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Monday, October 23, 2017

धन का सृजन



हिंदुस्तान पांच हजार साल से दरिद्र है, और दरिद्र होने का सबसे बड़ा कारण यह है कि हमने धन का सम्मान नहीं किया है। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति धन का सम्मान करेगा। धन का मोह नहीं कह रहा हूं, सम्मान कह रहा हूं। अगर आपको स्वस्थ रहना है, तो खून का सम्मान करना पड़ेगा। खून चलेगा शरीर में, तभी आप स्वस्थ रहेंगे और अगर आपने कहा कि हम तो खून को इनकार करते हैं, हम खून को मानते ही नहीं, तो फिर पीलिया पकड़ लेगा और बीमार हो जाएंगे और सब समाप्त हो जाएगा

धन समाज की नसों में दौड़ता हुआ खून है। जितना खून समाज की नसों में दौड़ता है, उतना समाज स्वस्थ होता है। धन खून है। और इसलिए अगर कोई खून हाथ में रोक ले बांध कर, तो बीमार पड़ जाएगा, क्योंकि खून अगर रुकता है तो गति बंद हो जाती है। इसलिए जो लोग धन को तिजोरियों में रोकते हैं, वे समाज की खून की गति में बाधा डालते हैं। खून की गति रुक जाती है, समाज बीमार पड़ जाता है। लेकिन जितना अतिरिक्त खून हो, उतना जरूरी है। जितना अतिरिक्त धन हो, उतना जरूरी है। लेकिन गांधीजी का विचार यह कहता है, धन? नहीं, धन की कोई जरूरत नहीं है। वे तो असल में उन लोगों से प्रभावित हैं--टालस्टाय जैसे लोगों से--जो कहते हैं, मुद्रा समाप्त कर देनी चाहिए। जो कहते हैं, रुपया होना नहीं चाहिए। वे चाहते तो अंत में यह हैं कि एक बार्टर सिस्टम, जैसा पुराना था दुनिया में लेन-देन का, मैं आपको गेहूं दे दूं, आप एक बकरी दे दें। मैं एक मुर्गा दे दूं, आप मुझे एक जूते की जोड़ी दे दें। वे तो चाहते हैं कि अंततः समाज ऐसा हो जहां चीजों का लेन-देन हो। 

लेकिन ध्यान रहे, चीजों का लेन-देन करने वाला समाज कभी भी सुखी और संपन्न नहीं हो सका है। यह तो लेन-देन इतना उपद्रवपूर्ण है कि मुझे जूता चाहिए, आपकी बकरी बेचनी है; और आपको जूता नहीं चाहिए, आपको गेहूं चाहिए। अब यह गेहूं वाले आदमी को हम खोजने जाते हैं, जो उसे गेहूं दे सकेगा। लेकिन उसे जूता नहीं चाहिए, आपको गेहूं चाहिए। अब यह गेहूं वाले आदमी को हम खोजने जाते हैं, जो उसे गेहूं दे सकेगा। लेकिन उसे न जूता चाहिए, न बकरी चाहिए, उसे मुर्गी चाहिए। अब हम एक आदमी को खोजने जाते हैं जो मुर्गी बेचे। रुपये ने यह व्यवस्था कर दी है कि किसी को कुछ भी चाहिए हो, रुपया माध्यम बन जाता है। कोई फिक्र नहीं, आपको जूता चाहिए, मुझे मुर्गी चाहिए, रुपये से काम हो जाएगा। 

रुपया बहुत अदभुत चीज है। अगर मेरे खीसे में एक रुपया नहीं पड़ा है, तेरे खीसे में एक ही साथ करोड़ों चीजें पड़ी हैं। वैकल्पिक संभावनाएं पड़ी हैं। अगर मैं चाहूं तो एक रुपये में खाना ले लूं, मेरे खीसे में खाना पड़ा है। अगर मैं चाहूं तो जूता खरीद लूं; मेरे खीसे में जूता पड़ा है। अगर मैं चाहूं तो एक मोची खरीद लूं; मेरे खीसे में मोची पड़ा है। अगर मैं चाहूं तो दवा ले लूं; मेरे खीसे में दवा पड़ी हुई है। रुपये ने इतना अदभुत काम किया है। लेकिन गांधी जैसे विचारक रुपया और मुद्रा के विरोध में हैं। अगर रुपया दुनिया से हट जाए, तो आदमी वहां पहुंच जाएगा, जहां जंगली आदमी हैं, आज भी आदिवासी हैं। उसको तेल चाहिए तब बेचारा गेहूं लाकर देगा, तब तेल देगा। गेहूं लाकर देगा, तो नमक ले पाएगा! लेकिन वैसी दुनिया में...!

रुपया जो है वह गति है, वह स्पीड है जिंदगी में चलने की। अगर थिर बनाना हो समाज को, जड़ बनाना हो तो रुपया हटा दो। लेकिन इस मुल्क में रुपये का बहुत पुराना...। हम धन के दुश्मन हैं इसलिए हम दरिद्र हैं। हम धन के ऐसे दुश्मन हैं, जिसका कोई हिसाब नहीं। हम कहते हैं, धन की कोई जरूरत ही नहीं है। हम कहते हैं, जो धन छोड़ देता है, वह बड़ा संन्यासी है। हम कहते हैं, जो धन को मानता ही नहीं है, वह बड़ा त्यागी है। वह होगा बड़ा त्यागी, होगा बड़ा संन्यासी, लेकिन वह समाज के लिए खतरनाक है। क्योंकि समाज के भीतर चाहिए धन को पैदा करने की तीव्र व्यवस्था। समाज के भीतर चाहिए कि हम धन का सृजन कर सकें, तो हमारी साख चारों दिशाओं में फैल सकेगी। 

देख कबीरा रोया 

ओशो 

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