संबंध है, बुद्धि और विचार का नहीं। तर्क का नहीं, भाव का। तुम्हारा प्रश्न तो विचार का है।

तुम पूछते होः गुरु तो सदैव मुमुक्षु की आध्यात्मिक स्थिति जान सकते हैं, परंतु मुमुक्षु कैसे जाने कि गुरु सत्य को उपलब्ध हुआ है या नहीं?’

कोई उपाय ही नहीं है जानने का। न कभी था, न कभी होगा। अंधा कैसे जानेगा कि दूसरा आदमी जो सामने खड़ा है, उसके पास आंख है या नहीं? सोया आदमी कैसे जानेगा कि जो पास बैठा है, वह जागा है या नहीं? कोई उपाय नहीं है! लेकिन, बुद्धि के बावजूद कभी-कभी भाव की तरंग पकड़ लेती है और तुम्हें बहा ले जाती है। गुरु से संबंध एक तरह का पागल संबंध है। विचार का नहीं, हिसाब का नहीं, गणित का नहीं।

इसलिए जो गुरु को पकड़ लेते हैं, लोग उन्हें दीवाना ही समझते हैं, सदा से दीवाना समझते हैं। वे दीवाने हैं। यह वैसा ही संबंध है जैसा प्रेम का। एक स्त्री को तुमने देखा, या एक पुरुष को देखा और तुम्हें प्रेम हो गया। तुम कैसे जानोगे, क्या उपाय है बुद्धि के पास कि जिससे तुम्हारा प्रेम हुआ है, यही वास्तविक प्रेम का पात्र है? जिस स्त्री के तुम प्रेम में पड़ गए हो, यह तुम्हारी ठीक-ठीक पत्नी सिद्ध हो सकेगी? तुम्हारे बच्चों की ठीक-ठीक मां बन सकेगी? सम्यक गृहिणी हो सकेगी, तुम्हारा घर सम्हाल सकेगी? तुम्हें सुख-दुख में साथ दे सकेगी? क्या उपाय है जानने का? लेकिन प्रेम जानना ही नहीं चाहता। प्रेम कहता हैः न हो सकेगी ठीक पत्नी तो भी ठीक, न हो सकेगी बच्चों की मां ठीक तो भी ठीक, न सम्हाल सकेगी घर-गृहस्थी तो भी ठीक। प्रेम अंधा है--बुद्धि के हिसाब से। क्योंकि जो आंखें बुद्धि की हैं, वे आंखें हृदय की नहीं; हृदय के पास और ही आंखें हैं। हृदय के पास अपने ढंग हैं। तर्कसरणी से हृदय नहीं चलता है। हृदय छलांग भरता है, गणित नहीं बिठाता है। एक अनुभूति होती है, एक स्फुरणा होती है।
ऐसा ही गुरु का संबंध है।

मुमुक्षु को स्फुरणा होती है। अचानक हृदय को कोई मथ जाता है। अचानक बुद्धि से गहराई में कहीं कोई किरण प्रविष्ट हो जाती है, रोमांच हो जाता है! तुम चौंकते हो, तुम चुनते नहीं। जब गुरु चुना जाता है, तुम चुनते नहीं, चौंकते हो, यह क्या हो रहा है? तुम विवश हो जाते हो, अवश हो जाते हो। खिंचे चले जाते हो। रोकना चाहो तो रोक नहीं सकते। जाना चाहो तो जाना झूठ होगा। कोई अज्ञात शक्ति तुम्हें चारों तरफ से घेर लेती है।

अगर तुम ठीक से समझना चाहो, तो शिष्य गुरु को नहीं चुनता, गुरु शिष्य को चुनता है। गुरु पहले चुन लेता है, तभी तुम्हारे हृदय में तरंग उठती है, स्फुरणा होती है। गुरु तुम्हें घेर लेता है। तुम्हारे भागने के सब उपाय बंद कर देता है। तुम्हारे सारे सेतु जिनसे तुम होकर आए हो, तोड़ देता है। तुम्हारी सारी सीढ़ियां जिनसे तुम चढ़ कर आए हो, गिरा देता है। तुम्हारे सारे तर्कजाल छिन्न-भिन्न कर देता है। गुरु तुम्हारे भीतर एक शराब उड़ेल देता है। उस शराब के नशे में तुम डूब जाते हो।
 
