यह प्रश्न उन्होंने इतनी बार पूछा है कि मुझे
शक है, तुम्हें
अपनी मां से यौन-संबंध करना है कि अपनी बेटी से, किससे करना
है? यह प्रश्न इतनी बार तुम क्यों पूछ रहे हो? और यही प्रश्न हेतु है उन्हें पूना लाने का! तो जरूर यह मामला निजी होना
चाहिए, व्यक्तिगत होना चाहिए। किससे तुम्हें यौन-संबंध करना
है--मां से कि अपनी बेटी से? सीधी-सीधी बात क्यों नहीं पूछते
फिर? फिर इसको इतना तात्विक रंग-ढंग देने की क्यों कोशिश
करते हो? कम से कम ईमानदार अपने प्रश्नों में होना चाहिए।
मां-बेटे का संबंध या बेटे और मां का संबंध अवैज्ञानिक
है। उससे जो बच्चे पैदा होंगे,
वे अपंग होंगे, लंगड़े होंगे, लूले होंगे, बुद्धिहीन होंगे। इसका कोई धर्म से
संबंध नहीं है। यह सत्य दुनिया के लोगों को बहुत पहले पता चल चुका है। सदियों से पता
रहा है। विज्ञान तो अब इसको वैज्ञानिक रूप से सिद्ध कर सका। भाई-बहन का संबंध भी अवैज्ञानिक
है। इसका कोई नैतिकता से संबंध नहीं है। सीधी सी बात इतनी है कि भाई और बहन दोनों के
वीर्यकण इतने समान होते हैं कि उनमें तनाव नहीं होता, उनमें
खिंचाव नहीं होता। इसलिए उनसे जो व्यक्ति पैदा होगा, वह फु९ब०फुस
होगा; उसमें खिंचाव नहीं होगा, तनाव
नहीं होगा, उसमें ऊर्जा नहीं होगी। जितने दूर का नाता होगा,
उतना ही बच्चा सुंदर होगा, स्वस्थ होगा,
बलशाली होगा, मेधावी होगा। इसलिए फिक्र की
जाती रही कि भाई-बहन का विवाह न हो। दूर संबंध खोजे जाते रहे, जिनसे गोत्र का भी नाता न हो, तीन-चार-पांच पीढ़ियों
का भी नाता न हो। क्योंकि जितने दूर का नाता हो, उतना ही बच्चे
के भीतर मां और पिता के जो वीर्याणु और अंडे का मिलन होगा, उसमें दूरी होगी। दूरी होगी तो उस दूरी के कारण ही व्यक्तित्व में गरिमा
होती है।
जैसे बिजली पैदा करनी हो तो ऋण और धन, इन दो ध्रुवों के बीच ही
बिजली पैदा होती है। तुम एक ही तरह के ध्रुव--धन और धन, ऋण
और ऋण--इनके साथ बिजली पैदा करना चाहो, बिजली पैदा नहीं होगी।
बिजली पैदा करने के लिए ऋण और धन की दूरी चाहिए। व्यक्तित्व में उतनी ही बिजली होती
है, उतनी ही विद्युत होती है, जितना
वह दूर का हो।
इसलिए मैं इस पक्ष में हूं कि भारतीय को भारतीय
से विवाह नहीं करना चाहिए; जापानी से करे, चीनी से करे, तिब्बती से करे, ईरानी से करे, जर्मन से करे, भारतीय से न करे। क्योंकि जब दूर
ही करना है तो जितना दूर हो उतना अच्छा। और यह अब तो वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुकी
है बात। पशु-पक्षियों के लिए हम प्रयोग भी कर रहे हैं। लेकिन आदमी हमेशा पिछड़ा हुआ
होता है, क्योंकि उसकी जकड़ रूढ़िगत होती है। अगर हमको अच्छी
