रामकृष्ण!
यह नाम तुम्हें किसने दिया? न तुम राम हो, न कृष्ण। राम की भी लुटिया डुबा दी, कृष्ण
की भी लुटिया डुबा दी। कुछ तो अपने नाम की इज्जत रखते!
एक
उपन्यासकार ने मुल्ला नसरुद्दीन से कहा कि जरा मेरा यह नया-नया उपन्यास है, इसे पढ़ें
और कुछ आपकी आलोचना हो या सुझाव हों तो मुझे दें।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने उपन्यास पढ़ा और कहा कि उपन्यास तो आपने जैसा लिखा है सो ठीक है, मगर उपन्यास
को जो नाम दिया है वह ठीक नहीं है।
उपन्यास
लेखक ने कहा: लेकिन मैं तो समझता था कि नाम काफी जोरदार है।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने कहा: यही तो मेरा भी खयाल है। लेकिन कथानक ने सारी मिट्टी पलीद कर दी।
नाम
तुम्हारा इतना जोरदार है और कथानक बिलकुल मिट्टी पलीद किए दे रहा है।
रामकृष्ण!
क्या पूछ रहे हो कि मैं संन्यास लेने के पहले आश्वस्त होना चाहता हूं! कोई गारंटी?
संन्यास का अर्थ क्या होता है? असुरक्षा में उतरना। वे जो आश्वस्त होना चाहते हैं,
वही तो गृहस्थ हैं। वे जो सब तरह की सुरक्षा चाहते हैं, वही तो गृहस्थ हैं। संन्यस्त
का अर्थ इतना होता है कि परमात्तमा मेरी सुरक्षा है। रखेगा जैसे, रहूंगा। जिलाएगा जैसे,
जीऊंगा। कराएगा जो, करूंगा। जिंदगी, तो उसकी है; और मौत, तो उसके हाथों। अब उसका हूं।
अब हिसाब-किताब अपना क्या रखना!
तुम
दुकानदारी समझते हो संन्यास को? पहले आश्वस्त होना चाहते हो? यह जुआरियों का काम है।
अभी मैंने तुम्हें जरीन की बात कही न! अब बात इतनी बढ़ गई है कि उसके घर के लोग कहते
हैं कि अब तू चुन ले--या तो संन्यास और या फिर तू जान। मैंने तो उसे कहलवा दिया है
कि तू फिकर न कर, अगर यही बात हो तो यह आश्रम तेरा घर है। क्षण भर विचार मत करना। यह
आश्रम ही किसलिए है! अगर तुझे संन्यास छोड़ना हो तो तू मजे से छोड़ दे। मैं कहता नहीं
कि रख। तू खुश, तेरा घर खुश। लेकिन तू अगर न छोड़ना चाहे तो यह मत सोचना कि तेरा कोई
घर नहीं है। छोटा घर छूटेगा, यह बड़ा घर है। छोटा परिवार छूटेगा, यह बड़ा परिवार है।
अभी
तीन हजार संन्यासी हैं यहां। और तुम कहां पाओगे इससे बड़ा परिवार? और कितने प्रेम से
यह परिवार चल रहा है, इसकी तुम कल्पना कर सकते हो! और बिना किसी व्यवस्था के! घर में
तीन आदमी हों तो भी तीन-पांच मची रहती है। पांच होते ही नहीं, मगर तीन ही तीन-पांच
मचा देते हैं। यहां तीन हजार हैं, मगर तीन-पांच का कोई सवाल ही नहीं है। और एक मैं
हूं कि मैं कभी अपने कमरे के बाहर आता नहीं। सब अपने से चल रहा है जैसे, कोई चलाने
वाला नहीं! मुझे तो पता ही नहीं कि कैसे चल रहा है। मैं पता रखना भी नहीं चाहता। मैं
तो सब उस पर पहले ही छोड़ चुका हूं। यह आश्रम भी उस पर ही छूटा हुआ है। उसकी जैसी मर्जी!
लेकिन सब चल रहा है--एक अपूर्व सौंदर्य से! एक अपूर्व प्रसाद से चल रहा है!
