एक आदमी भिखारी की तरह ही पैदा हुआ है, और सड़क पर भीख मांग कर
ही बड़ा हुआ है। फिर एक दिन अचानक गौतम बुद्ध भी राजमहल से उतर कर सड़क पर भीख
मांगने खड़े हो जाते हैं। एक ही राह है, दोनों के हाथ में
एक से भिक्षापात्र हैं, भिखारी और बुद्ध दोनों साथ ही राह
पर भीख मांगने चलते हैं। क्या भेद है? दोनों भीख मांगने
निकले हैं, दोनों के हाथ में भिक्षापात्र है, दोनों द्वारों पर खडे होकर भिक्षा का पात्र फैलाएंगे। दोनों भिखारी
हैं--लेकिन क्या निश्चित ही दोनों बिलकुल एक जैसे हैं?
ऊपर से भेद बिलकुल दिखाई नहीं पडता, भीतर से बड़ा भेद है।
भिखारी सिर्फ भिखारी है। उसके पास कुछ नहीं है बस, उसके
होने को उसने कभी जाना भी नहीं, इसलिए न होने में बडा
पीड़ित है। धन नहीं है उसके पास भी और बुद्ध के पास भी, लेकिन
उसने धन को कभी जाना ही नहीं है। इसलिए धन का न होना एक ग-ए की भांति है, पीड़ादायी है; बहुत घाव है, रिसता है; आत्मा खाली भिक्षापात्र है--हाथ में
ही भिक्षापात्र नहीं, भीतर भी भिक्षापात्र ही है। लेकिन
यह पास में खड़ा हुआ बुद्ध है, यह भी भिखारी है, लेकिन इसने धन को जाना है। धन का अभाव नहीं है इसके पास, धन का भाव था अति; बहुत था धन, पर्याप्त था और व्यर्थ हो गया है। यह छोड़ कर आया है, यह जान कर आया है। धन इसके लिए व्यर्थ हो गया है, भिखारी के लिए धन अभी सार्थक है। दोनों भिखारी हैं, पर बुद्ध के भिखारीपन में एक बड़े सम्राट का भाव है। बुद्ध के भिखारीपन
में भी एक शालीनता है जिसके सामने सम्राट भी झेंप जाएं। बुद्ध के इस भिखारीपन में
बड़ी मालकियत है। यह धन व्यर्थ हुआ है, छूट गया है,
धन में कोई सार्थकता नहीं रह गई है। दूसरा भी भिखारी है, लेकिन बिलकुल भिखारी है, धन बड़ा सार्थक है...
और धन की मांग जारी है।
ठीक ऐसी ही घटना घटती है अज्ञानी और परम
ज्ञानी में। परम शानी भी ज्ञान को छोड़ देता है ऐसे ही जैसे कोई बुद्ध धन को छोड़
देता है जान कर, पहचान कर, पाकर। देख लेता है कि ज्ञान भी सीमा
के पार नहीं जाता; सब वेद भी ठहर जाते हैं; उस असीम से मिलन नहीं हो पाता--छोड़ देता है; आग
लगा देता है ज्ञान में भी; वेद को भी डाल देता है अग्नि
में, स्वाहा कर देता है। अज्ञानी जैसा हो जाता है लेकिन
अज्ञानी नहीं है।
सर्वसार उपनिषद
ओशो
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