क्या सत्य को सदा ही गलत समझा गया है? मैं डरता हूं कि शायद जनमानस आपकी आमूल क्रांति को पचा नहीं सकेगा। आप क्या करने की सोच रहे हैं?
यह देख कर कि तुम्हारे भीतर बहुत भय है, मैंने तुम्हें नाम
दिया--अभयानंद। अचेतन तुम्हारा भय की पर्तों से भरा हुआ है। तुम अपने ही भय को
प्रक्षेपित कर रहे हो। और तब बजाए आनंदित होने के तुम मेरे पास बैठ कर भी चिंतित
हो जाओगे। ये सारी चिंताएं तुम्हें पकड़ लेंगी कि आपको लोग गलत क्यों समझते हैं!
क्या फिक्र? तुमने समझा, उतना बहुत।
तुम्हारे भीतर का दीया जला, उतना तुम्हारे मार्ग की रोशनी के
लिए काफी है।
लोगों को आजादी है;
जिसे जलाना हो अपना दीया जलाए, जिसे न जलाना
हो न जलाए। यह उनकी वैयक्तिक स्वतंत्रता है। सत्य किसी पर थोपा तो नहीं जा सकता।
सत्य किसी को जबरदस्ती तो दिया नहीं जा सकता। और जो भी जबरदस्ती दिया जाएगा वह असत्य
हो जाता है। जो भी थोपा जाएगा वह जंजीर बन जाता है। और सत्य का तो अर्थ है--वह,
जो सब जंजीरों को तोड़ दे, सब बेड़ियों को तोड़
दे; जो तुम्हें समस्त कारागृहों के बाहर ले आए। सत्य तो वह
है जो तुम्हें पंख दे; पंखों को काट न दे।
और लोग अपनी बेड़ियों में बंधे हैं, अपनी जंजीरों में बंधे हैं।
और उन्होंने जंजीरों को खूब सजा लिया है। उन्होंने जंजीरों पर सोने की पर्त चढ़ा ली
है, हीरे-जवाहरात मढ़ लिए हैं। अब वे जंजीरें नहीं मालूम
होतीं; अब तो लगता है वे आभूषण हैं, बहुमूल्य
आभूषण हैं। कारागृह की दीवारों को उन्होंने रंग लिया है, तस्वीरें
टांग दी हैं। और कारागृह को अपना घर समझ लिया है। परतंत्रता उन्हें सुरक्षा मालूम
होती है। इसलिए वे कैसे मुझे समझें? उनके न्यस्त स्वार्थों
के विपरीत मेरी बात जा रही है। जिसे वे आभूषण कहते हैं, मैं
कहता हूं जंजीर है, तोड़ो। मेरी मानें तो जीवन भर जिसको आभूषण
की तरह ढोया है, उसे तोड़ना पड़ेगा। यह बात अखरती है, अहंकार को चोट करती है, कि मैं क्या इतना मूढ़ हूं कि
जीवन भर जंजीरों को आभूषण समझता रहा! मैं क्या पागल हूं कि थोथे शब्दों को सत्य
मानता रहा! विश्वासों के आधार पर मैंने अपने जीवन को अब तक चलाया!
और विश्वास यूं हैं जैसे कागज की नाव। डूबेंगे ही। विश्वास का
अर्थ ही है: अज्ञान। किसी विश्वास को अंधविश्वास मत कहना, क्योंकि सभी विश्वास
अंधविश्वास होते हैं। अंधविश्वास शब्द खतरनाक है; उससे यह
भ्रांति पैदा होती है कि कुछ विश्वास विश्वास होते हैं और कुछ विश्वास अंधविश्वास
होते हैं। ऐसा नहीं है। विश्वास मात्र अंधा होता है। असल में अंधे को ही विश्वास
की जरूरत होती है। आंख वाला प्रकाश को देखता है; प्रकाश में
विश्वास थोड़े ही करता है! अंधा प्रकाश में विश्वास करता है। बहरा संगीत में
विश्वास करता है। जिसने कभी प्रेम को नहीं जाना, वह प्रेम
में विश्वास करता है। और जिसकी कोई मुलाकात जीवन से नहीं हुई, वह परमात्मा में विश्वास करता है।
विश्वास अर्थात झूठ। और विश्वासों से घिरे हुए लोग समझें तो
कैसे समझें मेरी बात को? इतना बड़ा त्याग करने की छाती नहीं है। घर छोड़ सकते हैं, परिवार छोड़ सकते हैं, पत्नी छोड़ सकते हैं, दुकान छोड़ सकते हैं; वे सब छोटी बातें हैं, दो कौड़ी की बातें हैं। लेकिन जब विश्वास छोड़ने का सवाल उठता है--हिंदू
विश्वास, जैन विश्वास, ईसाई
विश्वास--तब प्राणों पर बन आती है। यूं लगता है कि जैसे कोई गला घोंटने लगा। यूं
लगता है कि जैसे किसी ने आग में फेंक दिया। इन्हीं विश्वासों ने तो भरोसा दिया था
कि हम ज्ञानी हैं। इन्हीं विश्वासों ने तो सहारा दिया था। ये ही तो लंगड़े-लूलों की
बैसाखियां थे। और इनको ही कोई छीनने लगा!
अभयानंद, लोग गलत न समझें, यह कैसे हो सकता है? लोग तो गलत ही समझेंगे। उनका गलत समझना बताता है कि मैं जो कह रहा हूं वह
सत्य है। लोग अगर मेरी बात को बिलकुल स्वीकार कर लें, अगर
भीड़ मेरी बात को स्वीकार कर ले, तो एक ही बात सिद्ध होगी
उससे कि मेरी बात में सत्य नहीं होगा। भीड़ हमेशा असत्य के साथ होगी। सत्य के साथ
तो कुछ इने-गिने लोग, कुछ हिम्मतवर लोग, कुछ दुस्साहसी लोग, बस केवल थोड़े-से ही लोग सत्य के
साथ हो सकते हैं।
सहज आशिकी नाही
ओशो
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