तो
जरीन को मैंने खबर भेज दी है कि यह तेरा घर है, तू एक क्षण भी सोचना मत। हां, तुझे
संन्यास छोड़ना हो तो तेरी मौज। और तुझे लगे कि संन्यास न छोडूं, तो जाऊं कहां! तो यह
तेरा घर है।
रामकृष्ण,
पहले से आश्वस्त होने की इतनी क्या चिंता कर रहे हो? संन्यास लेना है कि कोई सौदा करना
है? थोड़ा जुआरी होना भी सीखो। थोड़ा दांव लगाना भी सीखो।
लेकिन
हमारी व्यवसायी बुद्धि है।
दो
युवक बहुत वर्षों के बाद मिले। एक की हालत तो खस्ता थी। दरबदर घूमता था, बेकार
था; यद्यपि विश्वविद्यालय से गोल्ड मेडल लेकर निकला था। दूसरा विद्यार्थी तो कभी कालेज
तक पहुंचा ही नहीं। टेंथ में ही दस बार फेल हुए, उसके आगे बढ़े नहीं। टेंथ का ही अभ्यास
दस बार किया। फिर आशा भी छोड़ दी। मगर अब वे लखपति हो गए थे। व्यवसायी का बेटा था, हो
सकता है मारवाड़ी रहा हो। पहले की तो हालत बड़ी खस्ता थी, जूते फटे थे, कपड़े गंदे थे।
और उसने कहा: यह माजरा क्या है? और यह आलीशान मकान! खस की टट्टियां! दूसरा तो इसकी
गद्दियों पर बैठने में भी शर्माए कि कहीं गद्दियां गंदी न हो जाएं--इतनी झकाझक, इतनी
सफेद! वह तो सिकुड़ कर बैठा। उसने पूछा कि अपना राज तो कहो! मैं तो भूखा मर रहा हूं,
गोल्ड मेडल मैंने पाया विश्वविद्यालय से। और तुम तो टेंथ क्लास से कभी आगे बढ़े नहीं।
उसने
कहा: अरे टेंथ से इसका क्या लेना-देना! एक रुपये में चीज खरीदते हैं, दो रुपये में
बेच देते हैं! एक परसेंट के लाभ से सब चल रहा है।
एक
परसेंट लाभ! एक रुपये में खरीदते हैं, दो रुपये में बेच देते हैं। हुए होंगे टेंथ में
दस दफे फेल, जरूर हुए होंगे। मगर एक रुपये पर एक रुपये के लाभ को एक परसेंट का लाभ
समझते हैं, तो हो गए लखपति।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक दफा जीत गया लाटरी--दस लाख रुपये। सब चकित थे कि मुल्ला तूने इस टिकट
के नंबर का पता कैसे लगाया?
मुल्ला
ने कहा कि क्या कहूं! रात मैंने देखा कि सात का नंबर तीन बार दिखाई पड़ा। सौ मैंने सोचा,
सात तिया अठारह। सो अठारह नंबर की टिकट मैंने खरीद ली। और यह लाटरी जीत गया।
दूसरे
ने कहा: हद्द हो गई, सात तिया अठारह! अरे सात तिया इक्कीस होते हैं, अठारह नहीं। तो
मुल्ला ने कहा: गणित तुम करो, लाटरी मुझे मिली है। तू जा भाड़ में और तेरा गणित जाए
भाड़ में! सवाल लाटरी का है। लाटरी किसको मिली?
तुम
गणित जमाने बैठे हो! "तुम पूछते हो: मैं संन्यास लेने के पहले आश्वस्त होना चाहता
हूं कि मुझे निर्वाण पाने में सफलता मिलेगी या नहीं?'
