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Thursday, June 22, 2017

क्या मारवाड़ी सच ही ऐसे गजब के लोग हैं?



रंजन! इस कहानी पर ध्यान करना:

अकबर और बीरबल के बीच विवाद खड़ा हुआ। अकबर का कहना था कि मुल्ला ही सबसे आदिम और चतुर लोग हैं। पंडित, पुजारी। जब कि बीरबल का कहना था कि मारवाड़ी को चतुराई में कोई मात नहीं कर सकता। अकबर ने सबूत जानना चाहा। बीरबल ने मुल्ला नसरुद्दीन को बुलाया और कहा कि बादशाह को आपकी दाढ़ी-मूंछ चाहिए। उसके बदले में जो कीमत हो, वे चुका देंगे। मुल्ला से कहा गया कि वह यदि दाढ़ी-मूंछ कटवाने से इनकार करेगा तो उसकी गर्दन उड़ा दी जाएगी। 

मुल्ला ने पहले तो बड़ी दलीलें दीं और गिड़गिड़ाए कि दाढ़ी-मूंछ न काटी जाए, महाराज। मैं मुल्ला हूं, धर्मगुरु हूं, दाढ़ी-मूंछ कट गई तो मेरे धंधे को बड़ा नुकसान पहुंचेगा। अरे दाढ़ी-मूंछ कट गई तो कौन मुझे मुल्ला समझेगा? इस पर ही तो मेरा सारा व्यवसाय टिका है।

मगर बीरबल ने कहा कि फिर समझ ले, तैयार हो जा। अगर दाढ़ी-मूंछ बचानी तो गर्दन कटेगी।

मुल्ला ने भी सोचा कि दाढ़ी-मूंछ की बजाय गर्दन कटवाना तो महंगा सौदा है। इससे तो दाढ़ी-मूंछ ही कटवा लो, फिर उग आएगी। गर्दन थोड़े ही दुबारा उगेगी। अरे दाढ़ी-मूंछ तो दो-चार-छह महीने की बात है, भग जाएंगे कहीं, छिप जाएंगे कहीं हिमालय की गुफा में, चार-छह महीने में फिर उग आएगी।

सो धमकाने की वजह से वह राजी हो गया। घबड़ाहट के मारे उसने कोई कीमत भी मांगना उचित नहीं समझा, कि जान बची लाखों पाए। जल्दी से दाढ़ी कटवाई और भाग गया जंगल की तरफ।

बीरबल ने फिर धन्नालाल मारवाड़ी को बुलवाया। दाढ़ी-मूंछ कटवाने की बात सुन कर पहले तो वह कांप उठा, परंतु फिर सम्हल कर उसने कहा: हुजूर, हम मारवाड़ी नमकहराम नहीं होते। आपके लिए दाढ़ी-मूंछ तो क्या, गर्दन कटवा सकते हैं।

अकबर ने बीरबल की ओर मुस्कुरा कर देखा। बीरबल ने भी आंखों से ही कहा कि जरा आगे देखिए, क्या होता है! बीरबल ने पूछा: क्या कीमत लोगे? मारवाड़ी ने कहा: एक लाख अशर्फियां। सुनते ही अकबर तो मारे गुस्से के उबल पड़ा। एक दाढ़ी-मूंछ की इतनी कीमत? मारवाड़ी ने कहा: हुजूर, पिता की मृत्तयु पर पिंड दान और सारे गांव को भोजन करवाना पड़ा--दाढ़ी के इन दो बालों की खातिर। मां के मरने पर काफी दान-पुण्य करना पड़ा--दाढ़ी के इन दो बालों की खातिर। अरे दाढ़ी की इज्जत के लिए क्या नहीं किया! हुजूर, शादी करनी पड़ी--दाढ़ी के इन दो बालों की खातिर। नहीं तो लोग कहते थे कि अरे, क्या नामर्द हो? सो मर्द सिद्ध करने के लिए शादी तक करनी पड़ी। हुजूर, कैसे-कैसे कष्टों में पड़ा, आपको क्या पता, क्या-क्या गिनाऊं! बच्चे पैदा करने पड़े--दाढ़ी के इन दो बालों की खातिर। आज दर्जनों बच्चों की कतार लगी है, उनका खाना-पीना, भोजन-खर्चा, हर तरह का उपद्रव सह रहा हूं--दाढ़ी के इन दो बालों की खातिर। फिर बच्चों की शादी, पोते-पोती, इन पर खर्च करना पड़ा--दाढ़ी के इन दो बालों की खातिर। और अभी परसों पत्नी की जिद्द के कारण हमारी शादी की पचासवीं सालगिरह पर खर्च हुआ--सो दाढ़ी के इन दो बालों की खातिर।

अकबर कुछ कर न पाया और कीमत चुका दी। दूसरे दिन अकबर ने नाई को मारवाड़ी के घर दाढ़ी-मूंछ कटवाने के लिए भेजा, तो मारवाड़ी ने उसे मना कर दिया और कहा: खबरदार अगर बादशाह सलामत की दाढ़ी को हाथ लगाया! बादशाह अकबर की दाढ़ी में हाथ डालते हुए शर्म नहीं आती? नाई को उसने खूब धमकाया और घर से बाहर निकाल दिया। नाई ने आकर अकबर से शिकायत की तो अकबर का गुस्सा आसमान छूने लगा। वह बीरबल पर भी बड़ा नाराज हुआ। तुरंत मारवाड़ी को बुलाया गया। बीरबल ने पूछा कि जब दाढ़ी बिक चुकी है तो अब उसे कटवाने क्यों नहीं देता? मारवाड़ी ने कहा: हुजूर, अब यह दाढ़ी-मूंछ मेरी कहां है? यह तो बादशाह सलामत की धरोहर है! इसको अब कोई नाई छूने की मजाल नहीं कर सकता। अरे करे कोई मजाल, गर्दन उड़ा दूंगा। यह मेरी इज्जत का सवाल नहीं, बादशाह की इज्जत का सवाल है। इसे मुंडवाना तो खुद बादशाह की दाढ़ी-मूंछ मुंडवाने के बराबर होगा। यह मैं जीते-जी नहीं होने दूंगा। आप चाहे मेरी गर्दन कटवा दें, पर इस कीमती धरोहर की रक्षा करना अब मेरा और मेरे परिवार का फर्ज है।

