पूछा है श्री शुकदेव ने।
पहली तो बात: अभी अनुभूति घटी नहीं; कभी घटित हो। भविष्य को भी
हम पकड़ना चाहते हैं! भविष्य का अर्थ ही है, जो अभी हुआ नहीं;
उसको भी तिजोड़ी में बंद कर लेने का आयोजन करना चाहते हैं!
कृपणता की हद्द है;
अतीत को तो हम रखते ही है संजो कर; भविष्य की
भी चिंता करते हैं कि कैसे...! अगर कभी अनुभूति घटित हो, उसे
कैसे संजो कर रखा जाए!
तो पहले तो बात: अतीत में भी कुछ घटा हो, तो उसे भी संजो कर रखने की
जरूरत नहीं है। क्योंकि जो तुम संजो कर रखोगे, वही-वही बोझ
हो जायेगा।
स्मृति ज्ञान नहीं है। जो घट गया--भूल जाओ, विस्मरण करो; उसे ढोने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारी स्मृति अगर उससे बहुत आच्छादित
हो जाए, तो फिर दुबारा न घट सकेगा। फिर तुम्हारे दर्पण पर
बड़ी धूल जम जायेगी।
जो हुआ, उसे भूलो। जो हुआ, उसे जाने दो। जो हो गया--हो गया।
जो हो गया--चुक गया। संजो कर रखने की कोई भी जरूरत नहीं है।
लेकिन हमारी सांसारिक पकड़ें हैं; हर चीज को संजो कर रखते हैं, तो शायद सोचते हैं: कभी समाधि घटेगी, प्रभु का अनुभव
होगा, उसको भी सम्हाल कर रख लेंगे।
सम्हाल कर रखेगा कौन?
प्रभु का अनुभव जब होता है, तब तुम तो होते ही
नहीं; तुम तो बचोगे नहीं; कौन
सम्हालेगा? क्या सम्हालेगा?
प्रभु का अनुभव इतना बड़ा है; अनुभूति तुमसे बड़ी है--तुम न सम्हाल सकोगे;
तुम्हारी मुट्ठी में न समायेगी। और जो तुम्हारी मुट्ठी में समा जाए,
उसे तुम अनुभूति समझना मत।
तो पहले तो भविष्य को पकड़ने की चेष्टा ही व्यर्थ है। ऐसे
तुम्हारा मन व्यर्थ की चिंताओं में उलझ जाता है। हवाओं में महल खड़े मत करो।
दूसरे--यदि अनुभव हो भी जाए, तो उसे संजो कर रखने की कोई भी जरूरत नहीं है।
जो हो गया अनुभव--वह हो गया; उसे याद थोड़े ही रखना पड़ता है।
सम्हाल कर तो उसी को रखना पड़ता है, जो हुआ नहीं। समझने का
कोशिश करना।
जिसको तुमने जान लिया,
याद नहीं रखना पड़ता। जिसको तुमने नहीं जाना है, उसी को याद रखना पड़ता है। विद्यार्थी याद रखता है, क्योंकि
समझा तो कुछ भी नहीं है; जाना तो कुछ भी नहीं है। परीक्षा
देनी है, तो स्मरण रखता है। परीक्षा के बाद भूल-भाल जायेगा।
अगर तुम्हें ही अनुभव हुआ हो, तो सम्हलना नहीं पड़ता। क्या सम्हालोगे?
अनुभव हो गया, बात हो गई।
सच तो यह है कि अनुभव हो जाए, तो उसे भूलोगे कैसे! क्या उपाय है--जाने हुए को
अनजाना करने का? अगर अनुभव सच में हुआ है, तो अनुभव तुम्हारे श्वास-श्वास में समा गया; तुम्हारी
रंध्र-रंध्र में विराजमान हो गया। जो जान लिया--वह जान लिया। अब इसका कोई उपाय
नहीं है; जरूरत भी नहीं है कि इसे संजो कर रखो।
संजो कर तो उधार बातें रखनी पड़ती हैं, जो अपनी नहीं हैं; दूसरों ने जानी होगी; हम सिर्फ मानते हैं; उन्हें संजो कर रखना पड़ता है। दूसरों ने जानी होंगी, तो हमें याद रखनी पड़ती हैं। अपना जाना हुआ याद नहीं रखना पड़ता; अपना जाना हुआ, तो याद ही रहता है। बीच रात अंधेरे
में कोई कर पूछ ले, तो भी याद रहता है। भूल थोड़े ही जाओगे;
यह थोड़े ही कहोगे कि जरा समय दो, मैं याद कर
लूं!
अगर तुम्हें परमात्मा का अनुभव हो जाए, तो क्या तुम कहोगे कि जरा
समय दो, मुझे सोच-विचार कर लेने दो, तब
मैं बताऊं; हो गया अनुभव, तो तुम अनुभव
के साथ एकरूप हो गए।
नहीं; जीवन की परम घटनाएं संजो कर नहीं रखनी पड़ती। जीवन की परम घटनाएं इतनी
बहुमूल्य हैं, इतनी प्रगाढ़ हैं, इतनी
गहरी हैं कि तुम्हारे प्राण के गहरे से गहरे हिस्से तक प्रविष्ट कर जाती हैं।
तुम्हारी अनुभूति तुम्हारी सुगंध बन जाती है। और, संजो कर रखना ही मत कुछ।
ओशो
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