गाय की नस्ल पैदा करनी है तो हम बाहर से वीर्य-अणु बुलाते हैं; अंग्रेज सांड का वीर्य-अणु बुलाते हैं भारतीय गाय के लिए। और कभी नहीं सोचते
कि गऊमाता के साथ क्या कर रहे हो तुम यह! गऊमाता और अंग्रेज पिता, शर्म नहीं आती? लाज-संकोच नहीं?...मगर उतने ही स्वस्थ बच्चे पैदा होंगे। उतनी ही अच्छी नस्ल होगी।
इसलिए पशुओं की नस्लें सुधरती जा रही हैं, खासकर पश्चिम में तो पशुओं
की नस्लें बहुत सुधर गई हैं। कल्पनातीत! साठ-साठ लीटर दूध देने वाली गायें कभी दुनिया
में नहीं थीं। और उसका कुल कारण यह है कि दूर-दूर के वीर्याणु को मिलाते जाओ,
हर बार। आने वाले बच्चे और भी ज्यादा स्वस्थ, और भी ज्यादा स्वस्थ होते जाते हैं। कुत्तों की नस्लों में इतनी क्रांति
हो गई है कि जैसे कुत्ते कभी भी नहीं थे दुनिया में। रूस में फलों में क्रांति हो गई
है, क्योंकि फलों के साथ भी वे वही प्रयोग कर रहे हैं। आज
रूस के पास जैसे फल हैं, दुनिया में किसी के पास नहीं। उनके
फल बड़े हैं, ज्यादा रस भरे हैं, ज्यादा
पौशिटक हैं। और सारी तरकीब एक है: जितनी ज्यादा दूरी हो।
यह सीधा सा सत्य आदिम समाज को भी पता चल गया
था। मगर स्वामी शांतानंद सरस्वती को अभी तक पता नहीं है! और वे समझते हैं कि बड़े आधुनिक
आदमी हैं, रूढ़ियों
के बड़े विरोध में हैं! इसलिए भाई-बहन का विवाह निषिद्ध था। निषिद्ध रहना चाहिए। असल
में चचेरे भाई-बहनों से भी विवाह निषिद्ध होना चाहिए। मुसलमानों में होता है,
ठीक नहीं है। दक्षिण भारत में होता है, ठीक
नहीं है, अवैज्ञानिक है। और मां-बेटे का विवाह तो एकदम ही
मूढ़तापूर्ण है, एकदम अवैज्ञानिक है। क्योंकि वह तो इतने करीब
का रिश्ता हो जाएगा कि जो बच्चे पैदा होंगे, बिलकुल गोबर-गणेश
होंगे। हां, गोबर-गणेश चाहिए हों तो बात अलग, पूजा-वगैरह के काम में उपयोगी रहेंगे। बिठा दिया उनको, हर साल गणेश जी बनाने की जरूरत नहीं, ले आए गणेश
जी अपने, घर-घर में गणेश जी हैं। बिठा दिया, पूजा-वगैरह कर ली। उनको तुम सिरा भी आओ तो वे कुछ भी न कहेंगे, चुपचाप डुबकी मार जाएंगे कि अब क्या करना!
लेकिन यह प्रश्न तुम्हारे भीतर इतना क्यों तुम्हें
परेशान किए हुए है? इसमें जरूर कोई निजी मामला है, जिसको तुम्हारी
कहने की हिम्मत नहीं है। और बात तुम बड़ी बहादुरी की कर रहे हो। बात ऐसी कर रहे हो जैसे
कि मुझे चुनौती दे रहे हो। इसी प्रश्न को पूछने तुम पूना आए! बड़े शुद्ध धार्मिक आदमी
मालूम पड़ते हो! ऋषि-महर्षियों में तुम्हारी गिनती होनी चाहिए।
थोड़ा सोचा भी तो होता कि अगर मैं इसका उत्तर
नहीं दे रहा हूं, बार-बार तुम पूछ रहे हो रोज, तो कुछ कारण होगा।
इसीलिए नहीं दे रहा था कि तुम बदनाम होओगे, तुम्हारी मां बदनाम
होगी; तुम बदनाम होओगे, तुम्हारी
