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Saturday, October 14, 2017

नीति और धर्म में क्या भेद है?

नीति है थोथा धर्म और धर्म है सच्ची नीति। नीति है नकारात्मक, धर्म है विधायक। नीति कहती है, यह न करो, यह न करो,यह न करो; धर्म कहता है, यह करो, यह करो, यह करो। नीति भयभीत आदमी को पकड़ लेती है, धर्म निर्भय आदमी को उपलब्ध होता है। नीति सुरक्षा का उपाय है, धर्म असुरक्षा में अन्वेषण है। नीति कहती है, बागुड़ उठाओ ताकि तुम्हारी गुलाब की बाड़ियों की कोई जानवर न चर जाएं। नीति बागुड़ ही उठाती रहती है। और बागुड़ उठाने मग इतनी संलग्न हो जाती है कि याद ही नहीं रहता कि गुलाब के फूल अभी बोए कहां? धर्म गुलाब के फूल बोता है। धर्म गुलाब की खेती करता है।

नीति के साथ जरूरी नहीं है कि धर्म हो, लेकिन धर्म के साथ जरूरी ही नीति होती है--क्योंकि जिसके पास गुलाब के फूल हैं, वह बागुड़ तो लगाएगा। जिसे गुलाब के फूल उपलब्ध रहे हैं, वह उनकी सुरक्षा तो करेगा। लेकिन जो बागुड़ गलाने में ही व्यस्त हो गया है, उसे याद भी कैसे आएगी गुलाब के फूलों की; गुलाब के फूलों से उसका कोई संबंध ही नहीं है। 

नीति है बहिर्आरोपण और धर्म है अंतरर्जारण। नीति ऐसे है जैसे अंधे आदमी के हाथ की लकड़ी--टटोल-टटोलकर रास्ता खोजती है। धर्म ऐसा है--खुली आंख वाला आदमी जिसके हाथ में दीया है। उसे टटोलना नहीं पड़ता, पूछना नहीं पड़ता, उसे रास्ता दिखायी पड़ता है।

नीति मिलती है समाज से, धर्म मिलता है, परमात्मा से। नीति सामाजिक सिखावन है। इसलिए दुनिया में जितने समाज हैं उतनी नीतियां हैं। जो तुम्हारे लिए नीति है, वही तुम्हारे पड़ोसी के लिए अनीति हो सकती है। जो हिंदू के लिए नीति हैं, वही मुसलमान के लिए अनीति हो सकती है। जो ईसाई के लिए नीति है, वही यहूदी के लिए अनीति हो सकती है। लेकिन धर्म एक है, नीतियां अनेक हैं क्योंकि समाज अनेक हैं लेकिन मनुष्य की अंतरात्मा एक है। धर्म तो एक है, धर्म भिन्न नहीं हो सकता, धर्म के भिन्न होने का कोई उपाय नहीं है। धर्म का स्वाद एक है। बुद्ध ने कहा है, जैसे सागर को तुम कहीं से भी चखो उसका स्वाद एक है--नमकीन, खारा--वैसे ही धर्म को तुम कहीं से भी चखो, किसी घाट से, उसका स्वाद एक है।

लेकिन अक्सर नीति और धर्म के बीच भ्रांति हो जाती है। इसलिए तुम्हारा प्रश्न सार्थक है। क्योंकि नीति धर्म-जैसी मालूम होती है। कागज के फूल भी गुलाब के फूल जैसे मालूम होते हैं। दूर से देखो तो धोखा हो सकता है। और अगर गुलाब के फूलों के ही जैसा गुलाब का इत्र कागज के फूलों पर भी छिड़का हो, तो शायद पास आकर भी धोखा हो जाए। और यह भी हो सकता है कि कागज के फूल इतनी कुशलता से बनाए जाएं कि उनके सामने गुलाब के फूल भी असली न मालूम पड़े। कभी-कभी नकली असली से ज्यादा असली मालूम होता है। नकल करने की कुशलता पर निर्भर होता है।


दरिया कहे शब्द निरवाना 

ओशो

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