अकबर हक्का-बक्का रह गया और बीरबल मुस्कुराता रहा। महीने भर बाद अकबर के नाम मारवाड़ी का पत्र आया, जिसमें उसने दरखास्त की थी कि दाढ़ी-मूंछ की रक्षा करने तथा इसकी साफ-सफाई रखने पर महीने में सौ अशर्फियां मिलती रहें।

रंजन, तू पूछती है कि क्या मारवाड़ी सच ही ऐसे गजब के लोग हैं

लगता है तेरा मारवाड़ियों से पाला नहीं पड़ा। भगवान करे कभी पड़े भी नहीं!

रहिमन धागा प्रेम का 

ओशो 

कल आपने एक कालेज के युवकों द्वारा आयोजित नाटक में बताया कि सीता मैया सिगरेट पी रही थीं। क्या आपको सीता मैया को सिगरेट पीते देख कर धक्का नहीं लगा?



खयालीराम! जब तुमको तक धक्का लगा--और तुम केवल खयालीराम हो! न आयाराम, न गयाराम, न जगजीवनराम--खयालीराम! बस खयाल में ही राम हो! तुम तक को धक्का लग गया तो मुझको न लगेगा? अरे मुझको भी लगा। बहुत धक्का लगा। छाती में बिलकुल जैसे कोई छुरा मार दे।

धक्का लगने का कारण था। पहला तो यह कि सीता मैया पनामा सिगरेट पी रही थीं। यह बिलकुल ठीक नहीं। पनामा भी कोई सिगरेट है? न गधा, न घोड़ा--खच्चर समझो। अरे इससे तो बीड़ी भी पीतीं तो कम से कम स्वदेशी! कम से कम गांधी बाबा का सिद्धांत पूरा होता! अब पनामा सिगरेट, न तो बीड़ी, न कोई सिगरेट। कुछ आदमी पीते हैं। आदमी क्या, जिनको पजामा समझो! पनामा सिगरेट! कम से कम सीता मैया को भी पिलानी थी तो पांच सौ पचपन! अमरीकी सिगरेट होती कोई, इंपोर्टेड होती। पांच सौ पचपन सिगरेट का टाइम में विज्ञापन निकलता है--दि टेस्ट ऑफ सक्सेस! सफलता का स्वाद! और सीता मैया से ज्यादा सफल और कौन? अरे राम जी पा गईं, अब और क्या पाने को बचा!

तो जब मुझे पता चला कि पनामा सिगरेट पी रही थीं तो बहुत दुख हुआ। और जिस गाड़ी में से उतरीं, वह भी एंबेसेडर गाड़ी! शर्म भी खाओ! संकोच भी खाओ! सीता मैया को एंबेसेडर गाड़ी में बिठाओगे? चलो धोबियों का बहुत डर भी रहा हो, न बिठालते रॉल्स रॉयस में, क्योंकि धोबी बड़े दुशट! कोई धोबी एतराज उठा दे। धोबियों को तो दिखाई ही पड़ते हैं धब्बे! लोगों की चादरें वगैरह धोते-धोते उनको धब्बे ही धब्बे दिखाई पड़ते हैं। चांद-सूरज में भी जब जिसने पहली दफे धब्बे देखे होंगे, वह धोबी रहा होगा। सीता मैया तक में उनको धब्बे दिखाई पड़े! तो कोई धोबी हो सकता है एतराज उठाता। उठाने दो, धोबियों से क्या बनता-बिगड़ता है!

मगर जब राम जी डर गए थे तो बेचारे कालेज के छोकरे, वे भी डरे होंगे। नहीं तो कम से कम इंपाला तो ले आते। सीता मैया को एंबेसेडर गाड़ी में बिठाया। एंबेसेडर गाड़ी में अगर गर्भवती स्त्री को बिठा लो तो जच्चा-अस्पताल के पहले ही बच्चा हो जाता है। और सीता मैया को दो-दो बच्चे पेट में थे, कुछ तो सोचो! दुख हुआ, बहुत दुख हुआ। छाती में छुरी लग गई!

खयालीराम, तुमने ठीक प्रश्न पूछा। कालेज के नालायक छोकरे ही ऐसा कर सकते हैं--जिनको न भारत के गौरव की कोई समझ है, न धर्म की कोई प्रतिशठा जिनके मन में है। नहीं तो ऐसा कहीं करते हैं!

लेकिन खयालीराम, भारत को थोड़ी क्षमता चाहिए व्यंग्य को समझने की, थोड़ा हंसने की क्षमता चाहिए। भारत भूल ही गया हंसने की कला। यहां बिलकुल चेहरे मातमी हो गए हैं।

तो मैं इस लिहाज से कुछ खुश हुआ कि चलो कुछ बात तो हंसने की हुई। मगर लोग ऐसे मूढ़ हैं कि चढ़ गए मंच पर, फिर उन्होंने न यह देखा कि सीता मैया हैं कि रामचं( जी, पिटाई-कुटाई कर दी। रामचं( जी और सीता मैया की पिटाई-कुटाई! अब यह तो हद्द हो गई! इससे मुझे और भी दुख पहुंचा। पनामा सिगरेट भी ठीक है, चलो एंबेसेडर गाड़ी भी ठीक है। जो हुआ सो हुआ। छोटी-मोटी भूलें थीं। मगर लोगों ने पिटाई कर दी। यह भी न देखा कि अब सीता मैया, कुछ भी हो, हैं तो सीता मैया! रामचं( जी माना कि टाई बांधे हुए थे और सूट पहने हुए थे, यह बात जंचती नहीं; मगर आधुनिक समय में इसमें क्या एतराज हो सकता है? और नाटक का नाम ही था: आधुनिक रामलीला!