बेटी बदनाम होगी। कुछ न कुछ मामला गड़बड़ है। और तुम चाहते हो कि मेरा समर्थन मिल जाए।
शायद तुमने इसीलिए संन्यास लिया है।
तुम्हारा संन्यास झूठा और थोथा है। तुम यहां
संन्यास लेने इसीलिए आ गए हो, मेरा संन्यास लेने कि तुमको यह आशा होगी कि मैं तो सब तरह की स्वतंत्रता
देता हूं, इसलिए इस बात की भी स्वतंत्रता दे दूंगा।
ऐसे कुछ लोग हैं। एक सज्जन आ गए थे। वे इसीलिए
संन्यास लिए कि उनको अपनी बहन से प्रेम है। संन्यास लेने के बाद...दोनों ने संन्यास
ले लिया, फिर
कहा कि अब आपको हम कह दें कि यह मेरी बहन है और सब लोग हमारे विरोध में हैं,
इसलिए हम आपकी शरण आए हैं, इसलिए हमने संन्यास
लिया है।
मैंने कहा: इसलिए संन्यास लेने की क्या जरूरत
थी? अब यह संन्यास
सिर्फ एक आवरण हुआ तुम्हें बचाने का। और तुम जाकर प्रचार करना कि मैं तुम्हारे समर्थन
में हूं। मेरे दुश्मन मुझे जितना नुकसान पहुंचाते हैं, उससे
ज्यादा नुकसान तुम तरह के लोग मुझे पहुंचाते हैं। तुम ही हो असली उप(व का कारण। अब
उस आदमी की इच्छा यह है कि मैं आशीर्वाद दे दूं कि शादी हो जानी चाहिए बहन-भाई की।
मैंने कहा: यह तो गलत है। तुम चाहे संन्यास लो, चाहे न लो,
मगर यह बात गलत है। और तुमने जिस कारण संन्यास लिया वह तो बिलकुल
ही गलत है। सिर्फ तुम अपने पाप को छिपाना चाहते हो--संन्यास की आड़ में।
लोग सोचते हैं कि मैं हर तरह की चीज के लिए राजी
हो जाऊंगा। इस भूल में मत रहना। जरूर मैं स्वतंत्रता का पक्षपाती हूं।
मुक्त यौन से भी लोग गलत अर्थ ले लेते हैं। मुक्त
यौन का यह अर्थ नहीं होता, जो तुम्हारे मन में बैठा हुआ है। कुछ भारतीय यहां आते हैं--सिर्फ इसीलिए
कि वे सोचते हैं यहां मुक्त यौन की सुविधा है, कि हर किसी
स्त्री को पकड़ लो, कोई कुछ नहीं कहेगा--मुक्त यौन! तुम गलती
में हो। यहां की संन्यासिनियां तुम्हारी इस तरह की पिटाई करेंगी कि तुम्हें जिंदगी
भर भूलेगी नहीं। ये कोई भारतीय नारियां नहीं हैं कि घूंघट डाल कर और चुपचाप चली जाएंगी,
कि कौन झगड़ा करे, कौन फसाद करे, कोई क्या कहेगा! ये तुम्हारी अच्छी तरह से पिटाई करेंगी। मुक्त यौन का यह
अर्थ नहीं है।
यहां मुझे रोज शिकायतें आती हैं पाश्चात्य संन्यासिनियों
की, कि भारतीय
किस तरह के लोग हैं! कोहनी ही मार देंगे कुछ नहीं तो। मौका मिल जाएगा, धक्का ही लगा देंगे।
मैं उनसे कहता हूं: इन पर दया करो, ये ऋषि-मुनियों की संतान
हैं। और अब ये बेचारे क्या करें, ऋषि-मुनि सब अमरीका चले गए।
महर्षि महेश योगी--अमरीका; मुनि चित्रभानु--अमरीका;
योगी भजन--अमरीका! सब ऋषि-मुनि तो अमरीका चले गए, संतान यहां छोड़ गए। उल्लू मर गए, औलाद छोड़ गए।
और ये ऋषि-मुनि क्यों अमरीका चले गए? ये भी क्या करें बेचारे!
