योगानंद, मैं तुम्हें नाम दिया हूं योगानंद का, उसमें ही सारा
राज है।
मनुष्य दो ढंग से जी सकता है। या तो अस्तित्व से अलग-थलग, या अस्तित्व के साथ एकरस।
अलग-थलग जो जीएगा, दुख में जीएगा--चिंता में, संताप में। यह स्वाभाविक है। क्योंकि अस्तित्व से भिन्न होकर जीने का अर्थ
है: जैसे कोई वृक्ष पृथ्वी से अपनी जड़ों को अलग कर ले और जीने की चेष्टा करे।
मुरझा जाएगा, पत्ते कुम्हला जाएंगे, फूल
खिलने बंद हो जाएंगे। वसंत तो आएगा, आता रहेगा, मगर वह वृक्ष कभी दुल्हन न बनेगा, दूल्हा न बनेगा।
उसके लिए वसंत नहीं आएगा। जिसकी जड़ें ही
पृथ्वी से उखड़ गई हों, उसके लिए मधुमास का क्या उपाय रहा! फिर कहां आनंद, कहां
मस्ती! फिर सुबह नहीं है, फिर तो अंधेरी रात है, अमावस की रात है--और ऐसी रात कि जिसकी कोई सुबह नहीं होती। इस तरह के जीवन
का नाम ही अहंकार है।
और जो वृक्ष पृथ्वी के साथ योग साध रहा है, पृथ्वी में जड़ें फैला रहा
है, आकाश में शाखाएं, बदलियों से बतकही,
चांदत्तारों से संबंध जोड़ रहा है, वह आनंदित न
होगा तो क्या होगा! हवाएं आएंगी तो नाचेगा, गुनगुनाएगा।
हवाएं गुजरेंगी तो गीत गाएंगी। पक्षी उस पर बसेरा करेंगे। सूर्य की किरणें उसके
फूलों पर अठखेलियां करेंगी। ऐसे जीवन का नाम ही संन्यास है।
संन्यास अर्थात निरहंकारिता। संसार अर्थात अहंकार। संसार अर्थात
मैं हूं अलग, भिन्न।
और जहां यह खयाल उठा कि मैं अलग हूं, भिन्न हूं, वहीं इसका स्वाभाविक तार्किक परिणाम यह होता है कि मुझे संघर्ष करना है,
लड़ना है, विजय-पताका फहरानी है। और छोटा-सा
आदमी, बूंद जैसा, सागर से लड़ने चल
पड़ेगा तो कितनी न चिंताओं से भर जाएगा? कितने न संताप उसे
घेर लेंगे? कितने भय और कितनी असुरक्षाएं? उसके चारों तरफ मेला भर जाएगा चिंताओं ही चिंताओं का।
हम अलग नहीं हैं,
इस सत्य को जानने की प्रक्रिया का नाम है: योग। योग अर्थात हम
इकट्ठे हैं, जुड़े हैं, संयुक्त हैं।
योग का अर्थ होता है: जोड़। जैसे ही व्यक्ति ने जाना कि मैं जुड़ा हूं, फिर न तो कोई जन्म है, न कोई मृत्यु है। जैसे ही
जाना कि मैं जुड़ा हूं अस्तित्व से, तत्क्षण हम शाश्वत हो गए।
अस्तित्व जब से है, हम हैं; और
अस्तित्व जब तक रहेगा, हम रहेंगे। और अस्तित्व तो सदा है।
ऐसा कभी न था कि न हो। ऐसा भी कभी न होगा कि न हो जाए। तो फिर जन्म और मृत्यु तो
छुद्र घटनाएं हैं। जीवन की प्रक्रिया जन्म और मृत्यु के पार है। देह आती है,
जाती है, बनती है, मिटती
है, हम नहीं।
लेकिन यह प्रतीति तभी संभव है जब अहंकार को हम बीच से हटा लें।
जैसे ही अहंकार आया कि दीवार आई। हम टूटे। अलग हुए। और जैसे ही अहंकार गया कि
दीवार हटी। सेतु बना। हम संयुक्त हुए। युक्त हुए। योग को उपलब्ध हुए।
योगानंद, तुम्हारे नाम में कुंजी छिपी है। योग ही आनंद है। और तब अमावस भी पूर्णिमा
हो जाती है। देर नहीं लगती, एक क्षण में हो जाती है।
लगन मुहूरत सब झूठ
ओशो
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