निरंजन! नास्तिक से खतरा है, ऐसा लोग सोचते रहे हैं। लेकिन मैं तुमसे कहता
हूं, नास्तिक से धर्म के लिए कोई खतरा नहीं है। नास्तिक तो
वस्तुतः धर्म की तलाश में लगा है। नास्तिक तो इतना ही कह रहा है कि अभी मैंने देखा
नहीं, जाना नहीं, तो मानूं कैसे?
नास्तिक तो सिर्फ अपनी ईमानदारी जाहिर कर रहा है। इसलिए
सदियों-सदियों में जो तुमसे कहा गया है कि नास्तिक से धर्म को खतरा है, वह गलत बात है।
खतरा झूठे आस्तिक से है। सच्चा नास्तिक तो आज नहीं कल सच्चा
आस्तिक हो जाएगा, क्योंकि सचाई हमेशा सचाई में ले जाती है। एक सत्य दूसरे सत्य के लिए साधन
बन जाता है, उपकरण बन जाता है। अगर तुम्हारी "नहीं'
सच्ची है, ईमान से भरी है, तो आज नहीं कल तुम्हारी "हां' भी आएगी--और इतने
ही ईमान से भरी हुई "हां' आएगी।
लेकिन एक दुर्घटना घट गई है, लोग झूठे आस्तिक हो गए हैं। उन्होंने नहीं तो
कही ही नहीं, और हां कह दिया है। उनकी हां नपुंसक है। उनकी
हां में कोई बल नहीं है। उनकी हां में किसी प्रकार का सत्य नहीं है। भय है--सत्य
नहीं। समाज ने उन्हें डरवा दिया है। नर्क से वे कंप रहे हैं। स्वर्ग का लोभ है। भय
है, लोभ है; लेकिन खोज नहीं है। उनकी
आस्तिकता केवल संस्कार मात्र है। चूंकि मां-बाप, पंडित-पुरोहित,
समाज-परिवार एक खास तरह की धारणा में आबद्ध थे, वही धारणा उनके ऊपर भी आरोपित कर दी गई है।
किसी को बचपन से मंदिर ले जाओगे...। छोटे बच्चे पहले मंदिर की
मूर्तियों के सामने झुकने से इनकार करते हैं। लेकिन तुम झुकाए ही चले जाते हो। तुम
कहते हो, यह
धार्मिक शिक्षण है। तुम उन्हें प्रार्थना सिखाए चले जाते हो। जैसे तोतों को कोई
राम-राम सिखा दे, ऐसे तुम इन बच्चों को तोते बना देते हो।
फिर ये भूल ही जाएंगे कि इन्होंने जो राम-राम कहना सीखा था, वह
सिर्फ तोता-रटंत था। पचास साल बाद इन्हें याद भी न आएगा। आदमी की स्मृति बड़ी कमजोर
है। पचास साल बाद ये राम-राम ऐसे जपेंगे, जैसे इन्हें राम का
पता हो। और इन्हें पता बिलकुल नहीं है। इनके आधार में ही पता नहीं है। बच्चों को
तुम जबरदस्ती मंदिर की मूर्ति के सामने झुका देते हो, बाद
में झुकना उनकी आदत हो जाएगी।
रूस के एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक, पावलोव ने एक सिद्धांत का आविष्कार किया,
जिसको वह कंडीशंड रिफ्लेक्स कहता है--संस्कार के द्वारा क्रियमान
होना। वह एक छोटा सा प्रयोग करता था, जिसने उसको इस सिद्धांत
की सूझ दी। वह अपने कुत्ते को एक दिन रोटी खिला रहा था। दुनिया के बहुत से
आविष्कार आकस्मिक रूप से होते हैं, यह भी आकस्मिक रूप से
हुआ। रोटी उसने कुत्ते के सामने रखी कि कुत्ते की जीभ लटकी और जीभ से लार टपकने
लगी। अचानक एक खयाल कौंध गया पावलोव के मन में कि रोटी को देख कर लार का टपकना तो
ठीक है, लेकिन क्या किसी ऐसी चीज से भी लार टपकाई जा सकती है,
जिससे लार का कोई संबंध न हो?
उसने एक उपाय किया। वह जब भी रोटी कुत्ते को देता, घंटी बजाता। वह घंटी बजाता
रहता; कुत्ते की लार टपकती रहती। कुत्ता रोटी खाता, वह घंटी बजाता। पंद्रह दिन नियम से उसने यह किया। सोलहवें दिन रोटी नहीं
दी, सिर्फ लाकर घंटी बजाई, और लार
टपकने लगी।
अब घंटी से लार के टपकने का कोई भी संबंध नहीं है। रोटी देख कर
लार टपकती है, यह
तो समझ में आता है। भूखा होगा कुत्ता, रोटी की वास उसके
नासापुटों में भर रही होगी। रोटी इतने पास है; अब मिली,
अब मिली--इस आतुरता में लार टपक आती होगी। तुम भी नीबू के संबंध में
विचार करो, तो मुंह में लार सरकने लगती है। नीबू शब्द लार ले
आता है। अब नीबू शब्द में तो कोई लार लाने की क्षमता नहीं है। लेकिन बस घंटी बजी!
पावलोव ने घंटी बजाई,
कुत्ते ने लार टपकाई। इस प्रयोग को उसने बहुत तरह से दोहराया और
अंततः इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि हम किन्हीं भी चीजों को जोड़ दे सकते हैं।
अगर एक बच्चे को रोज मंदिर ले जाओ और मंदिर की प्रतिमा के सामने
झुकाओ; आज झुकने
में इनकार करेगा, कल थोड़ा झुकेगा, परसों
थोड़ा और झुकेगा, पिता को भी झुकते देखेगा, गांव के गणमान्य लोगों को भी झुकते देखेगा; भाव से
झुकते देखेगा; खुद भी अनुकरण करने लगेगा, खुद भी झुकने लगेगा।
लोग मानते हैं ईश्वर में,
इसलिए बच्चे भी मान लेंगे। इसलिए मुसलमान का बच्चा मुसलमान हो
जाएगा। मस्जिद के सामने जाकर उसको सम्मान पैदा होगा; मंदिर
के सामने नहीं। यह पावलोव का सिद्धांत ही है। हिंदू के बच्चे को हिंदू मंदिर के
सामने बड़ा समादर पैदा होता है। यह समादर झूठा है। जैन को महावीर की प्रतिमा देख कर
एकदम झुकने का भाव पैदा होता है। यह भाव बिलकुल झूठा है।
निरंजन, इन झूठे आस्तिकों से धर्म को खतरा है। इन्हीं झूठे आस्तिकों ने धर्म को
बरबाद किया है। और यही झूठे आस्तिक धर्म को बरबाद करने में संलग्न हैं। ये ही चर्च
में हैं, ये ही मंदिर में, ये ही
गुरुद्वारा में, ये ही गिरजे में--सब जगह तुम इनको पाओगे।
सारी पृथ्वी इनसे भरी है।
मृत्योर्मा अमृतं गमय
ओशो
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