मैं अभी गया;
जहा मैं ठहरा राजस्थान में, वहा के डिप्टी
कलेक्टर आये। वे मुझसे बोले, ' अकेले में मुझे बात करनी है। '
अकेले में मैंने उनको मिलने को वक्त दिया। मुझसे बोले, 'मैं यह पूछना चाहता हूं कि आपके जैसे ही वस्त्र पहनने से कुछ होगा?'
तो हम इस पर हंसते हैं। हम कहेंगे, 'कैसी
बचपने की बात है! वस्त्र पहनने से क्या होगा?' लेकिन सारे
संन्यासियों को आप पूज रहे हैं। क्यों पूज रहे हैं आप? इस पर
हमें हंसी आती है कि यह डिप्टी कलेक्टर है कैसा नासमझ! मैंने उनसे कहा, 'वस्त्र से क्या वास्ता है? अगर बदलने का भी खयाल आया,
तो कुछ वस्त्र बदलने का खयाल आया!'
और थोड़ा खयाल आयेगा,
तो इस वक्त खायें कि न खायें, कि इस समय खायें
कि न खायें, कितना खायें कि क्या खायें? यह खयाल आयेगा। ये भी वस्त्र ही हैं। ये कोई बहुत गहरे में आपके प्राण
नहीं बदल देंगे। इनसे कोई आपकी आत्मा परिवर्तित नहीं हो जायेगी कि आपने सांझ को
खाया कि रात को खाया। इससे कोई आत्मा नहीं बदल जायेगी आपकी। यह ' अच्छा', 'बुरा' बहुत सामान्य
तल पर, वस्त्र बदलने जैसा है। आप सुबह कब उठे—पांच बजे उठे कि सात बजे; कि आपने रोज स्नान किया कि
नहीं किया—ये सारे के सारे वस्त्र हैं, और इनसे कोई आपके प्राण नहीं बदलते हैं। प्राण बदलना बड़ी वैज्ञानिक साधना
की बात है। और उसको बदलने के लिए इन छोटी बातों में पड़ने का कोई सवाल नहीं है। उस
तरफ जो उत्सुक हैं, उनको इनसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि क्या
वस्त्र हैं और क्या नहीं हैं। ये बहुत गौण और बच्चों जैसी बातें हैं।
लेकिन, जिसको हम कहें ईडिऑटिक माइंड, जड़ बुद्धि उसका एक
लक्षण होता है : अनुकरण। बंदरों में देखा होगा। एक बंदर जो करेगा, दूसरा बंदर भी उसका अनुकरण करेगा। हम सब मनुष्यों में भी इमीटेट, नकल करने वाला मन है, जो अनुकरण करना चाहता है। एक
आदमी ने ऐसा कपड़ा पहना, दूसरा आदमी भी वैसा पहन लेगा। विनोबा
के साथ जायें, तो दस—पच्चीस विनोबा
दिखाई पड़ते हैं! इनसे पूछो कि 'इनको क्या हो गया?' उन्होंने देखा कि विनोबा दाढ़ी बढ़ाते हैं, विनोबा ऐसा
रहते हैं। विनोबा ऐसा कपड़ा बांधते हैं, तो वे भी वैसे ही
बांधे हुए खड़े हैं, इस भ्रम में कि ऐसा करने से विनोबा हो
जायेंगे! ऐसा करने से जो विनोबा के भीतर घटित हुआ है, इनके
भीतर घटित हो जायेगा! यह इन्होंने काम किया है इमीटेशन का। यही आंतरिक भाव इनके
जीवन में कभी नहीं हो सकता। यानी यह इतनी अबुद्धि की सूचना हो गयी शुरू से ही! यह
शुरू से ही जो मांइड है, यह मूर्खतापूर्ण हो गया। अब इससे
कोई आशा नहीं रही। अगर विनोबा को थोड़ा खयाल हो, तो इन सबको
विदा करना चाहिए। इनकी यहां कोई जरूरत नहीं है।
मेरे पास लोग पहुंच जाते हैं। वे मेरे पास रहेंगे, तो मेरी जैसी दाढ़ी बना
लेंगे; यह करेंगे। मैं उनको कहूंगा, तुम
जाओ, तुम्हारी यहां कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि जिस माइंड को
मैं मूर्खतापूर्ण कह रहा हूं? उसी को लेकर तुम यहां आये हुए
हो, तो उसका कोई मतलब नहीं है। यह जो अनुकरण करने वाला,
किसी दूसरे के ढंग को करने वाला यह जो मन है, यह
बहुत निम्न कोटि का मन है। मगर यह मन बड़ा सफल हो जाता है। इसमें एक खूबी होती है।
जितना मूड आदमी हो, उतना किसी भी काम को सख्ती के साथ कर
सकता है। जितना विचारशील आदमी हो, उतना कठिन हो जाता है।
विचारशील आदमी में लिक्यिडिटि होती है, लोच होता है।
मूढ़ आदमी में लोच नहीं होता है। उसने तय कर लिया कि जीवन भर
विवाह नहीं करेंगे, तो वह जीवन भर विवाह नहीं करेगा, चाहे कुछ भी हो
जाये! चाहे उसके चित्त में कितने कष्ट आयें, परेशानियां आयें,
वह डटा ही रहेगा। हम कहेंगे, 'कैसा संकल्पवान
है!' विचारवान सोचेगा, कि यह संकल्प
योग्य भी है या नहीं। बहुत विचारवान आदमी कल के लिए संकल्प ही नहीं करता, आज में जीता है। क्योंकि कल मेरे पास विवेक रहेगा; जो
ठीक लगेगा, वह करूंगा।
चल हंसा उस देश
ओशो
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