एक छोटी सी कहानी से आज की चर्चा को मैं
प्रारंभ करना चाहूंगा। बहुत बार उस कहानी को देश के कोने-कोने में अनेक-अनेक लोगों
से कहा है। फिर भी मेरा मन नहीं भरता और मुझे लगता है उसमें कुछ बात है जो सभी को
खयाल में आ जानी चाहिए।
जीसस क्राइस्ट यात्रा पर थे। जो उन्हें मिला
था उसे लुटाने की यात्रा पर थे। और आनंद का स्वभाव है कि वह मिल जाए तो उसे लुटाना
अनिवार्य हो जाता है। दुख मनुष्य को सिकोड़ता है और आनंद मनुष्य को फैला देता है।
दुख में मनुष्य चाहता है, मैं अपने में बंद हो जाऊं; और आनंद में मनुष्य
चाहता है, मैं सब तक पहुंच जाऊं और सब तक फैल जाऊं।
इसीलिए आनंद को ब्रह्म कहा है। दुख अहंकार की अंतिम सीमा है; आनंद निर-अहंकारिता की, ब्रह्म होने की।
शायद आपने खयाल किया हो, महावीर और बुद्ध या
क्राइस्ट जब दुख में हैं, तब वे जंगल में भाग गए हैं;
और जब उन्हें आनंद उपलब्ध हुआ है, वे
बस्ती में वापस लौट आए हैं। आनंद बंटना चाहता है, दुख
सिकुड़ना चाहता है। दुख अपने में बंद होना चाहता है, आनंद
दूसरे तक फैलना चाहता है।
क्राइस्ट को जब आनंद उपलब्ध हुआ, वे उसे बांटने की यात्रा
पर निकल गए। वे एक गांव में पहुंचे। सुबह-सुबह ही उस गांव को वे पार करते थे--एक
झील के किनारे उन्होंने एक मछुए को मछली मारते देखा। उसने अपना जाल फेंका था और
मछलियों की प्रतीक्षा करता था। उसे पता भी नहीं था कि पीछे से कौन गुजरता है। क्राइस्ट
ने जाकर उसके कंधे पर हाथ रखा और उससे कहा, मित्र,
मेरी ओर देखो! कब तक मछलियां ही मारते रहोगे?
और जो क्राइस्ट ने उससे कहा, मैं हरेक आदमी के कंधे
पर हाथ रख कर मेरा भी मन होता है कि पूछूं कि कब तक मछलियां ही मारते रहोगे?
इससे क्या फर्क पड़ता है कि रोटियां मार रहे हैं या मछलियां मार
रहे हैं! सब मछलियां मारना है। जीवन अधिक लोगों का मछलियां मारने में ही नष्ट हो
जाता है।
क्राइस्ट ने उससे पूछा कि कब तक मछलियां
मारते रहोगे?
उसने लौट कर देखा, एक झील सामने थी और पीछे
इस आदमी की आंखें थीं जो झील से भी ज्यादा गहरी थीं। उसने सोचा कि अब इस जाल को
वहीं फेंक दूं और इन आंखों में एक जाल को फेंकूं। उसने जाल वहीं फेंक दिया और
क्राइस्ट के पीछे हो लिया। उसने कहा, मैं साथ चलता हूं।
अगर कुछ और पकड़ा जा सकता है, उसे पकड़ने को मैं तैयार हूं।
यह जाल यहीं फेंक दिया, ये मछलियां यहीं छोड़ दीं।
जिसे धर्म की खोज करनी हो, उसे इतना साहस होना
चाहिए कि समय पड़े तो जाल को और मछलियों को फेंक दे।
वह क्राइस्ट के पीछे गया। वे गांव के बाहर
भी नहीं निकल पाए, एक आदमी ने आकर उस मछुए को खबर दी कि तुम कहां जा रहे हो? तुम्हारे पिता जो बीमार थे, उनकी रात्रि में
मृत्यु हो गई। अभी-अभी वे समाप्त हो गए हैं। लौटो, हम
तुम्हें खोजते हुए सब तरफ घूम आए हैं!
वह युवा मछुआ क्राइस्ट से बोला, क्षमा करें, मैं जाऊं और अपने पिता का अंतिम संस्कार करके दो-चार दिन में वापस लौट
आऊंगा।
क्राइस्ट ने उसका हाथ पकड़ा और उससे कहा, तुम तो मेरे पीछे आओ।
एंड लेट दि डेड बरी देयर डेड। और वे जो गांव के मुर्दे हैं, वे मुर्दे को दफना लेंगे। तुम मेरे पीछे आओ। क्राइस्ट ने कहा, वे जो गांव में बहुत मुर्दे हैं, वे मुर्दे को
दफना लेंगे। तुम्हें जाने की कौन सी जरूरत है?
बहुत ही अजीब बात उन्होंने कही और बहुत
अर्थपूर्ण भी। निश्चित ही जिन्हें अभी जीवन का पता नहीं है, वे मृत ही हैं। और हमें
जीवन का कोई भी पता नहीं है। जिसे हम जीवन कहते हैं, वह
तो क्रमिक मृत्यु का ही नाम है। वह वस्तुतः जीवन नहीं है। हम जिस दिन पैदा होते हैं
और जिस दिन हम मर जाते हैं, इन दोनों के बीच में जो फैला
हुआ है, वह जीवन नहीं है, वह तो
धीमे-धीमे मरते जाने का नाम है। हम रोज मरते जा रहे हैं। जिसे हम जीवन कह रहे हैं,
वह रोज मरते जाना है। वह ग्रेजुअल डेथ है।
अमृत की दशा
ओशो
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