यहां बैठे बहुत दिन तक देखते रहे कि आए मेनका, आए उर्वशी,
कोई आता ही नहीं। कुछ मालूम होता है इं( ने नियम ही बदल दिए। न उर्वशी
आती, न मेनका आती! ये बेचारे बैठे हैं, माला जप रहे हैं, आंखें खोल-खोल कर बीच में देख
लेते हैं--न उर्वशी, न मेनका, कोई
नहीं आ रहा! मामला क्या है? फिर इनको एकदम होश आता है कि अरे,
यहां कहां उर्वशी-मेनका! हालीवुड! हालीवुड यानी होलीवुड। उसी पवित्र
स्थल पर चलें! सो ये सब होलीवुड में रहने लगे जाकर और उनकी संतान यहां है। यह सदियों
का दमन है।
मुक्त यौन से मेरा यह अर्थ नहीं है कि तुम हर
किसी स्त्री को धक्का मार दो, कि हर किसी स्त्री का हाथ पकड़ लो या हर किसी स्त्री को तुम उठा कर ले जाने
लगो। मुक्त यौन का अर्थ यह है कि जिससे तुम्हारा प्रेम है और जिसका तुमसे प्रेम है।
यह बात इकतरफा नहीं है। जिसका तुमसे प्रेम है, जिससे तुम्हारा
प्रेम है--यह प्रेम ही निर्णायक होना चाहिए, और बाकी गौण बातें
हैं। यह प्रेम ही तुम्हारे मिलन का कारण बनना चाहिए, बाकी
और बातें थोथी हैं।
मगर प्रेम वगैरह का तो सवाल ही नहीं है। प्रेम
वगैरह तो तुम भूल ही गए हो, धक्का-मुक्की याद रही। और धक्का-मुक्की भी कुछ खास करना नहीं जानते,
नहीं तो घूंसेबाजी सीखो, मुक्केबाजी सीखो,
मोहम्मद अली से लड़ो! अरे मोहम्मद अली की छोड़ो, तुम अगर घूंसेबाजी टुनटुन से भी करो तो मात खाओगे! चारों खाने चित्त पड़ोगे।
मगर भीड़-भाड़ में किसी स्त्री को धक्का दे देना...कुछ थोड़ी तो समझ-बूझ, कुछ थोड़ी तो मानवीय गरिमा का खयाल करो! कुछ थोड़ी तो अपनी प्रतिशठा का भी
खयाल करो! मगर तुम्हारे भीतर ये सब सांप-बिच्छू सरक रहे हैं।
अब तुम कहते हो कि "इसी प्रश्न का जवाब
लेने मैं पूना आया हूं। अगर जवाब मिला तो समझूंगा कि सफल हो गया।'
जवाब तो मैंने दे दिया, मगर तुम यह मत समझना कि तुम
सफल हो गए। क्योंकि जवाब मैंने ऐसा दिया कि अब तुम और मुश्किल में पड़ोगे। तुम आए होओगे
कि मैं कहूंगा कि हां वत्स, आशीर्वाद! कि बेटा खुश रहो! जो
भी करना हो सो करो, सब ठीक है। इस तरह की मूर्खतापूर्ण बातों
को मेरा कोई समर्थन नहीं है।
मां-बेटे के संबंध की बात ही नहीं उठती। ये भी
तुम्हारे रुग्ण और दमित वासनाओं के कारण ये उप(व खड़े हो जाते हैं। नहीं तो कौन मां-बेटे
को प्रेम करने की सूझेगी? किस बेटे के साथ मां यौन-संबंध बनाना चाहेगी? या
कौन बेटा अपनी मां से यौन-संबंध बनाना चाहेगा? या कौन पिता
अपनी बेटी से यौन-संबंध बनाना चाहेगा? जब सब तरफ द्वार-दरवाजे
बंद होते हैं और तुम्हारे जीवन में कहीं कोई निकास नहीं रह जाता, तो इस तरह की गलतियां शुरू होती हैं, क्योंकि यह
सुविधापूर्ण है। अब बेटी तो असहाय है, बाप के ऊपर निर्भर है,
तुम उसे सता सकते हो। दूसरे की बेटी को छेड़खान करोगे तो मुसीबत में
पड़ोगे।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे को कह रहा था कि
क्यों रे फजलू, तुझे शर्म नहीं आती? तुझमें अकल है या नहीं कि
दूसरे की मां-बहनों को छेड़ता है?
फजलू ने कहा कि अकल नहीं है? अरे अकल है, इसीलिए तो दूसरों की मां-बहनों को छेड़ता हूं। अकल न होती तो अपनी मां-बहनों
को छेड़ता कि नहीं?