और
निर्वाण और सफलता, इनका कोई तालमेल है? सफलता की आकांक्षा संसार है। सफलता से ही मुक्त
हो जाने का नाम निर्वाण है। और तुम सफलता को वहां भी घुसेड़े जा रहे हो! निर्वाण में
भी! अच्छा हुआ, तुमने यह नहीं पूछा कि निर्वाण पाऊंगा तो भारत-रत्तन की उपाधि मिलेगी
कि नहीं? कि निर्वाण पाने पर नोबल प्राइज मिलेगी कि नहीं? तुकबंदी तो ठीक है--निर्वाण
और नोबल प्राइज! मगर मैं नहीं सोचता कि अगर बुद्ध आज होते तो उनको कोई नोबल-प्राइज
मिलती।
यह
जरा मजा तो देखो, जीसस को सूली मिली और कलकत्ता की थेरेसा को नोबल प्राइज! यह जीसस
की अनुयायी। जीसस को नोबल प्राइज मिलती? अभी भी होते तो सूली मिलती। नोबल प्राइज तो
मिलती है--कूड़ा-कर्कट को, कचरों को। समाज की पिटी-पिटाई लकीरों को जो पीटते रहते हैं--चमचों
को। समाज की रूढ़ियों का जो परिपोषण करते हैं, उनको मिलती है। समाज के न्यस्त स्वार्थों
की जो सेवा करते हैं, उनको मिलती है। भारत-रत्तन भी उनको ही मिलेगा। बिलकुल रत्तन जैसा
जिनमें कुछ भी नहीं होगा! भारत-रतन कहो--पहुंचे हुए रतन! तो उनको मिलेगी।
सफलता?
सफलता का भाव ही अहंकार का भाव है। और निर्वाण तो अहंकार का विसर्जन है। वहां कोई महत्तवाकांक्षा,
कोई वासना लेकर जाओगे तो निर्वाण भर नहीं मिलेगा, और कुछ भी मिल जाए।
संन्यास
अहोभाव से लो, आश्वासन से नहीं; किसी सफलता की आकांक्षा से नहीं, मौज से! जीवन की व्यर्थता
को पहचान कर। जीवन की शैली को बदलना है यह। एक ढंग से जीवन जीकर देख लिया--सफलता पाने
का, दिल्ली जाने का, पद पाने का, धन पाने का--एक जीवन जीकर देख लिया और पाया कि नहीं
है वहां कुछ; हाथ कुछ भी नहीं दिखता। जान तो निकल जाती है, बिलकुल जान निकल जाती है--भाई
ही भाई रह जाता है। भाईजान में से जान चली जाती है, भाई ही भाई! जैसे मोरारजी भाई!
बस भाई ही भाई! फु९ब०फस! अब कुछ नहीं भीतर। भीतर बिलकुल भूसा भरा हुआ। भाई ही भाई!
गुजराती भाई! जान वगैरह कहां! जान तो निकल गई।
जो
समझ लेता है यह कि यहां जिंदगी में तो सिर्फ गंवाना है--प्राण गंवाना, आत्तमा गंवानी--संन्यास
उसके लिए है। संन्यास उस बोध में फलित होता है। संन्यास कुछ पाने के लिए नहीं है। संसार
में कुछ पाने योग्य नहीं है, इस बोध में संन्यास का फूल खिलता है। संन्यास किसी और
चीज का साधन नहीं है, स्वयं साध्य है। स्वांतः सुखाय!
चल
तू अपनी राह पथिक, चल, तुझको विजय-पराजय से क्या?
भंवर
उठ रहे हैं सागर में,
मेघ
घुमड़ते हैं अंबर में,
आंधी
औ तूफान डगर में,
तुझको
तो केवल चलना है, चलना ही है, फिर हो भय क्या?
चल
तू अपनी राह पथिक, चल, तुझको विजय-पराजय से क्या?
इस
दुनिया में कहीं न सुख है,
इस
दुनिया में कहीं न दुख है,
जीवन
एक हवा का रुख है,
होने
दे होता है जो कुछ, इस होने का हो निर्णय क्या?
चल
तू अपनी राह पथिक, चल, तुझको विजय-पराजय से क्या?
अरे,
थक गया! फिर बढ़ता चल,
उठ,
संघर्षों से अड़ता चल,
जीवन
विषम पंथ चलता चल,
अड़ा
हिमालय हो यदि आगे, चढूं कि लौटूं यह संशय क्या?
चल
तू अपनी राह पथिक, चल, तुझको विजय-पराजय से क्या?
कोई
रो-रो कर सब खोता
कोई
खोकर सुख में सोता,
दुनिया
में ऐसा ही होता,
जीवन
का क्रय मरण यहां पर, निश्चित ध्येय यदि, फिर क्षय क्या?
चल
तू अपनी राह पथिक, चल, तुझको विजय-पराजय से क्या?
रहिमन धागा प्रेम का
ओशो
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