बंगाल में एक बहुत बड़े कलाकार हुए अवनींद्रनाथ टगोर। रवींद्रनाथ के चाचा थे। उन जैसा चित्रकार भारत में इधर पीछे सौ वर्षों में
नहीं हुआ। और उनका शिष्य, उनका बड़े से बड़ा शिष्य था नंदलाल। उस जैसा भी चित्रकार फिर खोजना मुश्किल
है। एक दिन ऐसा हुआ कि रवींद्रनाथ बैठे हैं और अवनींद्रनाथ बैठे हैं, और नंदलाल कृष्ण की एक छबि बना कर लाया, एक
चित्र बना कर लाया। रवींद्रनाथ ने अपने संस्मरणों में लिखा है, मैंने इससे प्यारा कृष्ण का चित्र कभी देखा ही नहीं; अनूठा था। और मुझे शक है कि अवनींद्रनाथ भी उसे बना सकते थे या नहीं।
लेकिन मेरा तो कोई सवाल नहीं था, रवींद्रनाथ ने लिखा है,
बीच में बोलने का। अवनींद्रनाथ ने चित्र देखा और बाहर फेंक दिया
सड़क पर, और नंदलाल से कहा, तुझसे
अच्छा तो बंगाल के पटिए बना लेते हैं।
बंगाल में पटिए होते हैं, गरीब चित्रकार, जो कृष्णाष्टमी के समय कृष्ण के चित्र बना कर बेचते हैं दो-दो पैसे
में। वह आखिरी दर्जे का चित्रकार है। अब उससे और नीचे क्या होता है! दो-दो पैसे
में कृष्ण के चित्र बना कर बेचता है।
अवनींद्रनाथ ने कहा कि तुझसे अच्छा तो बंगाल
के पटिए बना लेते हैं। जा, उनसे सीख!
रवींद्रनाथ को लगा, मुझे बहुत चोट पहुंची।
यह तो बहुत हद हो गई। चित्र ऐसा अदभुत था कि मैंने अवनींद्रनाथ के भी चित्र देखे
हैं कृष्ण के, लेकिन इतने अदभुत नहीं। और इतना दुर्व्यवहार?
नंदलाल ने पैर छुए, विदा हो गया। और तीन साल
तक उसका कोई पता न चला। उसके द्वार पर छात्रावास में ताला पड़ा रहा। तीन साल बाद वह
लौटा; उसे पहचानना ही मुश्किल था। वह बिलकुल पटिया ही हो
गया था। क्योंकि एक पैसा पास नहीं था; गांव-गांव पटियों
को खोजता रहा। क्योंकि गुरु ने कहा, जा पटियों से सीख!
गांव-गांव सीखता रहा। तीन साल बाद लौटा, अवनींद्रनाथ के
चरणों पर सिर रखा। उसने कहा, आपने ठीक कहा था।
रवींद्रनाथ ने लिखा है कि मैंने पूछा, यह क्या पागलपन है?
अवनींद्रनाथ से कहा कि यह तो हद ज्यादती है। लेकिन अवनींद्रनाथ
ने कहा कि यह मेरा श्रेष्ठतम शिष्य है, और यह मैं भी
जानता हूं कि मैं भी शायद उस चित्र को नहीं बना सकता था। इससे मुझे बड़ी अपेक्षाएं
हैं। इसलिए इसे सस्ते में नहीं छोड़ा जा सकता। यह कोई साधारण चित्रकार होता तो मैं
प्रशंसा करके इसे विदा कर देता। लेकिन मेरी प्रशंसा का तो अर्थ होगा अंत, बात खतम हो गई। इसे अभी और खींचा जा सकता है; अभी
इसे और उठाया जा सकता है। अभी इसकी संभावनाएं और शेष थीं। इसे मैं जल्दी नहीं छोड़
सकता। इससे मेरी बड़ी आशा है। छोटा चित्रकार होता तो कह देता कि ठीक, बहुत। लेकिन इसकी संभावना इसके कृत्य से बड़ी है।
इसे समझ लो ठीक से। जितनी बड़ी तुम्हारी
संभावना होगी उतने ही तुम कसे जाओगे। जितनी छोटी संभावना होगी उतने जल्दी छूट
जाओगे। जैसे-जैसे घड़ी करीब आती है परमात्मा के पहुंचने के पास, उतनी ही कसान बढ़ती है,
उतने ही तुम ज्यादा कसे जाते हो। क्योंकि अब तुम अपनी अंतिम
संभावना के निकट पहुंच रहे हो। अब सब परीक्षाएं हो जानी जरूरी हैं। अब तुम वहां
पहुंच रहे हो जिसके आगे फिर और कोई जाना नहीं। अब तुम वहां पहुंच रहे हो जिसके आगे
फिर और कोई विकास नहीं। अब तुम वहां पहुंच रहे हो जो चरम उत्कर्ष है, जो कैलाश का शिखर है। अब तुम्हारी सब परीक्षा हो जानी जरूरी है। अब
तुम्हारा रोआं-रोआं कस लिया जाना जरूरी है। अब तुम खालिस सोना बचो। तुममें कुछ भी
तंद्रा न रह जाए; तुम शुद्ध-बुद्ध बचो। तुममें कुछ भी कूड़ा-कर्कट
न रह जाए। अब तुम्हें आखिरी आग में फेंक देना जरूरी है।
इसलिए आखिरी मंजिल से अगर तुम जरा भी चूके
तो ठीक पहले कदम पर फेंक दिए जाते हो। क्योंकि तुम बड़े संभावना के व्यक्ति हो; आखिरी तक आ गए थे।
तुम्हारा होना है तो बहुमूल्य कि तुम द्वार तक किसी तरह पहुंच गए थे, जो कि कभी करोड़ों में एक को संभव हो पाता है और करोड़ों जन्मों दौड़ कर
कभी संभव हो पाता है। तुम्हें वापस पहले कदम पर फेंक दिया जाए, यही उचित है। यही उचित है, इसे तुम अन्याय मत
समझना। क्योंकि तुम्हारी जितनी बड़ी संभावना है उतनी ही बड़ी तुमसे अपेक्षा है।
ताओ उपनिषद
ओशो
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