मैंने तो नहीं कहा कि वह सब गलत है। मैंने तो इतना ही कहा कि आप
उसे पकड़ लें, तो
यह पकड़ लेना गलत है। ऋषि-मुनियों से मुझे कोई वास्ता नहीं। क्योंकि ऋषि-मुनि बड़े
खतरनाक होते हैं, उनसे वास्ता रखना खतरनाक है। अभी
हिंदुस्तान के ऋषि-मुनि और शंकराचार्य हाइकोर्टों में मुकदमा लड़ते हैं। उनसे
दोस्ती रखना, उनकी बात ही करना खतरनाक है।
लेकिन आप किसको ऋषि कहने लगते हैं, किसको मुनि कहने लगते हैं,
और कैसे? और कैसे आप पता लगा लेते हैं?
आपके पास जांच क्या है? मापदंड क्या है?
आपके पास कसौटी क्या है कि फलां आदमी ऋषि है और मुनि है? सिवाय प्रपोगेंडा के और तो कोई कसौटी नहीं मालूम पड़ती।
रामकृष्ण को हिंदू तो कहेंगे कि परमहंस हैं। लेकिन किसी जैन से
पूछें? वे
कहेंगे, कैसे परमहंस? मछली खाते हैं!
उसकी कसौटी में बिलकुल न उतरेंगे। वे कहेंगे, इनसे तो एक
साधारण जैनी अच्छा, कम से कम मछली तो नहीं खाता, मांसाहार तो नहीं करता। ये कैसे संत! ये किस प्रकार के संत हैं?
अगर एक दिगंबर जैन से पूछो कि क्राइस्ट ज्ञान को उपलब्ध हो गए
हैं। वे कहेंगे, कैसे उपलब्ध हो गए हैं? महावीर तो नग्न खड़े हुए हैं,
यह आदमी तो कपड़े पहने हुए है! तो कपड़े पहने हुए आदमी भी कहीं ज्ञान
को उपलब्ध हो सकता है! झूठी है यह बात। यह नहीं हो सकता।
कसौटियां भी हमारे हजारों साल के प्रचार से निर्मित हो गई हैं।
और जिसको बचपन से जो कसौटी पकड़ गई है,
वह उसी पर तौल रहा है कि कौन ऋषि है, कौन मुनि
है! अपना हमें पता नहीं कि हम क्या हैं! और हम यह भी तय कर लेते हैं कि कौन ऋषि है,
कौन मुनि है, कौन परमहंस है, कौन ज्ञानी है! और झगड़ते भी हैं इस बात पर कि फलां आदमी तीर्थंकर है,
और फलां आदमी भगवान का अवतार है, फलां आदमी
ईश्वर का पुत्र है। और अगर कोई इनकार कर दे तो यह झगड़े की बात है! कैसे आप पता लगा
लेते हैं, किसने आपको बताया?
मेरे एक मित्र थे। एक छोटे-मोटे महात्मा थे वे भी। ऐसे महात्मा
हमारे यहां होते ही हैं। वे एक गांव में चंदा मांगने गए थे। मैं भी उस गांव में
था। उन्होंने चंदा दिनभर मांगा,
वे कोई पंद्रह-बीस रुपए मुश्किल से इकट्ठा कर पाए। वे मुझसे बोले कि
इससे ज्यादा तो कुछ होता नहीं। मैंने कहा, आप बिलकुल गलत ढंग
से चंदा वसूल करते हैं--आपको कौन चंदा देगा? पहले ऋषि-मुनि
हो जाइए, फिर चंदा मिल सकता है।
मैंने उनसे कहा,
दस-पंद्रह लोगों को पहले कहिए कि एक महात्मा जी आए हुए हैं। सारे
गांव में खबर करिए कि महात्मा जी आए हैं। फिर दस-पच्चीस लोग आपके साथ जाएं कि
महात्मा जी आए हैं, फिर चंदा हो सकता है।
उनको बात समझ में आ गई। उनके दस-पंद्रह लोगों ने गांव में
प्रचार किया कि एक बहुत बड़े महात्मा आए हुए हैं। जिन दुकानों पर उनको चार आने
बामुश्किल से दुकानदार ने दिए थे,
इसलिए ताकि ये यहां से हटें, उसी दुकान पर
उनको बहुत रुपए भी मिले, उसने पैर भी छुए, उनके गले में माला भी डाली! वे तो...उन्होंने दो-चार-आठ दिन में वहां
सैकड़ों रुपए इकट्ठे किए।
तो मैंने उनसे कहा,
आदमी को रुपए नहीं मिलते, ऋषि-मुनि को मिलते
हैं। और ऋषि-मुनि प्रपोगेंडा के बिना तैयार नहीं होता, उसको
तैयार करना पड़ता है। उसकी हवा फैलानी पड़ती है, उसका प्रचार
करना पड़ता है, उसको बताना पड़ता है कि ये महात्मा हैं,
परम-ज्ञानी हैं; यह है, वह
है। और जैसे लक्स टायलेट को बनाना पड़ता है, वैसे उसको बनाना
पड़ता है।
प्रचार के इस खेल को,
इस जाल को--समझदार आदमी को अपने चित्त से तोड़ देना चाहिए।
असंभव क्रांति
ओशो
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