वर्षों से यही सोच रहा
हूं। और चूंकि कुछ तय ही नहीं हो पाता है, इसलिए प्रारंभ
भी करूं तो कैसे करूं?
कृष्णदास! मन के खेल बहुत सूक्ष्म हैं। मन
की राजनीति बड़ी गहरी है। मन एक कुशल कूटनीतिज्ञ है। और उसकी सबसे बड़ी कूटनीति यह
है कि तुम्हें कभी तय ही न करने दे। तुम्हें कभी निर्णय ही न लेने दे। तुम्हें कभी
किसी निष्पत्ति पर न पहुंचने दे। क्योंकि न होगा बांस, न बजेगी बांसुरी।
निष्पत्ति ही न ले सकोगे तो कृत्य का जन्म ही नहीं होगा।
तो मन सदा डांवाडोल रखता है। मन कहता है: यह
या वह। और मन अनंत काल तक ऐसे ही डांवाडोल रख सकता है, रखा है। कृष्णदास,
तुम कुछ इस जन्म में ही ऐसा सोच रहे, ऐसा
नहीं, न मालूम कितने जन्मों से ऐसे ही सोच रहे होओगे। और
तब मन का तर्क ठीक भी है कि जब तय ही न हो पाए, तो कुछ
करूं तो कैसे करूं? पहले तय तो हो जाने दो! और मन तय होने
न देगा। क्योंकि तय करने की क्षमता ही मन की नहीं है। निष्कर्ष मन की संभावना नहीं
है। निष्कर्ष लिए जाते हैं हृदय से, भाव से, श्रद्धा से।
मन तो केवल संदेह करना जानता है। मन बहुत
कुशल है संदेह करने में, बहुत प्रवीण है। संदेह को उसने खूब निखारा है। उस पर खूब धार धरी है।
संदेह की छुरी उसके हाथ में है। और जो भी सामने पड़ जाए, वह
छुरी टुकड़े-टुकड़े कर देती है। मन तोड़ना जानता है, जोड़ना
नहीं जानता।
शेख फरीद, एक मुसलमान फकीर के पास एक सम्राट मिलने
आया। उसके पास एक बहुमूल्य कैंची थी। सोने की थी, उस पर
हीरे-जवाहरात जड़े थे। लाखों रुपए उसकी कीमत थी। किसी सम्राट ने उसे भेंट दी थी।
क्या ले चलूं फकीर के पास? फरीद के प्रति उसकी बड़ी भावना
थी। तो जो बहुमूल्यतम उसके पास चीज थी, वही कैंची ले आया।
फरीद को कैंची दी।
कैंची लेकर फरीद हंसने लगा और उसने कहा: गलत
जगह ले आए। मैं इस कैंची का क्या करूंगा?
क्योंकि काटने का धंधा ही मैंने बंद कर दिया। मैं चीजों को तोड़ता
नहीं। मैं तो चीजों को जोड़ता हूं। अच्छा हो तुम कैंची तो ले जाओ, एक सुई-धागा मेरे लिए ला देना। क्योंकि सुई-धागे से जोड़ना हो सकेगा।
कैंची से काटना होता है।
फरीद ने बड़े ही प्यारे ढंग से बड़ी अनूठी बात
कह दी। मस्तिष्क तो कैंची है, काटता है। हृदय सुई-धागा है, जोड़ता है।
श्रद्धा जोड़ती है, संदेह खंड-खंड करता है। श्रद्धा अखंड
करती है।
तुम सोचते ही रहोगे तो कभी निर्णय न कर
पाओगे कि भक्ति करूं या ध्यान। और मजा यह है कि दोनों में क्या तुम सोचते हो बहुत
भेद है? दोनों
मार्ग हैं उसी एक मंजिल के। कोई पूरब से चले कि कोई पश्चिम से, पहुंच जाना है वहीं। सभी नदियां सागर में पहुंच जाती हैं। रास्ते अलग
हैं, दिशाएं अलग हैं। और सभी श्रद्धाएं परमात्मा में
पहुंच जाती हैं, फिर श्रद्धा भक्ति की हो कि श्रद्धा
ध्यान की। श्रद्धा पहुंचाती है, न तो भक्ति पहुंचाती है
और न ध्यान पहुंचाता है। ध्यान और भक्ति तो केवल निमित्त हैं, जो चीज पहुंचाती है वह श्रद्धा है।
और तुम संदेह में पड़े हो। तो तुम डूबते
रहोगे, उबरते
रहोगे, डूबते रहोगे, उबरते
रहोगे। तुम कभी न घर के होओगे न घाट के, तुम धोबी के गधे
रहोगे। तुम्हारी जिंदगी में कभी फूल न खिलेंगे। क्योंकि कभी तुम इतनी श्रद्धा ही न
कर पाओगे कि जड़ें जमने का समय मिल सके।
फिर ध्यान और भक्ति में भेद क्या है, जिसके लिए तुम इतना
चिंतन कर रहे हो?
ध्यान है आत्म-स्मरण और भक्ति है
परमात्म-स्मरण। ध्यान है इस बात के प्रति बोध कि मैं परमात्मा हूं और भक्ति है इस
बात का बोध कि शेष सब परमात्मा है। जो जान लेता है कि मैं परमात्मा हूं, वह निश्चित ही जान लेता
है कि शेष सब भी परमात्मा है। क्योंकि जो मेरे भीतर जीवित है, वही शेष सबके भीतर जीवित है। जो मेरे भीतर श्वास ले रहा है, वही सबके भीतर श्वास ले रहा है। तो ध्यानी अंततः भक्ति पर पहुंच ही
जाता है।
और जो सोचता है कि सबके भीतर परमात्मा
विराजमान है, क्या वह अपने को अपवाद कर लेगा? क्या वह अपने
को छोड़ कर सब में परमात्मा देखेगा? सिर्फ अपने में नहीं
देखेगा? जिसे सब में दिखाई पड़ेगा, उसे स्वयं में भी दिखाई पड़ेगा। भक्ति से जो चलेगा, ध्यान उसके पीछे अपने आप छाया की भांति चला आता है।
भक्ति और ध्यान एक ही सिक्के के दो पहलू
हैं--तुम क्या सोचने बैठे हो? करना ही न हो तो बात अलग, तो खूब सोचो! जिसे न
करना हो, उसके लिए श्रेष्ठतम विधि है, सोचना। जिसे कभी जीवन को रूपांतरित न करना हो, उसके लिए सबसे बड़ी सुरक्षा है, सोचना। यह बचाव
है। इस आड़ में तुम छुपे रह सकते हो। मगर किसको धोखा दोगे? यह आत्मवंचना है। अपने को ही धोखा दोगे।
कृष्णदास, अब कुछ करो। कुछ भी सही। निर्णय न कर सको,
तो एक रुपया हाथ में लेकर उसे फेंक कर चित-पट कर लो! और तुमसे
मैं कहता हूं, चित भी उसकी, पट
भी उसकी।
प्रेम पंथ ऐसो कठिन
ओशो
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