मगर गांव के मूढ़, उन्होंने आग लगा दी, मंच जला दिया, परदे फाड़ डाले, पिटाई-कुटाई कर दी। इस बात से भी हमें थोड़ा समझना चाहिए कि इस देश में हंसने की क्षमता चली गई है। हमारा बोध ही चला गया है। हम बस गंभीर ही होना जानते हैं। और गंभीर होना कोई अच्छा लक्षण नहीं है--बीमारी का लक्षण है।

मैंने सुना है, पिकासो ने एक भारतीय की तसवीर बनाई, पोर्ट्रेट बनाया और एक मित्र को दिखाया। मित्र था डाक्टर। आधा घंटे तक देखता रहा। इधर से देखे, उधर से देखे। देखे ही नहीं, तसवीर को दबाए भी। पीछे भी गया तसवीर के।

पिकासो ने कहा: हद्द हो गई! बहुत देखने वाले देखे। तस्वीर के पीछे क्या कर रहे हो? और तस्वीर देखते हो कि दबाते हो?

उसने कहा कि इस आदमी को अपैंडिक्स की बीमारी है। इसके चेहरे से साफ जाहिर हो रहा है। यह बड़े दर्द में है।

पिकासो ने कहा: महाराज, दर्द वगैरह में नहीं है, यह भारतीय है। 

यह तो भारतीयों का बिलकुल राशट्रीय लक्षण है कि ऐसे गंभीर रहे आते हैं कि जैसे अपैंडिक्स में दर्द हो, कि प्राण निकले जा रहे हैं। हंसते भी हैं तो इतनी कंजूसी, जिसका हिसाब नहीं।

रहिमन धागा प्रेम का 

ओशो 

मैं संन्यास लेने के पहले आश्वस्त होना चाहता हूं कि मुझे निर्वाण पाने में सफलता मिलेगी या नहीं?

रामकृष्ण! यह नाम तुम्हें किसने दिया? न तुम राम हो, न कृष्ण। राम की भी लुटिया डुबा दी, कृष्ण की भी लुटिया डुबा दी। कुछ तो अपने नाम की इज्जत रखते!

एक उपन्यासकार ने मुल्ला नसरुद्दीन से कहा कि जरा मेरा यह नया-नया उपन्यास है, इसे पढ़ें और कुछ आपकी आलोचना हो या सुझाव हों तो मुझे दें। 

मुल्ला नसरुद्दीन ने उपन्यास पढ़ा और कहा कि उपन्यास तो आपने जैसा लिखा है सो ठीक है, मगर उपन्यास को जो नाम दिया है वह ठीक नहीं है। 

उपन्यास लेखक ने कहा: लेकिन मैं तो समझता था कि नाम काफी जोरदार है।

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा: यही तो मेरा भी खयाल है। लेकिन कथानक ने सारी मिट्टी पलीद कर दी।
नाम तुम्हारा इतना जोरदार है और कथानक बिलकुल मिट्टी पलीद किए दे रहा है।

रामकृष्ण! क्या पूछ रहे हो कि मैं संन्यास लेने के पहले आश्वस्त होना चाहता हूं! कोई गारंटी? संन्यास का अर्थ क्या होता है? असुरक्षा में उतरना। वे जो आश्वस्त होना चाहते हैं, वही तो गृहस्थ हैं। वे जो सब तरह की सुरक्षा चाहते हैं, वही तो गृहस्थ हैं। संन्यस्त का अर्थ इतना होता है कि परमात्तमा मेरी सुरक्षा है। रखेगा जैसे, रहूंगा। जिलाएगा जैसे, जीऊंगा। कराएगा जो, करूंगा। जिंदगी, तो उसकी है; और मौत, तो उसके हाथों। अब उसका हूं। अब हिसाब-किताब अपना क्या रखना!

तुम दुकानदारी समझते हो संन्यास को? पहले आश्वस्त होना चाहते हो? यह जुआरियों का काम है। अभी मैंने तुम्हें जरीन की बात कही न! अब बात इतनी बढ़ गई है कि उसके घर के लोग कहते हैं कि अब तू चुन ले--या तो संन्यास और या फिर तू जान। मैंने तो उसे कहलवा दिया है कि तू फिकर न कर, अगर यही बात हो तो यह आश्रम तेरा घर है। क्षण भर विचार मत करना। यह आश्रम ही किसलिए है! अगर तुझे संन्यास छोड़ना हो तो तू मजे से छोड़ दे। मैं कहता नहीं कि रख। तू खुश, तेरा घर खुश। लेकिन तू अगर न छोड़ना चाहे तो यह मत सोचना कि तेरा कोई घर नहीं है। छोटा घर छूटेगा, यह बड़ा घर है। छोटा परिवार छूटेगा, यह बड़ा परिवार है।

अभी तीन हजार संन्यासी हैं यहां। और तुम कहां पाओगे इससे बड़ा परिवार? और कितने प्रेम से यह परिवार चल रहा है, इसकी तुम कल्पना कर सकते हो! और बिना किसी व्यवस्था के! घर में तीन आदमी हों तो भी तीन-पांच मची रहती है। पांच होते ही नहीं, मगर तीन ही तीन-पांच मचा देते हैं। यहां तीन हजार हैं, मगर तीन-पांच का कोई सवाल ही नहीं है। और एक मैं हूं कि मैं कभी अपने कमरे के बाहर आता नहीं। सब अपने से चल रहा है जैसे, कोई चलाने वाला नहीं! मुझे तो पता ही नहीं कि कैसे चल रहा है। मैं पता रखना भी नहीं चाहता। मैं तो सब उस पर पहले ही छोड़ चुका हूं। यह आश्रम भी उस पर ही छूटा हुआ है। उसकी जैसी मर्जी! लेकिन सब चल रहा है--एक अपूर्व सौंदर्य से! एक अपूर्व प्रसाद से चल रहा है!

