मैंने सुना है। कि मुल्ला नसरुद्दीन एक दफ्तर में नौकर था। बूढ़ा
आदमी, सत्तर साल,
उम्र! लेकिन पुराना नौकर, इसलिए दफ्तर ने उसे
जारी रखा। बहुत लोग थे दफ्तर में काम करने वाले। पुरुष थे, स्त्रियां
थीं। और स्त्रियों के संबंध में पुरुषों में अक्सर मजाक चलता रहता है।
एक सुंदरतम स्त्री थी दफ्तर में। सावन का महीना आया, तो उसने मुल्ला नसरुद्दीन
को कहा कि मुल्ला साहब! यहां और तो कोई दिखाई नहीं पड़ता, जिसे
मैं राखी बांधूं। और मेरा कोई भाई नहीं है। बस, आप ही एक सरल
मूर्ति दिखाई पड़ते हैं। तो परसों राखी का त्योहार आता है। मैं आपको राखी बांधूंगी।
लेकिन ध्यान रहे, इक्कीस रुपये और साड़ी आपको देनी पड़ेगी।
नसरुद्दीन थोड़ा चिंतित हुआ। माथे पर चिंता की रेखा आई। तो शायद
उस स्त्री ने सोचा, कि इक्कीस रुपया और साड़ी महंगी मालूम पड़ती है। तो उसने कहा कि नहीं नहीं,
उसकी फिक्र मत करिये। वह तो मैं मजाक कर रही थी। नसरुद्दीन ने कहा,
सवाल नहीं है आप गलत समझीं। इक्कीस की जगह बयालीस रुपये ले लेना। एक
साड़ी की जगह दो साड़ी ले लेना, लेकिन कम से कम रिश्ता तो मत बिगाड़ो!
भीतर मन है। उसके अपने राग हैं, अपने रंग हैं। दूसरे को तो दिखाई नहीं पड़ते,
तुम्हीं को दिखाई पड़ते हैं। तुम्हारा मन दूसरों को दिखाई कैसे पड़
सकता है? तुम किस दुनिया में रहते हो वह किसी को भी पता नहीं
चलता। तुम थोड़े से भरो, तो तुम्हें को पता चलना शुरू होगा।
और तुम्हारा मन सारी चीजों को रंग डालता है। किसी को तुम कहते
हो मेरा, अपना।
किसी को कहते हो पराया। किसी को मित्र, किसी को शत्रु। कौन
है मित्र? कौन है शत्रु? जो तुम्हारे
वासनाओं के अनुकूल पड़ जाए, वह मित्र। जो तुम्हारी वासनाओं के
प्रतिकूल पड़ जाए, वह शत्रु। कोई अच्छा लगता है, कोई बुरा लगता है। किसी के तुम पास होना चाहते हो। किसी से तुम दूर होना
चाहते हो। यह सब तुम्हारे मन का ही खुल है।
चेखोव रूस का एक बहुत बड़ा लेखक हुआ। उसने अपने संस्मरणों के
आधार पर एक कहानी लिखी। उसके मित्र का लड़का कोई दस साल पहले घर से भाग गया। मित्र
धनी था। लेकिन जैसे अक्सर धनी होते हैं,
महा-कृपण था। और लड़के को बाप के साथ रास न पड़ी। तो लड़का घर छोड़ कर
भाग गया। एक ही लड़का था। जब भागा था तब तो बाप में अकड़ थीं, लेकिन
धीरे-धीरे अकड़ कम हुई। मौत करीब आने लगी। दस साल बीत गये। लड़के के लौटने के कोई
आसार न मालूम पड़े।
खोजने वाले भेजे। थोड़ा झुका बाप। क्योंकि वही तो मालिक है सारी
संपदा का। और मौत कभी भी घट सकती है। कोई पता न चलता था लेकिन एक दिन एक पत्र आया, कि लड़का बहुत मुसीबत में है
और पास के ही शहर में है। पिता को बुलाया है। और कहा है, कि
अगर आप आ जाएं तो मैं घर लौट आऊंगा। अपने से मेरी आने की हिम्मत नहीं होती। शघमदा
मालूम पड़ता हूं। अपराधी लगता हूं।
तो बाप गया शहर। एक शानदार होटल में ठहरा। लेकिन रात उसने पाया, कि होटल के कमरे के बाहर
कोई खांसता, खंखारता...तो दरवाजा खोलकर उस आदमी से कहा कि हट
जाओ यहां से। सोने दोगे या नहीं? लेकिन रात सर्द। और बर्फ पड़
रही है। और वह आदमी जाने को राजी नहीं है। तो उसने धक्के देकर उसे बरामदे के बाहर
कर दिया। फिर जाकर वह आराम से सो गया।
सुबह होटल के बाहर मैदान में भीड़ लगी पाई। कोई मर गया है। तो वह
भी गया देखने। कपड़े तो वही मालूम पड़ते हैं,
जिस आदमी को रात उसने बरामदे के निकाल दिया था। भीड़ में पास जाकर
देखा, तो चेहरा पहचाना हुआ मालूम पड़ा। यह तो उसका लड़का है!
अपने ही लड़के को रात उसने बाहर निकाल लिया। मन को पता न हो कि
वह अपना है, तो
अपना नहीं है। मन को पता हो कि अपना है, तो अपना है। सारा
खेल मन का है। क्षण भर पहले कोई मतलब न था। यह आदमी मरा पड़ा था। भीड़ लग गयी थी।
लेकिन क्षण भर बाद अब बाप छाती पीट कर रो रहा है कि मेरा लड़का मर गया है। और अब यह
पीड़ा जीवन भर रहेगी क्योंकि मैंने ही मारा।
खेल सारा मन का है। और अभी सिद्ध हो जाए, कोई दूसरा आदमी आ जाए और
कहे कि यह लड़का मेरा है, तुम्हारा नहीं। तुम भूल में पड़ गए।
आंसू सूख जाएंगे। प्रफुल्लता वापिस लौट आएगी। क्षण भर में सब बदल जाता है। मन का
भाव बदला कि सब बदला।
कहे कबीर दीवाना
ओशो
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