गुरु को कोई कभी चुनता नहीं। कभी किसी ने चुना नहीं। और जिन्होंने चुना है, उनसे पहले ही चूक हो गई। चुनने में तो सदा ही संदेह रहेगा।


जिस दिन तुमको लगे कि चुनाव में बाजी हार गए हो, उस दिन पहली बात तो यह लगनी चाहिए कि मैंने शिष्यत्व का पूरा गुणधर्म किया? नहीं, वह सवाल ही नहीं उठता। सवाल यह उठता है कि अगर नहीं उपलब्धि हुई तो गुरु गलत है। सवाल यह उठा ही नहीं तुम्हारे मन में कि अगर उपलब्धि नहीं हुई, तो मैंने वह सब पूरा किया है जो गुरु ने कहा है? क्या मैं यह कह सकता हूं कि मैंने समग्रभाव से समर्पण किया है, श्रद्धा की है? क्या मैं कह सकता हूं कि मैंने पूरा श्रम लगा कर साधना की है? जो गुरु ने कहा था, उस पर मैं पूरा-पूरा चला हूं, सौ प्रतिशत? अगर हां, तुम यह कह सको कि मैं सौ प्रतिशत चला हूं जो गुरु ने कहा था, और फिर भी बाजी हार गया हूं, तो निश्चित गुरु बदल लेना। लेकिन, जो सौ प्रतिशत चलता है, उसे बदलने की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि सौ प्रतिशत चलने से मुक्ति है।

तुम मेरी बात को ठीक से समझ लो।

गुरु और न-गुरु का कोई बड़ा सवाल नहीं है। गुरु तो निमित्त मात्र है जिसके सहारे सौ प्रतिशत समर्पण हो जाता है। तुम निमित्त को ज्यादा मूल्य मत दो। गुरु तुम्हें सत्य नहीं दे सकता। नहीं तो एक गुरु ने सारे जगत को सत्य से भर दिया होता। गुरु तुम्हें कुछ भी नहीं दे सकता। सत्य दिया-लिया नहीं जाता। गुरु तो एक निमित्त है, एक प्रकाशवान निमित्त है, जिसके पास बैठ कर तुम्हें पूरे समर्पण की भाव-दशा बनाने में आसानी होती है, बस। बहाना है।

अरी मैं तो नाम के रंग छकी 

ओशो 
 


जहां ज्ञानी स्वतंत्रता, मुक्ति या मोक्ष की महिमा बखानते हैं, वहां भक्त उत्सव और आनंद के गीत गाते हैं। ऐसा क्यों है?




ज्ञान का लक्ष्य मुक्ति है। ध्यान का लक्ष्य मुक्ति है। प्रेम का लक्ष्य उत्सव है। प्रेम का लक्ष्य आनंद है, यद्यपि मुक्ति और आनंद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिसको मुक्ति मिली, उसे आनंद भी मिलता है। और जिसे आनंद मिला, उसे मुक्ति भी मिलती है। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वे अलग-अलग नहीं हैं। लेकिन चूंकि ज्ञानी ध्यान की ही बात करता है और ध्यान के रास्ते से चलते-चलते धीरे-धीरे अपने को मुक्त करता है, जब मोक्ष का क्षण आता है तो वह महिमा मोक्ष की बखानेगा। स्वभावतः, उसके लिए आनंद गौण है, छाया की तरह है।

तुम्हारा मित्र तुम्हारे घर आया, तो तुम मित्र की अगवानी करते हो; उसकी छाया की नहीं। छाया भी आयी; जैसा मित्र आया वैसे छाया भी आयी, लेकिन तुम छाया की अगवानी नहीं करते। तुम फूल-हार मित्र को पहनाते हो, छाया को नहीं। तुम मित्र का स्वागत करते हो, बंदनवार लगाते--छाया के लिए नहीं। यद्यपि छाया भी साथ रही है।

जिसने ध्यान की खोज की है, उसने चाहा है मोक्ष आ जाए, मुक्ति आ जाए। मुक्ति उसकी आकांक्षा है तो जिस पर आकांक्षा लगी है, जिस पर ध्यान अटका है, जब वह घटना घटेगी तो वह मोक्ष की ही प्रशंसा के, महिमा के वचन बोलेगा। आनंद उसके पीछे चला आया है--छाया की तरह। लेकिन आनंद की वह बात न करेगा।

