समाधि उधार नहीं हो सकती। कोई तुम्हें दे नहीं सकता। कोई देता
हो तो भूलकर लेना मत। वह झूठी होगी। समाधि तो तुम्हें ही खोजनी पड़ेगी। क्योंकि
समाधि कोई बाह्य घटना नहीं, तुम्हारा आंतरिक विकास है।
धन में तुम्हें दे सकता हूं। धन बाहरी घटना है। लेकिन ध्यान
रखना जो बाहर से दिया जा सकता है,
वह बाहर से छीना भी जा सकता है। कोई चोर उसे चुरा लेगा। अगर दिया जा
सकता है, तो लिया जा सकता है।
वह समाधि ही क्या,
जो ली जा सके। जो चोर चुरा ले, डाकू लूट ले,
इन्कम टैक्स, का दफ्तर उसमें कटौती कर ले,
वह समाधि क्या! समाधि तो वह है, जो तुम से ली
न जा सके। समाधि तो वह है, कि तुम्हें मार भी डाला जाए,
तो भी समाधि को न मारा जा सके। तुम कट जाओ, समाधि
न कटे। तुम जल जाओ, समाधि न जले। तुम्हारी मृत्यु भी समाधि
की मृत्यु न बने। तभी समाधि है। नहीं तो क्या खाक समाधान हुआ!
तो फिर ऐसी समाधि तो कोई भी दे नहीं सकता, तुम्हें खोजनी होगी।
बुद्धपुरुष भी नहीं दे सकते। अनिवार्य है, कि तुम अपना विकास
खुद खोजो। हां, बुद्धपुरुष सहारा दे सकते हैं, उनकी मौजूदगी बड़ी कीमत की हो सकती है, उनकी मौजूदगी
में तुम्हारा भरोसा बढ़ सकता है।
ऐसे ही जैसे मां मौजूद होती है तो छोटा बच्चा खड़े होने की
चेष्टा करता है। उसे पता है, अगर गिरेगा तो मां सम्हालेगी। मां नहीं चल सकती बेटे के लिए; बेटे को ही चलना पड़ेगा। बेटे के पैर ही जब शक्तिवान होंगे तभी चल पाएगा।
मां के मजबूत पैरों से कुछ न होगा। लेकिन मां कह सकती है कि हां, बेटा चल। डर मत, मैं मौजूद हूं। गिरेगा नहीं। मां
थोड़ा हाथ का सहारा दे सकती है। खड़ा तो बेटा अपने ही भरोसे पर होगा, अपने ही बल पर होगा लेकिन मां की मौजूदगी एक वातावरण, एक परिवेश देती है। उस परिवेश में हिम्मत बढ़ जाती है।
मनोवैज्ञानिकों ने बहुत अध्ययन किए हैं। अगर बच्चों के पास
परिवेश न हो प्रेम का तो वे देर से चलते हैं। अगर प्रेम का परिवेश हो, जल्दी खड़े होने लगते हैं।
अगर प्रेम का परिवेश न हो, तो उन्हें बहुत देर लग जाती है
बोलने में। अगर प्रेम का परिवेश हो, तो वे जल्दी बोलने लगते
हैं। अगर उन्हें प्रेम बिलकुल भी न मिले तो वे खाट पर पड़े रह जाते हैं। वे पहले से
ही रुग्ण हो जाते हैं। फिर उठ नहीं सकते, चल नहीं सकते। किसी
ने भरोसा ही न दिया, कि तुम चल सकते हो।
बच्चे को पता भी कैसे चले,
कि मैं चल सकता हूं? उसका कोई अनुभव नहीं,
कोई पिछली याद नहीं। बच्चे को पता कैसे चले, कि
मैं भी बोल सकता हूं? उसने अपने कंठ से कभी कोई शब्द निकलते
देखा नहीं। हां, अगर प्रेम का परिवेश हो, कोई उसे उकसाता हो, सहारा देता हो, कोई कहता हो घबराओ मत; आज नहीं होता है, कल हो जाएगा। ऐसे ही हम भी चले, ऐसे ही हम भी गिरे
थे, ऐसी चोट खानी ही पड़ती है, यह कोई
चोट नहीं है, यह तो शिक्षण है। ऐसा कोई सहारा देता हो,
प्रेम की हवा बनाता हो, तो चलना आसान हो जाता
है, उठना आसान हो जाता है, बोलना आसान
हो जाता है।
जो छोटे बच्चे के लिए सही है, वही साधक के लिए भी सही है। साधक छोटा बच्चा है
आत्मा के जगत में। बुद्ध तुम्हें देते नहीं, दे नहीं सकते;
सिर्फ तुम्हारे चारों तरफ एक प्रेम का परिवार बना सकते हैं। उस हवा
में बहुत कुछ घट जाता है।
पीव पीव लगी प्यास
ओशो
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