बिलकुल बुद्धिहीनता की बात तुम पूछ रहे हो। कारण
न तो धार्मिक है मेरे विरोध का,
न परंपरागत है, न संस्कारगत है, सिर्फ वैज्ञानिक है। अगर तुम उत्सुक हो तो संतति-शास्त्र के विज्ञान को
समझने की कोशिश करो। शास्त्र उपलब्ध हैं। विज्ञान ने बड़ी खोजें कर ली हैं। विज्ञान
का सीधा सा सिद्धांत है: स्त्री और पुरुष के जीवाणु जितने दूर के हों, उतने ही बच्चे के लिए हितकर हैं--उतना ही बच्चा स्वस्थ होगा, सुंदर होगा, दीर्घजीवी होगा, प्रतिभाशाली होगा। और जितने करीब के होंगे, उतना
ही लचर-पचर होगा, दीन-हीन होगा।
भारत की दीन-हीनता में यह भी एक कारण है। भारत
के लोच-पोच आदमियों में यह भी एक कारण है। क्योंकि जैन सिर्फ जैनों के साथ ही विवाह
करेंगे। अब जैनों की कुल संषया तीस लाख। महावीर को मरे पच्चीस सौ साल हो गए। अगर महावीर
न तीस जोड़ों को भी संन्यास दिया होता या श्रावक बनाया होता, तो तीस जोड़ों में भी पच्चीस
सौ साल में तीस लाख की संषया हो जाती। तीस जोड़े काफी थे। तो अब जैनों का सारा संबंध
जैनों से ही होगा। और जैनों का भी पूरा जैनों से नहीं; श्वेतांबर
का श्वेतांबर से और दिगंबर का दिगंबर से। और श्वेतांबर का भी सब श्वेतांबरों से नहीं;
तेरापंथी का तेरापंथी से और स्थानकवासी का स्थानकवासी से। और छोटे-छोटे
टुकड़े हैं। संषया हजारों में रह जाती है। और उन्हीं के भीतर गोल-गोल घूमते रहते हैं
लोग। छोटे-छोटे तालाब हैं और उन्हीं के भीतर लोग बच्चे पैदा करते रहते हैं। इससे कचरा
पैदा हो रहा है। सारी दुनिया में सबसे ज्यादा कचरा इस देश में पैदा होता है। फिर तुम
रोते हो कि यह अब कचरे का क्या करें? तुम जिम्मेवार हो।
ब्राह्मण सिर्फ ब्राह्मणों से शादी करेंगे। और
वह भी सभी ब्राह्मणों से नहीं;
कान्यकुब्ज ब्राह्मण कान्यकुब्ज से करेंगे; और देशस्थ देशस्थ से; और कोंकणस्थ कोंकणस्थ से।
और स्वस्थ ब्राह्मण तो मिलते ही कहां! वह तो असंभव ही है। कोंकणस्थ, देशस्थ--स्वस्थ का पता ही नहीं चलता। मुझे तो अभी तक नहीं मिला कोई स्वस्थ
ब्राह्मण। और असल में, स्वस्थ हो, उसी को ब्राह्मण कहना चाहिए। स्वयं में स्थित हो, वही ब्राह्मण।
चमार चमार से करेंगे। फिर हो जाएंगे बाबू जगजीवन
राम पैदा। फिर देखो इनकी सूरत और सिर पीटो! फिर इनके सौंदर्य को निरखो और कविताएं लिखो!
यह जो भारत की दुर्गति है, उसमें एक बुनियादी कारण यह
भी है कि यहां सब जातियां अपने-अपने घेरे में जी रही हैं--वहीं बच्चे पैदा करना,
कचड़-बचड़ वहीं होती रहेगी। थोड़ा-बहुत बचाव करेंगे। मगर कितना बचाव
करोगे! जिससे भी शादी करोगे, दो-चार-पांच पीढ़ी पहले उससे तुम्हारे
भाई-बहन का संबंध रहा होगा। दो-चार-पांच पीढ़ी ज्यादा से ज्यादा बचा सकते हो,
इससे ज्यादा नहीं बचा सकते। जितना छोटा समाज होगा, उतना बचाना मुश्किल होता चला जाएगा। मुक्त होओ! ब्राह्मण को विवाह करने
दो जैन से, जैन को विवाह करने दो हरिजन से, हरिजन को विवाह करने दो मुसलमान से, मुसलमान को
विवाह करने दो ईसाई से। तोड़ो ये सारी सीमाएं!
और तुम तो सीमाएं तोड़ने की बात तो दूर, तुम तो और ही सुगम रास्ता
बता रहे हो। गजब की बात बता रहे हो स्वामी शांतानंद सरस्वती! कि कहां जाना दूर,
अरे घर की बात घर में ही रखो! घर की संपदा घर में ही रखो। अपनी बेटी
से ही शादी कर लो, कि अपनी मां से ही शादी कर लो!
इस मूर्खतापूर्ण प्रश्न को पूछने तुम पूना आए
हो? और इसका उत्तर
तुम्हें नहीं मिल रहा है तो तुम बड़े बेचैन हुए जा रहे हो? अब दे दिया मैंने उत्तर, अब हो गए तुम सफल,
हुआ तुम्हारा जीवन कृतार्थ, अब जाओ भैया!
रहिमन धागा प्रेम का
ओशो