कमल भारती! भैया, पूछो शीला से। वही है मेरी
बारटेंडर। पर तुम्हारे संतोष के लिए कहता हूं: आर यू रियली हियर? देन आई एम दि बियर।
अब दो बहुत गंभीर और तात्विक प्रश्न। प्रश्नकर्ता
हैं: स्वामी शांतानंद सरस्वती। जब से आए हैं,
प्रश्नों पर प्रश्न लिख कर भेजे जा रहे हैं। रोज। सब कचरा प्रश्न।
लेकिन हरेक का जवाब चाहते हैं। और जवाब नहीं मिलता तो बड़े उद्विग्न हुए जा रहे हैं,
बड़े बेचैन हुए जा रहे हैं, क्रोधित हुए जा
रहे हैं।
इसके पहले कि उनके दो प्रश्न तुम्हें पढ़ कर सुनाऊं, उनको मैं जवाब दूं,
कुछ बातें कह देनी जरूरी हैं, क्योंकि और
भी लोग होंगे जिनके प्रश्न आते हैं और जिन्हें जवाब नहीं मिलते। पहली तो बात: तुमने
पूछ लिया, इतना भर काफी नहीं है जवाब पाने के लिए। मैं अपनी
मौज का आदमी हूं, तुम्हारा कोई गुलाम नहीं। तुम पूछने को स्वतंत्र
हो, मैं जवाब देने को स्वतंत्र हूं--दूं या न दूं। मैंने कोई
ठेका नहीं लिया है कि तुम्हारे सारे प्रश्नों के जवाब दूं। इसलिए किसी को नाराज होने
या किसी को परेशान होने की जरा भी आवश्यकता नहीं है। मैं तुम्हें मजबूर नहीं कर सकता
कि प्रश्न पूछो। तुम मुझे मजबूर कर सकते हो कि मैं जवाब दूं? यहां बहुत हैं जो कभी नहीं पूछते, तो उनको क्या
मैं कह सकता हूं कि क्यों नहीं पूछते? पूछते हो कि नहीं पूछते?
पूछना पड़ेगा, क्योंकि मुझे जवाब देना है।
वे भी स्वतंत्र हैं, उनकी मौज, नहीं पूछते। तुम्हारी मौज, तुम पूछते हो। लेकिन
जवाब देना न देना मेरी मालकियत है। तुमने पूछ लिया, इतना भर
काफी नहीं है कि तुम्हें जवाब मिलना ही चाहिए। मैं अपने ढंग से सोचता हूं। मैं देने
योग्य जवाब मानता हूं तो जवाब देता हूं; देने योग्य नहीं मानता
तो नहीं देता हूं। नाराज होने का कोई कारण नहीं है। बहुत ज्यादा नाराजगी हो,
दरवाजा खुला है--दरवाजे के बाहर! भीतर आने पर पाबंदी है, बाहर जाने पर कोई पाबंदी नहीं है।
और जब मैं बहुत दिन तक तुम्हारे प्रश्नों के
जवाब न दूं तो इतनी अकल तो होनी चाहिए कि तुम्हारे प्रश्नों में कुछ होगा कूड़ा-कर्कट।
और अगर तुम सोचते हो तुम्हारे प्रश्न बड़े बहुमूल्य हैं, तो उत्तर तुम खुद ही खोज
लो। अगर इतने बहुमूल्य प्रश्न खोज सकते हो तो उत्तर नहीं खोज सकोगे?
रहिमन धागा प्रेम का
ओशो
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