लोग कहते हैं, महावीर ने अहिंसा साधी।
मैं कहता हूं, बिलकुल ही झूठ कहते हैं। महावीर ने आत्मा साधी,
अहिंसा आई।
लोग कहते हैं, अहिंसा परम धर्म है।
बिलकुल झूठी बात कहते हैं। आत्मा परम धर्म है, अहिंसा तो लक्षण है। जो आत्मा
को साध लेता है, अहिंसा उसके पीछे चली आती है। कोई भी,
कहीं भी साध ले, अहिंसा पीछे चली आएगी,
प्रेम पीछे चला आएगा, करुणा पीछे चली आएगी,
नाम कुछ भी रख लें। ये तो खबरें हैं! जब किसी आदमी में अहिंसा का
प्रकाश होने लगे तो जानना, प्रेम किसी में प्रकट होने लगे
तो जानना कि हवाएं भीतर बहने लगी हैं।
लेकिन अगर कोई आदमी जबरदस्ती प्रेम प्रकट करने
लगे, तो खतरा
हो गया, उसके भीतर असली प्रेम के पैदा होने की संभावना हमेशा
के लिए समाप्त हो गई। इसलिए जीवन में चरित्र को ओढ़ने की कोशिश मत करना। जैसे हम सहज
हैं उसको जानना और पहचानना। और उसकी पीड़ा को अनुभव करना, उसके
दुख को अनुभव करना। क्रोध को बदलना मत, क्रोध के दुख और पीड़ा
को अनुभव करना। वह दुख और पीड़ा कहेगी कि चेतना बाहर बह रही है। वह दुख और पीड़ा तुम्हें
राजी करेगी कि भीतर चलो। वह पीड़ा तुम्हें परेशान करेगी कि भीतर आओ।
लेकिन हम होशियार हैं, हम क्रोध को दबाने में लग
जाते हैं। और उसका जो मौलिक काम था वह व्यर्थ हो जाता है। वह जो खबर देने की बात थी
वह खो जाती है। और तब जीवन धीरे-धीरे नीचे उतरता है, ऊपर नहीं
जाता।
ऊर्ध्वगमन के लिए--यह अंतिम बात कहता हूं, फिर कुछ और प्रश्न हैं वे
रात लूंगा--ऊर्ध्वगमन के लिए अंतर्गमन मार्ग है। ऊर्ध्वगमन के लिए अंतर्गमन मार्ग है,
ऊपर जाने के लिए भीतर जाना मार्ग है। नीचे जाने के लिए बाहर जाना
मार्ग है। नीचे अगर जा रहे हैं तो नीचे से सीधे ऊपर नहीं जा सकते हैं। नीचे जा रहे
हैं, यह इस बात की खबर है कि बाहर चेतना जा रही है। जो चेतना
बाहर जाती है वह नीचे की तरफ जाती है। वह पानी की तरह है बाहर की तरफ जाने वाली चेतना,
वह नीचे उतरती है। जो चेतना भीतर की तरफ जाती है वह ऊपर की तरफ जाती
है, वह आग की तरह है, जैसे अग्नि
की लपटें ऊपर की तरफ उठती हैं।
इसलिए अग्नि जो है वह प्रतीक है ऊर्ध्वगमन का और जल
जो है वह प्रतीक है अधोगमन का, नीचे जाने का। बाहर जाने वाली
चेतना नीचे जाती है, भीतर जाने वाली चेतना ऊपर जाती है। ऊपर
जाना है तो नीचे से ऊपर जाने का सीधा कोई रास्ता नहीं है। ऊपर जाना है तो बाहर से भीतर
जाना पड़ता है। इस सूत्र पर थोड़ा विचार करेंगे तो खयाल में आ सकेगा।
समाधी कमल
ओशो
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