तो जरीन को मैंने खबर भेज दी है कि यह तेरा घर है, तू एक क्षण भी सोचना मत। हां, तुझे संन्यास छोड़ना हो तो तेरी मौज। और तुझे लगे कि संन्यास न छोडूं, तो जाऊं कहां! तो यह तेरा घर है।

रामकृष्ण, पहले से आश्वस्त होने की इतनी क्या चिंता कर रहे हो? संन्यास लेना है कि कोई सौदा करना है? थोड़ा जुआरी होना भी सीखो। थोड़ा दांव लगाना भी सीखो।

लेकिन हमारी व्यवसायी बुद्धि है।

दो युवक बहुत वर्षों के बाद मिले। एक की हालत तो खस्ता थी। दरबदर घूमता था, बेकार था; यद्यपि विश्वविद्यालय से गोल्ड मेडल लेकर निकला था। दूसरा विद्यार्थी तो कभी कालेज तक पहुंचा ही नहीं। टेंथ में ही दस बार फेल हुए, उसके आगे बढ़े नहीं। टेंथ का ही अभ्यास दस बार किया। फिर आशा भी छोड़ दी। मगर अब वे लखपति हो गए थे। व्यवसायी का बेटा था, हो सकता है मारवाड़ी रहा हो। पहले की तो हालत बड़ी खस्ता थी, जूते फटे थे, कपड़े गंदे थे। और उसने कहा: यह माजरा क्या है? और यह आलीशान मकान! खस की टट्टियां! दूसरा तो इसकी गद्दियों पर बैठने में भी शर्माए कि कहीं गद्दियां गंदी न हो जाएं--इतनी झकाझक, इतनी सफेद! वह तो सिकुड़ कर बैठा। उसने पूछा कि अपना राज तो कहो! मैं तो भूखा मर रहा हूं, गोल्ड मेडल मैंने पाया विश्वविद्यालय से। और तुम तो टेंथ क्लास से कभी आगे बढ़े नहीं।

उसने कहा: अरे टेंथ से इसका क्या लेना-देना! एक रुपये में चीज खरीदते हैं, दो रुपये में बेच देते हैं! एक परसेंट के लाभ से सब चल रहा है। 

एक परसेंट लाभ! एक रुपये में खरीदते हैं, दो रुपये में बेच देते हैं। हुए होंगे टेंथ में दस दफे फेल, जरूर हुए होंगे। मगर एक रुपये पर एक रुपये के लाभ को एक परसेंट का लाभ समझते हैं, तो हो गए लखपति।

मुल्ला नसरुद्दीन एक दफा जीत गया लाटरी--दस लाख रुपये। सब चकित थे कि मुल्ला तूने इस टिकट के नंबर का पता कैसे लगाया? 

मुल्ला ने कहा कि क्या कहूं! रात मैंने देखा कि सात का नंबर तीन बार दिखाई पड़ा। सौ मैंने सोचा, सात तिया अठारह। सो अठारह नंबर की टिकट मैंने खरीद ली। और यह लाटरी जीत गया।

दूसरे ने कहा: हद्द हो गई, सात तिया अठारह! अरे सात तिया इक्कीस होते हैं, अठारह नहीं। तो मुल्ला ने कहा: गणित तुम करो, लाटरी मुझे मिली है। तू जा भाड़ में और तेरा गणित जाए भाड़ में! सवाल लाटरी का है। लाटरी किसको मिली?

तुम गणित जमाने बैठे हो! "तुम पूछते हो: मैं संन्यास लेने के पहले आश्वस्त होना चाहता हूं कि मुझे निर्वाण पाने में सफलता मिलेगी या नहीं?' 

और निर्वाण और सफलता, इनका कोई तालमेल है? सफलता की आकांक्षा संसार है। सफलता से ही मुक्त हो जाने का नाम निर्वाण है। और तुम सफलता को वहां भी घुसेड़े जा रहे हो! निर्वाण में भी! अच्छा हुआ, तुमने यह नहीं पूछा कि निर्वाण पाऊंगा तो भारत-रत्तन की उपाधि मिलेगी कि नहीं? कि निर्वाण पाने पर नोबल प्राइज मिलेगी कि नहीं? तुकबंदी तो ठीक है--निर्वाण और नोबल प्राइज! मगर मैं नहीं सोचता कि अगर बुद्ध आज होते तो उनको कोई नोबल-प्राइज मिलती।

यह जरा मजा तो देखो, जीसस को सूली मिली और कलकत्ता की थेरेसा को नोबल प्राइज! यह जीसस की अनुयायी। जीसस को नोबल प्राइज मिलती? अभी भी होते तो सूली मिलती। नोबल प्राइज तो मिलती है--कूड़ा-कर्कट को, कचरों को। समाज की पिटी-पिटाई लकीरों को जो पीटते रहते हैं--चमचों को। समाज की रूढ़ियों का जो परिपोषण करते हैं, उनको मिलती है। समाज के न्यस्त स्वार्थों की जो सेवा करते हैं, उनको मिलती है। भारत-रत्तन भी उनको ही मिलेगा। बिलकुल रत्तन जैसा जिनमें कुछ भी नहीं होगा! भारत-रतन कहो--पहुंचे हुए रतन! तो उनको मिलेगी।

सफलता? सफलता का भाव ही अहंकार का भाव है। और निर्वाण तो अहंकार का विसर्जन है। वहां कोई महत्तवाकांक्षा, कोई वासना लेकर जाओगे तो निर्वाण भर नहीं मिलेगा, और कुछ भी मिल जाए।

संन्यास अहोभाव से लो, आश्वासन से नहीं; किसी सफलता की आकांक्षा से नहीं, मौज से! जीवन की व्यर्थता को पहचान कर। जीवन की शैली को बदलना है यह। एक ढंग से जीवन जीकर देख लिया--सफलता पाने का, दिल्ली जाने का, पद पाने का, धन पाने का--एक जीवन जीकर देख लिया और पाया कि नहीं है वहां कुछ; हाथ कुछ भी नहीं दिखता। जान तो निकल जाती है, बिलकुल जान निकल जाती है--भाई ही भाई रह जाता है। भाईजान में से जान चली जाती है, भाई ही भाई! जैसे मोरारजी भाई! बस भाई ही भाई! फु९ब०फस! अब कुछ नहीं भीतर। भीतर बिलकुल भूसा भरा हुआ। भाई ही भाई! गुजराती भाई! जान वगैरह कहां! जान तो निकल गई।

जो समझ लेता है यह कि यहां जिंदगी में तो सिर्फ गंवाना है--प्राण गंवाना, आत्तमा गंवानी--संन्यास उसके लिए है। संन्यास उस बोध में फलित होता है। संन्यास कुछ पाने के लिए नहीं है। संसार में कुछ पाने योग्य नहीं है, इस बोध में संन्यास का फूल खिलता है। संन्यास किसी और चीज का साधन नहीं है, स्वयं साध्य है। स्वांतः सुखाय!