बुद्ध ने "आनंद' शब्द का भी उपयोग नहीं किया। अगर लोगों ने बहुत आग्रह भी किया, तो उन्होंने इतना ही कहा कि वहां दुःख-निरोध हो जाता है। दुःख नहीं होता वहां, इतना ही कहा। इतना नहीं कहा कि आनंद होता है। यह भाषा ज्ञानी की है। उसके कारण हैं। उसकी भाषा में भी अर्थ है। जब भी कुछ ज्ञानी या भक्त बोलते हैं तो अकारण तो नहीं बोलते। बुद्ध ने क्यों नहीं कहा कि आनंद है? क्या उनको पता नहीं चल रहा आनंद? और किसको पता चलेगा? बुद्ध से ज्यादा आनंदित आदमी और कहां खोजोगे? लेकिन फिर बोलते क्यों हैं वे कि सिर्फ दुःख-निरोध


लोग कई तरह से प्रश्न पूछे हैं जिंदगीभर बुद्ध को। इधर से कुरेदा, उधर से कुरेदा--कहीं से भी आनंद निकाल लें। लेकिन बुद्ध सदा इतना ही कहते हैं: वहां दुःख नहीं है। आनंद के बाबत चुप रह जाते हैं। क्यों? क्योंकि बुद्ध देखते हैं कि लोगों की आकांक्षा बड़ी विकृत है। अगर उनसे आनंद की बात कहो, तो वे यह तो समझ ही नहीं पाते कि आनंद क्या है; वे यही समझते हैं कि अपना ही सुख बड़ा होकर होगा। आनंद का अर्थ समझते हैं: सुख की ही और बड़ी राशि, महासुख। कोई गुणात्मक भेद नहीं समझ पाते; परिमाण का भेद समझते हैं। तो समझो आनंद अपने पास तिलभर है और वहां आकाशभर--बहुत होगा, लेकिन यही। तो भ्रांति हो जाएगी।

बुद्ध कहते हैं: तुम्हारा जीवन में जो दुःख है, वह वहां नहीं होगा। जो वहां होगा उसका तो तुम्हें कोई अनुभव नहीं है। इसलिए मैं कोई भी शब्द ऐसा उपयोग न करूंगा, जिससे तुम्हारे जीवन में और अड़चन आ जाए। आनंद तो तुम जानते नहीं, तो मैं कैसे कहूं? दुःख तुम जानते हो; इसलिए सुख के बहाने, कहता हूं कि दुःख वहां नहीं है।

समझो। एक आदमी ने रोशनी नहीं देखी। फिर कोई आदमी रोशनी देखकर आया। और यह आदमी जो सदा अंधेरे में रहा है जिसने रोशनी नहीं देखी, यह पूछता है: वहां क्या है? तो यह जो रोशनी देखकर आया है, यह अगर कहे कि वहां रोशनी है, तो बेकार की बात है। क्योंकि यह आदमी तो कभी रोशनी देखा नहीं है, इसलिए यह शब्द बेकार है। यह देखकर आनेवाला कहता है: वहां अंधेरा नहीं है। यह बात सार्थक है। वह अंधेरे में रहनेवाला आदमी कितनी ही जिद्द करे, वह कहे कि यह तो मैं समझ गया कि वहां अंधेरा नहीं है, मगर वहां है क्या? नहीं क्या है, यह तो तुमने बता दिया; मगर है क्या, यह तो बताओ! वह कहेगा: तुम जाओ और देखो: कुछ है, लेकिन वह शब्द के बाहर, अनिर्वचनीय, शब्दातीत, भाषा में न कहा जा सके, अव्याख्य।

बुद्ध जब किसी गांव में आते थे तो डुंडी पिटवा देते थे कि मुझसे ग्यारह प्रश्न कोई न पूछे। उन ग्यारह प्रश्नों में उन्होंने वे सब बातें जोड़ दी थीं, जिनकी व्याख्या नहीं हो सकती--अनिर्वचनीय। जिनको जानो तो ही जान सकते हो। "दरिया देखे जानिए।' जिनको देखो तो ही जान सकते हो। जिनको बताने का कोई उपाय नहीं। और बताने से भूल की पूरी संभावना है। क्योंकि कुछ का कुछ समझ जाओगे।

अजहुँ चेत गँवार 

ओशो

रामकृष्ण परमहंस अपने संन्यासियों को कामिनी और कांचन से दूर रहने के लिए सतत चेताते रहते थे। आप अपने संन्यासियों को संसार को प्रगाढ़ता से भोगने को कहते हैं। इस फर्क का कारण क्या है?

