मैं आपसे निवेदन करता हूं, ऐसी शांति झूठी होगी,
जो संदेह को दबा कर लाई जाती है। शांति तो वह सच्ची है, जो संदेह के पूरे प्रयोग से आती है। उस शांति को तोड़ने के लिए फिर
संदेह कभी वापस नहीं लौटता। वह हमेशा के लिए चला गया होता है।
संदेह तो मित्र है। जब तक ज्ञान का आलोक न आ
जाए, तब तक
संदेह साथी की तरह ज्ञान की यात्रा पर ले जाता है। संदेह तो मित्र है, जो कहता है, ज्ञान की तरफ चलो। और जब आप किसी
विश्वास को पकड़ते हैं, तो वह कहता है, मत पकड़ो। यह तो विश्वास है, यह आपका जानना
नहीं है। यह संदिग्ध है। लेकिन मित्र को आप इनकार करते हैं और विश्वास को पकड़ते
हैं। विश्वास शत्रु है, क्योंकि वह ज्ञान तक जाने से
रोकता है। संदेह मित्र है, क्योंकि वह यह कहता है कि
ज्ञान के पहले किसी बात को मानने को मैं राजी नहीं हूं। लेकिन हजारों वर्ष की
शिक्षा का यह परिणाम हुआ है कि संदेह मित्र नहीं मालूम होता है और विश्वास मित्र
मालूम होता है।
विश्वास तो जहर है, नशा है। संदेह तो बड़ा
मित्र है। वह तो यह कहता है, कि मानना मत, जब तक तुम न जान लो। वह तो उसी समय शांत होगा, जब मैं जान लूंगा। उस वक्त संदेह कहेगा, ठीक
है, आ गई मंजिल। अब मैं विदा होता हूं। अब मेरा काम
समाप्त हो गया। तुम वहां पहुंच गए, जहां असंदिग्ध कुछ
उपलब्ध हो गया है, जिस पर संदेह नहीं किया जा सकता है।
तो संदेह तो निरंतर साथ देना चाहता है और आप
कहते हैं, तकलीफ
दे रहा है! तकलीफ देगा तभी, जब आपने विश्वास पकड़ लिए
होंगे। कृपा करें, विश्वासों को छोड़ दें। संदेह के साथी
हो जाएं। खोजें, खोजें! उस दिन तक संदेह का साथ जरूरी है,
जब तक कि संदेह खुद कहे कि बस आ गया है मुकाम, अब यहां मेरा कोई भी काम नहीं है। अब वह चीज आपने जान ली है, जिसको आप मानते थे, तो मैं खड़ा हो जाता था और
संदेह करता था कि नहीं, अभी मानना मत। अब तो वह जगह आ गई
है, जहां मेरी कोई जरूरत नहीं। अब आप जानते हैं, मानना जब तक होता है, तब तक संदेह खड़ा होता
रहता है। जिस दिन जानना आ जाता है, उस दिन संदेह विलीन हो
जाता है।
तो संदेह कष्ट नहीं दे रहा है। कष्ट दे रहे
हैं आपके विश्वास। संदेह बढ़ता है,
तो विश्वास की नींव डगमगा जाती है। तो हमारे प्राण कंपते हैं। कि
सारा जीवन हमने विश्वास पर खड़ा किया हुआ है। संदेह से घबड़ाएं न। अगर ज्ञान की
यात्रा पर ही जाना है, तो संदेह की नौका पर ही वह यात्रा
करनी होगी। जो ठीक से संदेह करना सीख लेता है, वह ठीक से
यात्रा करना सीख जाता है।
माटी कहे कुम्हार सूं
ओशो
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