चल तू अपनी राह पथिक, चल, तुझको विजय-पराजय से क्या?

भंवर उठ रहे हैं सागर में,

मेघ घुमड़ते हैं अंबर में,

आंधी औ तूफान डगर में,

तुझको तो केवल चलना है, चलना ही है, फिर हो भय क्या?

चल तू अपनी राह पथिक, चल, तुझको विजय-पराजय से क्या?

इस दुनिया में कहीं न सुख है,

इस दुनिया में कहीं न दुख है,

जीवन एक हवा का रुख है,

होने दे होता है जो कुछ, इस होने का हो निर्णय क्या?

चल तू अपनी राह पथिक, चल, तुझको विजय-पराजय से क्या?

अरे, थक गया! फिर बढ़ता चल,

उठ, संघर्षों से अड़ता चल,

जीवन विषम पंथ चलता चल,

अड़ा हिमालय हो यदि आगे, चढूं कि लौटूं यह संशय क्या?

चल तू अपनी राह पथिक, चल, तुझको विजय-पराजय से क्या?

कोई रो-रो कर सब खोता

कोई खोकर सुख में सोता,

दुनिया में ऐसा ही होता,

जीवन का क्रय मरण यहां पर, निश्चित ध्येय यदि, फिर क्षय क्या?

चल तू अपनी राह पथिक, चल, तुझको विजय-पराजय से क्या?

रहिमन धागा प्रेम का 

ओशो

"मुक्त यौन-संबंध के अंतर्गत क्या पिता-पुत्री और मां-बेटे के बीच भी यौन-संबंध हो सकता है? यदि नहीं तो क्यों नहीं?'



यह प्रश्न उन्होंने इतनी बार पूछा है कि मुझे शक है, तुम्हें अपनी मां से यौन-संबंध करना है कि अपनी बेटी से, किससे करना है? यह प्रश्न इतनी बार तुम क्यों पूछ रहे हो? और यही प्रश्न हेतु है उन्हें पूना लाने का! तो जरूर यह मामला निजी होना चाहिए, व्यक्तिगत होना चाहिए। किससे तुम्हें यौन-संबंध करना है--मां से कि अपनी बेटी से? सीधी-सीधी बात क्यों नहीं पूछते फिर? फिर इसको इतना तात्विक रंग-ढंग देने की क्यों कोशिश करते हो? कम से कम ईमानदार अपने प्रश्नों में होना चाहिए।

मां-बेटे का संबंध या बेटे और मां का संबंध अवैज्ञानिक है। उससे जो बच्चे पैदा होंगे, वे अपंग होंगे, लंगड़े होंगे, लूले होंगे, बुद्धिहीन होंगे। इसका कोई धर्म से संबंध नहीं है। यह सत्य दुनिया के लोगों को बहुत पहले पता चल चुका है। सदियों से पता रहा है। विज्ञान तो अब इसको वैज्ञानिक रूप से सिद्ध कर सका। भाई-बहन का संबंध भी अवैज्ञानिक है। इसका कोई नैतिकता से संबंध नहीं है। सीधी सी बात इतनी है कि भाई और बहन दोनों के वीर्यकण इतने समान होते हैं कि उनमें तनाव नहीं होता, उनमें खिंचाव नहीं होता। इसलिए उनसे जो व्यक्ति पैदा होगा, वह फु९ब०फुस होगा; उसमें खिंचाव नहीं होगा, तनाव नहीं होगा, उसमें ऊर्जा नहीं होगी। जितने दूर का नाता होगा, उतना ही बच्चा सुंदर होगा, स्वस्थ होगा, बलशाली होगा, मेधावी होगा। इसलिए फिक्र की जाती रही कि भाई-बहन का विवाह न हो। दूर संबंध खोजे जाते रहे, जिनसे गोत्र का भी नाता न हो, तीन-चार-पांच पीढ़ियों का भी नाता न हो। क्योंकि जितने दूर का नाता हो, उतना ही बच्चे के भीतर मां और पिता के जो वीर्याणु और अंडे का मिलन होगा, उसमें दूरी होगी। दूरी होगी तो उस दूरी के कारण ही व्यक्तित्व में गरिमा होती है।

जैसे बिजली पैदा करनी हो तो ऋण और धन, इन दो ध्रुवों के बीच ही बिजली पैदा होती है। तुम एक ही तरह के ध्रुव--धन और धन, ऋण और ऋण--इनके साथ बिजली पैदा करना चाहो, बिजली पैदा नहीं होगी। बिजली पैदा करने के लिए ऋण और धन की दूरी चाहिए। व्यक्तित्व में उतनी ही बिजली होती है, उतनी ही विद्युत होती है, जितना वह दूर का हो।