रामकृष्ण जो कहते हैं "कामिनी-कांचन से सावधान', वही मैं भी कहता हूं। लेकिन रामकृष्ण योग की भाषा बोलते हैं; मैं तंत्र की भाषा बोलता हूं। मैं कहता हूं, रामकृष्ण जैसा ही कहता हूं कि पार तो जाना है; लेकिन काटकर नहीं, जीकर, अनुभव से। निचोड़ना है जीवन से परमात्मा को। परमात्मा यहां छिपा है। जैसे सोना पड़ा है खादान में, मिट्टी में मिला। मिट्टी को निकालकर अलग कर देना है, सोने को बचा लेना है।

कामवासना से जीवन पैदा होता है, यह तो तुम देखते ही हो। कामवासना से सिर्फ संसार के बंधन ही पैदा होते हैं, इतनी ही बात देखते हो? यह दूसरी बात नहीं देखते कि कामवासना से तुम पैदा हुए? सारा जीवन कामवासना से पैदा होता है। तो कामवासना से दो चीजें पैदा हो रही हैं--दो पहलू हैं: एक तरफ संसार पैदा हो रहा है और एक तरफ जीवन का आविर्भाव हो रहा है। ये फूल सब कामवासना के खिले हैं। ये पक्षी जो गुनगुनाहट कर रहे हैं, यह सब कामवासना की है। यह पुकार चल रही है प्रेम की। यह अपनी प्रेयसी और प्रेमी की तलाश चल रही है। वह जो मोर पंख फैलाकर नाचता है, वह क्या तुम सोचते हो भजन कर रहा है? या कोयल जो कुहू-कुहू की पुकार करती है, क्या तुम सोचते हो पागल हो गयी है? वह सब प्रेम की ही गुहार। वे काम के ही रूप हैं।


अगर तुम गौर से देखो तो सारे जगत में तुम्हें काम ही दिखायी देगा। वैज्ञानिक कहते हैं कि फूलों से जो गंध उठती है, वह भी काम है। गंध के माध्यम से फूल अपने वीर्याणुओं को भेज रहे हैं--दूसरे फूलों के पास--जहां मिलकर नए जवीन की शुरुआत हो जाएगी।


यह सारा जगत अगर तुम देखोगे तो काम का विस्तार है। इसमें जो भी जीवंत है, वह काम है। इतने जीवन का जहां से स्रोत है, उसी स्रोत में कहीं परमात्मा को खोजना होगा।

तो मैं तुमसे कहता हूं: जो भी जीवन लाए, घबड़ाओ मत, होशपूर्वक जाओ। बस इतना ही खयाल रखो कि होश कायम रहे और जाओ। होश जरूर कायम रहे, ताकि तुम देख सको: क्या क्या है! कहां क्या है! और अनुभव निचोड़ सको। जिस दिन तुम्हारे जीवन में सारे अनुभव हो जाएंगे, तुम उनके पार भी हो जाओगे।


पार तो निश्चित होना है--कामिनी-कांचन के पार जाना है। लेकिन पार जाने का रास्ता कामिनी-कांचन से होकर गुजरता है। बचकर जाने का कोई रास्ता नहीं है। बाजार से अगर मुक्त होना हो तो बाजार से ही गुजरकर जाता है रास्ता। ऐसे बाजार के बाहर से भागने की कोशिश मत करना, अन्यथा तुम गैर-अनुभवी रह जाओगे। पहाड़ पर बैठ जाओगे, लेकिन बाजार तुम्हारे भीतर गूंजता रहेगा। जिसका तुम्हें अनुभव नहीं हुआ, उससे कभी छुटकारा नहीं होता। अनुभव मुक्ति लाता है।


देखने देखने की बात है। कल मैं एक कविता पढ़ रहा था:

रास्ते में कुछ मिला

एक ने कहा: ओह, यह कला है।

दूसरे ने कह: ऊफ, यह बला है।

तीसरे ने ध्यान से देखा और कहा: छीः, यह तो जूते का तला है:


तुम जीवन को गौर से देखो। वहां जो-जो व्यर्थ है, वह दिख जाएगा। जैसे ही दिख जाएगा, वैसे ही छूट जाओगे। पहले शरीर में सौंदर्य दिखाई पड़ता है; जब तुम गौर से देखोगे तो कहोग:"छीः, यह तो जूते का तला है।' फिर मन में सौंदर्य दिखायी पड़ेगा। एक दिन तुम वहां भी पाओगे, यहां भी कुछ नहीं है। फिर आत्मा में सौंदर्य दिखायी पड़ने लगेगा। तुम गहरे होने लगे। फिर एक दिन तुम पाओगे यहां भी कुछ नहीं। तब परमात्मा का सौंदर्य दिखायी पड़ता है। परमात्मा का सौंदर्य आखिरी गहराई है--अतल गहराई है। लेकिन चलना तो धीरे-धीरे ही पड़ता है--उथले से गहरे की तरफ।

अनुभव के अतिरिक्त कोई मुक्ति नहीं है। और जब अनुभव पूरा हो जाता है तो अपूर्व घटना घटती है।

अजहुँ चेत गँवार 

ओशो 


Wednesday, February 27, 2019

मनुष्य का भ्रम


एक धर्मगुरु ने एक रात एक सपना देखा। सपने में उसने देखा कि वह स्वर्ग के द्वार पहुँच गया है। जीवनभर उसने स्वर्ग की ही बातें की थी। और जीवनभर स्वर्ग का रास्ता क्या है, यह लोगों को बताया था उसे निश्चित था कि जब मैं स्वर्ग के द्वार पर पहुंचूंगा ता स्वयं परमात्मा मेरे स्वागत को तैयार रहेंगे। लेकिन वहां द्वार पर तो कोई भी नहीं था द्वार खुला भी नहीं था, बन्द था। द्वार इतना बड़ा था कि उसके ओर-छोर को देख पाना सम्भव नहीं था उस विशाल द्वार के समक्ष खड़े होकर, वह एक छोटी चींटी जैसा मालूम होने लगा। उसने द्वार को बहुत खटखटाया, लेकिन उस विशाल द्वार पर, उस छोटे-से आदमी की आवाजें भी पैदा हुई या नहीं, इसका पता चल पाना कठिन था। वह बहुत डर गया। 

निरन्तर उसने यही कहा था कि परमात्मा ने, अपनी ही शक्ल में, आदमी को बनाया और आज इस विराट द्वार के समक्ष, खड़े होकर वह इतना छोटा मालूम होने लगा। बहुत चिल्लाने, बहुत द्वार पीटने पर, द्वार से कोई एक छोटी, खिड़की खुली और किसी ने झांका। जिसने झांका था, उसकी हजार आंखें होंगी और इतनी तेज रोशनी थी उन आंखों की कि वह धर्मगुरु दीवार के एक छोटे-से कोने में सरक गया। इतना डर गया और चिल्लाया कि आप कृपा कर चेहरा भीतर रखें।


हे परमात्मा! आप चेहरा भीतर रखें, मैं बहुत डर गया हूं। उस हजार आंखों वाले व्यक्ति ने कहा मैं परमात्मा नहीं हूं। मैं तो यहां का पहरेदार हूं, द्वारपाल हूं। तुम कहां हो? मुझे दिखाई नहीं पडते, तुम कितने छोटे हो और कहां छिप गये हो। उस धर्मगुरु ने चिल्लाकर कहा कि मैं परमात्मा के दर्शन करना चाहता हूँ और स्वर्ग में प्रवेश करना चाहता हूं। उस द्वारपाल ने पूछा तुम हो कौन और कहा से आये हो? उसने का क्या आपको पता नहीं? मैं एक धर्मगुरु हूं और पृथ्वी से आ रहा हूं। उस हजार आंख वाले आदमी ने कहा पृथ्वी यह कहां है? वह धर्मगुरु हैरान हुआ, कहा तुम्हें पृथ्वी का भी पता नहीं? उस हजार आंख वाले ने कहा कि किस यूनिवर्स में? तुम किस विश्व की? पुथ्वी की बात कर रहे हो? करोड़ों यूनिवर्स हैं, करोड़ों विश्व हैं। प्रत्येक विश्व के करोड़ों सूरज हैं, प्रत्येक सूरज की अपनी पृथ्वियां हैं। तुम किस पृथ्वी की बात करते हो? क्या नम्बर है तुम्हारी पृथ्वी का, क्या इण्डेक्स नम्बर है? उसे तो कुछ पता नहीं था। उसने कहा कि हम तो एक ही विश्व को जानते हैं और एक ही सूरज को। और हमने इसलिए उनका कोई नाम नहीं रखा, कोई नम्बर नहीं रखा। 


उस पहरेदार ने कहा तब बहुत मुश्किल है पता लगाना कि तुम कहां से आ रहे हो। पहली बार ही इस द्वार पर पृथ्वी का नाम सुना गया है और "मनुष्य" शब्द भी पहली बार ही मेरे कानों में पड़ा है।
उस धर्मगुरु के तो प्राण बैठ गये सोचा था, परमात्मा द्वार पर स्वागत को मिलेंगे। यहां तो इसका भी पता नहीं है कि जिस पृथ्वी से वह आ रहा है वह कहां हैं
 
फिर भी उस पहरेदार ने कहा तुम निश्चिन्त रहो, मैं अभी पूछताछ करवाता हूं। थोड़ा समय तो लग जायेगा, उस भवन में खोज करवाता हूँ कि तुम किस पृथ्वी की बातें करते हो, जहां सारी पृथ्वियों के सम्बन्ध में, हमारे पास आंकड़े इकट्ठे हैं, नक्शें हैं, लेकिन कुछ महीने लग जायेंगे। इसके पहले तो पता लगाना कठिन है कि तुम कहां से आते हो, किस जाति के हो और तुम्हारा यहां आने का क्या प्रयोजन है। उसने कहा कि मैं परमात्मा के दर्शन करना चाहता हूं। उस पहरेदार ने कहा-अनन्त वर्ष हो गये, मुझे इस द्वार पर। अभी तो मैं भी परमात्मा के दर्शन नहीं कर पाया। और अब तक मैं ऐसे व्यक्ति से भी नहीं मिला हूं, इस स्वर्ग के द्वार पर, जिसने परमात्मा के दर्शन किये हों। परमात्मा की पूरी सृष्टि को ही जान लेना कठिन हैं परमात्मा का जानना तो और भी कठिन है। वह तो समग्रता का ही नाम है। 


घबराहट में उस धर्मगुरु की नींद टूट गयीं वे पसीने से लथपथ था। घबरा गया था। फिर रातभर उसे नींद नहीं आ सकी। वह बार-बार यही सोचता रहा कि कहीं मनुष्य ने, अपने अहंकार के ही प्रभाव में तो यह सारी बातें नहीं सोच ली है। कि परमात्मा ने आदमी को अपनी ही शक्ल में बनाया और परमात्मा आदमी से मिलने को उत्सुक है, पुकार रहा है और स्वर्ग के द्वार और मोक्ष यह कहीं मनुष्य ने अपने ही मन की कल्पनाएं तो नहीं खड़ी कर ली हैं?


इस कहानी से, इसलिए मैं शुरू करना चाहता हूं, धर्मगुरु के इस सपने से कि आदमी एक बहुत बड़े भ्रमलोक में जीता है। 

वह स्वयं को न जाने क्या-क्या समझ लेता है, जब कि विराट विश्व के किसी कोने मे, उसका कोई अस्तित्व नहीं है। इस विश्व की विराटता का हम अनुभव करें और फिर उसके सामने अपने को खड़ा करें तो हम कहां रह जाते हैं, हम कहां है? यह पृथ्वी बहुत छोटी है। हमारा सूरज इस पृथ्वी से साठ हजार गुना बड़ा है। और यह सूरज, जितने सूरज हम जानते हैं, उनमें सबसे छोटा है। और कोई दो अरब सूरज ही समाप्ति नही हैं, उनके आगे भी विश्व होगा, उसके आगे भी विस्तार होगा, उसे आगे भी फैलाव होगा। इतने अनन्त विश्व के एक छोटी-सी पृथ्वी के कोने पर, छोटा-सा प्राणी है मनुष्य। उसकी भी कोई बहुत बड़ी संख्या नहीं है। कोई साढ़े तीन अरब उसकी संख्या है। अगर हम और प्राणियों की संख्या के हिसाब से विचार करेंगे तो पायेंगे, वह कहीं भी नहीं है। और छोटे-छोटे प्राणी हैं, उनकी संख्या अनन्त है। उसमें छोटा-सी संख्या का यह मनुष्य है। 

आनंद गंगा 

ओशो



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