इसलिए मैं इस पक्ष में हूं कि भारतीय को भारतीय से विवाह नहीं करना चाहिए; जापानी से करे, चीनी से करे, तिब्बती से करे, ईरानी से करे, जर्मन से करे, भारतीय से न करे। क्योंकि जब दूर ही करना है तो जितना दूर हो उतना अच्छा। और यह अब तो वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुकी है बात। पशु-पक्षियों के लिए हम प्रयोग भी कर रहे हैं। लेकिन आदमी हमेशा पिछड़ा हुआ होता है, क्योंकि उसकी जकड़ रूढ़िगत होती है। अगर हमको अच्छी गाय की नस्ल पैदा करनी है तो हम बाहर से वीर्य-अणु बुलाते हैं; अंग्रेज सांड का वीर्य-अणु बुलाते हैं भारतीय गाय के लिए। और कभी नहीं सोचते कि गऊमाता के साथ क्या कर रहे हो तुम यह! गऊमाता और अंग्रेज पिता, शर्म नहीं आती? लाज-संकोच नहीं?...मगर उतने ही स्वस्थ बच्चे पैदा होंगे। उतनी ही अच्छी नस्ल होगी।

इसलिए पशुओं की नस्लें सुधरती जा रही हैं, खासकर पश्चिम में तो पशुओं की नस्लें बहुत सुधर गई हैं। कल्पनातीत! साठ-साठ लीटर दूध देने वाली गायें कभी दुनिया में नहीं थीं। और उसका कुल कारण यह है कि दूर-दूर के वीर्याणु को मिलाते जाओ, हर बार। आने वाले बच्चे और भी ज्यादा स्वस्थ, और भी ज्यादा स्वस्थ होते जाते हैं। कुत्तों की नस्लों में इतनी क्रांति हो गई है कि जैसे कुत्ते कभी भी नहीं थे दुनिया में। रूस में फलों में क्रांति हो गई है, क्योंकि फलों के साथ भी वे वही प्रयोग कर रहे हैं। आज रूस के पास जैसे फल हैं, दुनिया में किसी के पास नहीं। उनके फल बड़े हैं, ज्यादा रस भरे हैं, ज्यादा पौशिटक हैं। और सारी तरकीब एक है: जितनी ज्यादा दूरी हो।

यह सीधा सा सत्य आदिम समाज को भी पता चल गया था। मगर स्वामी शांतानंद सरस्वती को अभी तक पता नहीं है! और वे समझते हैं कि बड़े आधुनिक आदमी हैं, रूढ़ियों के बड़े विरोध में हैं! इसलिए भाई-बहन का विवाह निषिद्ध था। निषिद्ध रहना चाहिए। असल में चचेरे भाई-बहनों से भी विवाह निषिद्ध होना चाहिए। मुसलमानों में होता है, ठीक नहीं है। दक्षिण भारत में होता है, ठीक नहीं है, अवैज्ञानिक है। और मां-बेटे का विवाह तो एकदम ही मूढ़तापूर्ण है, एकदम अवैज्ञानिक है। क्योंकि वह तो इतने करीब का रिश्ता हो जाएगा कि जो बच्चे पैदा होंगे, बिलकुल गोबर-गणेश होंगे। हां, गोबर-गणेश चाहिए हों तो बात अलग, पूजा-वगैरह के काम में उपयोगी रहेंगे। बिठा दिया उनको, हर साल गणेश जी बनाने की जरूरत नहीं, ले आए गणेश जी अपने, घर-घर में गणेश जी हैं। बिठा दिया, पूजा-वगैरह कर ली। उनको तुम सिरा भी आओ तो वे कुछ भी न कहेंगे, चुपचाप डुबकी मार जाएंगे कि अब क्या करना!

लेकिन यह प्रश्न तुम्हारे भीतर इतना क्यों तुम्हें परेशान किए हुए है? इसमें जरूर कोई निजी मामला है, जिसको तुम्हारी कहने की हिम्मत नहीं है। और बात तुम बड़ी बहादुरी की कर रहे हो। बात ऐसी कर रहे हो जैसे कि मुझे चुनौती दे रहे हो। इसी प्रश्न को पूछने तुम पूना आए! बड़े शुद्ध धार्मिक आदमी मालूम पड़ते हो! ऋषि-महर्षियों में तुम्हारी गिनती होनी चाहिए।

थोड़ा सोचा भी तो होता कि अगर मैं इसका उत्तर नहीं दे रहा हूं, बार-बार तुम पूछ रहे हो रोज, तो कुछ कारण होगा। इसीलिए नहीं दे रहा था कि तुम बदनाम होओगे, तुम्हारी मां बदनाम होगी; तुम बदनाम होओगे, तुम्हारी बेटी बदनाम होगी। कुछ न कुछ मामला गड़बड़ है। और तुम चाहते हो कि मेरा समर्थन मिल जाए। शायद तुमने इसीलिए संन्यास लिया है।

तुम्हारा संन्यास झूठा और थोथा है। तुम यहां संन्यास लेने इसीलिए आ गए हो, मेरा संन्यास लेने कि तुमको यह आशा होगी कि मैं तो सब तरह की स्वतंत्रता देता हूं, इसलिए इस बात की भी स्वतंत्रता दे दूंगा।

ऐसे कुछ लोग हैं। एक सज्जन आ गए थे। वे इसीलिए संन्यास लिए कि उनको अपनी बहन से प्रेम है। संन्यास लेने के बाद...दोनों ने संन्यास ले लिया, फिर कहा कि अब आपको हम कह दें कि यह मेरी बहन है और सब लोग हमारे विरोध में हैं, इसलिए हम आपकी शरण आए हैं, इसलिए हमने संन्यास लिया है।

मैंने कहा: इसलिए संन्यास लेने की क्या जरूरत थी? अब यह संन्यास सिर्फ एक आवरण हुआ तुम्हें बचाने का। और तुम जाकर प्रचार करना कि मैं तुम्हारे समर्थन में हूं। मेरे दुश्मन मुझे जितना नुकसान पहुंचाते हैं, उससे ज्यादा नुकसान तुम तरह के लोग मुझे पहुंचाते हैं। तुम ही हो असली उप(व का कारण। अब उस आदमी की इच्छा यह है कि मैं आशीर्वाद दे दूं कि शादी हो जानी चाहिए बहन-भाई की। मैंने कहा: यह तो गलत है। तुम चाहे संन्यास लो, चाहे न लो, मगर यह बात गलत है। और तुमने जिस कारण संन्यास लिया वह तो बिलकुल ही गलत है। सिर्फ तुम अपने पाप को छिपाना चाहते हो--संन्यास की आड़ में।

लोग सोचते हैं कि मैं हर तरह की चीज के लिए राजी हो जाऊंगा। इस भूल में मत रहना। जरूर मैं स्वतंत्रता का पक्षपाती हूं।

मुक्त यौन से भी लोग गलत अर्थ ले लेते हैं। मुक्त यौन का यह अर्थ नहीं होता, जो तुम्हारे मन में बैठा हुआ है। कुछ भारतीय यहां आते हैं--सिर्फ इसीलिए कि वे सोचते हैं यहां मुक्त यौन की सुविधा है, कि हर किसी स्त्री को पकड़ लो, कोई कुछ नहीं कहेगा--मुक्त यौन! तुम गलती में हो। यहां की संन्यासिनियां तुम्हारी इस तरह की पिटाई करेंगी कि तुम्हें जिंदगी भर भूलेगी नहीं। ये कोई भारतीय नारियां नहीं हैं कि घूंघट डाल कर और चुपचाप चली जाएंगी, कि कौन झगड़ा करे, कौन फसाद करे, कोई क्या कहेगा! ये तुम्हारी अच्छी तरह से पिटाई करेंगी। मुक्त यौन का यह अर्थ नहीं है।

यहां मुझे रोज शिकायतें आती हैं पाश्चात्य संन्यासिनियों की, कि भारतीय किस तरह के लोग हैं! कोहनी ही मार देंगे कुछ नहीं तो। मौका मिल जाएगा, धक्का ही लगा देंगे।

मैं उनसे कहता हूं: इन पर दया करो, ये ऋषि-मुनियों की संतान हैं। और अब ये बेचारे क्या करें, ऋषि-मुनि सब अमरीका चले गए। महर्षि महेश योगी--अमरीका; मुनि चित्रभानु--अमरीका; योगी भजन--अमरीका! सब ऋषि-मुनि तो अमरीका चले गए, संतान यहां छोड़ गए। उल्लू मर गए, औलाद छोड़ गए।

और ये ऋषि-मुनि क्यों अमरीका चले गए? ये भी क्या करें बेचारे! यहां बैठे बहुत दिन तक देखते रहे कि आए मेनका, आए उर्वशी, कोई आता ही नहीं। कुछ मालूम होता है इं( ने नियम ही बदल दिए। न उर्वशी आती, न मेनका आती! ये बेचारे बैठे हैं, माला जप रहे हैं, आंखें खोल-खोल कर बीच में देख लेते हैं--न उर्वशी, न मेनका, कोई नहीं आ रहा! मामला क्या है? फिर इनको एकदम होश आता है कि अरे, यहां कहां उर्वशी-मेनका! हालीवुड! हालीवुड यानी होलीवुड। उसी पवित्र स्थल पर चलें! सो ये सब होलीवुड में रहने लगे जाकर और उनकी संतान यहां है। यह सदियों का दमन है।
मुक्त यौन से मेरा यह अर्थ नहीं है कि तुम हर किसी स्त्री को धक्का मार दो, कि हर किसी स्त्री का हाथ पकड़ लो या हर किसी स्त्री को तुम उठा कर ले जाने लगो। मुक्त यौन का अर्थ यह है कि जिससे तुम्हारा प्रेम है और जिसका तुमसे प्रेम है। यह बात इकतरफा नहीं है। जिसका तुमसे प्रेम है, जिससे तुम्हारा प्रेम है--यह प्रेम ही निर्णायक होना चाहिए, और बाकी गौण बातें हैं। यह प्रेम ही तुम्हारे मिलन का कारण बनना चाहिए, बाकी और बातें थोथी हैं।

मगर प्रेम वगैरह का तो सवाल ही नहीं है। प्रेम वगैरह तो तुम भूल ही गए हो, धक्का-मुक्की याद रही। और धक्का-मुक्की भी कुछ खास करना नहीं जानते, नहीं तो घूंसेबाजी सीखो, मुक्केबाजी सीखो, मोहम्मद अली से लड़ो! अरे मोहम्मद अली की छोड़ो, तुम अगर घूंसेबाजी टुनटुन से भी करो तो मात खाओगे! चारों खाने चित्त पड़ोगे। मगर भीड़-भाड़ में किसी स्त्री को धक्का दे देना...कुछ थोड़ी तो समझ-बूझ, कुछ थोड़ी तो मानवीय गरिमा का खयाल करो! कुछ थोड़ी तो अपनी प्रतिशठा का भी खयाल करो! मगर तुम्हारे भीतर ये सब सांप-बिच्छू सरक रहे हैं।

अब तुम कहते हो कि "इसी प्रश्न का जवाब लेने मैं पूना आया हूं। अगर जवाब मिला तो समझूंगा कि सफल हो गया।

जवाब तो मैंने दे दिया, मगर तुम यह मत समझना कि तुम सफल हो गए। क्योंकि जवाब मैंने ऐसा दिया कि अब तुम और मुश्किल में पड़ोगे। तुम आए होओगे कि मैं कहूंगा कि हां वत्स, आशीर्वाद! कि बेटा खुश रहो! जो भी करना हो सो करो, सब ठीक है। इस तरह की मूर्खतापूर्ण बातों को मेरा कोई समर्थन नहीं है।

मां-बेटे के संबंध की बात ही नहीं उठती। ये भी तुम्हारे रुग्ण और दमित वासनाओं के कारण ये उप(व खड़े हो जाते हैं। नहीं तो कौन मां-बेटे को प्रेम करने की सूझेगी? किस बेटे के साथ मां यौन-संबंध बनाना चाहेगी? या कौन बेटा अपनी मां से यौन-संबंध बनाना चाहेगा? या कौन पिता अपनी बेटी से यौन-संबंध बनाना चाहेगा? जब सब तरफ द्वार-दरवाजे बंद होते हैं और तुम्हारे जीवन में कहीं कोई निकास नहीं रह जाता, तो इस तरह की गलतियां शुरू होती हैं, क्योंकि यह सुविधापूर्ण है। अब बेटी तो असहाय है, बाप के ऊपर निर्भर है, तुम उसे सता सकते हो। दूसरे की बेटी को छेड़खान करोगे तो मुसीबत में पड़ोगे।

मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे को कह रहा था कि क्यों रे फजलू, तुझे शर्म नहीं आती? तुझमें अकल है या नहीं कि दूसरे की मां-बहनों को छेड़ता है?

फजलू ने कहा कि अकल नहीं है? अरे अकल है, इसीलिए तो दूसरों की मां-बहनों को छेड़ता हूं। अकल न होती तो अपनी मां-बहनों को छेड़ता कि नहीं?

बिलकुल बुद्धिहीनता की बात तुम पूछ रहे हो। कारण न तो धार्मिक है मेरे विरोध का, न परंपरागत है, न संस्कारगत है, सिर्फ वैज्ञानिक है। अगर तुम उत्सुक हो तो संतति-शास्त्र के विज्ञान को समझने की कोशिश करो। शास्त्र उपलब्ध हैं। विज्ञान ने बड़ी खोजें कर ली हैं। विज्ञान का सीधा सा सिद्धांत है: स्त्री और पुरुष के जीवाणु जितने दूर के हों, उतने ही बच्चे के लिए हितकर हैं--उतना ही बच्चा स्वस्थ होगा, सुंदर होगा, दीर्घजीवी होगा, प्रतिभाशाली होगा। और जितने करीब के होंगे, उतना ही लचर-पचर होगा, दीन-हीन होगा।

भारत की दीन-हीनता में यह भी एक कारण है। भारत के लोच-पोच आदमियों में यह भी एक कारण है। क्योंकि जैन सिर्फ जैनों के साथ ही विवाह करेंगे। अब जैनों की कुल संषया तीस लाख। महावीर को मरे पच्चीस सौ साल हो गए। अगर महावीर न तीस जोड़ों को भी संन्यास दिया होता या श्रावक बनाया होता, तो तीस जोड़ों में भी पच्चीस सौ साल में तीस लाख की संषया हो जाती। तीस जोड़े काफी थे। तो अब जैनों का सारा संबंध जैनों से ही होगा। और जैनों का भी पूरा जैनों से नहीं; श्वेतांबर का श्वेतांबर से और दिगंबर का दिगंबर से। और श्वेतांबर का भी सब श्वेतांबरों से नहीं; तेरापंथी का तेरापंथी से और स्थानकवासी का स्थानकवासी से। और छोटे-छोटे टुकड़े हैं। संषया हजारों में रह जाती है। और उन्हीं के भीतर गोल-गोल घूमते रहते हैं लोग। छोटे-छोटे तालाब हैं और उन्हीं के भीतर लोग बच्चे पैदा करते रहते हैं। इससे कचरा पैदा हो रहा है। सारी दुनिया में सबसे ज्यादा कचरा इस देश में पैदा होता है। फिर तुम रोते हो कि यह अब कचरे का क्या करें? तुम जिम्मेवार हो।

ब्राह्मण सिर्फ ब्राह्मणों से शादी करेंगे। और वह भी सभी ब्राह्मणों से नहीं; कान्यकुब्ज ब्राह्मण कान्यकुब्ज से करेंगे; और देशस्थ देशस्थ से; और कोंकणस्थ कोंकणस्थ से। और स्वस्थ ब्राह्मण तो मिलते ही कहां! वह तो असंभव ही है। कोंकणस्थ, देशस्थ--स्वस्थ का पता ही नहीं चलता। मुझे तो अभी तक नहीं मिला कोई स्वस्थ ब्राह्मण। और असल में, स्वस्थ हो, उसी को ब्राह्मण कहना चाहिए। स्वयं में स्थित हो, वही ब्राह्मण।

चमार चमार से करेंगे। फिर हो जाएंगे बाबू जगजीवन राम पैदा। फिर देखो इनकी सूरत और सिर पीटो! फिर इनके सौंदर्य को निरखो और कविताएं लिखो! 

यह जो भारत की दुर्गति है, उसमें एक बुनियादी कारण यह भी है कि यहां सब जातियां अपने-अपने घेरे में जी रही हैं--वहीं बच्चे पैदा करना, कचड़-बचड़ वहीं होती रहेगी। थोड़ा-बहुत बचाव करेंगे। मगर कितना बचाव करोगे! जिससे भी शादी करोगे, दो-चार-पांच पीढ़ी पहले उससे तुम्हारे भाई-बहन का संबंध रहा होगा। दो-चार-पांच पीढ़ी ज्यादा से ज्यादा बचा सकते हो, इससे ज्यादा नहीं बचा सकते। जितना छोटा समाज होगा, उतना बचाना मुश्किल होता चला जाएगा। मुक्त होओ! ब्राह्मण को विवाह करने दो जैन से, जैन को विवाह करने दो हरिजन से, हरिजन को विवाह करने दो मुसलमान से, मुसलमान को विवाह करने दो ईसाई से। तोड़ो ये सारी सीमाएं!

और तुम तो सीमाएं तोड़ने की बात तो दूर, तुम तो और ही सुगम रास्ता बता रहे हो। गजब की बात बता रहे हो स्वामी शांतानंद सरस्वती! कि कहां जाना दूर, अरे घर की बात घर में ही रखो! घर की संपदा घर में ही रखो। अपनी बेटी से ही शादी कर लो, कि अपनी मां से ही शादी कर लो!
इस मूर्खतापूर्ण प्रश्न को पूछने तुम पूना आए हो? और इसका उत्तर तुम्हें नहीं मिल रहा है तो तुम बड़े बेचैन हुए जा रहे हो? अब दे दिया मैंने उत्तर, अब हो गए तुम सफल, हुआ तुम्हारा जीवन कृतार्थ, अब जाओ भैया!

रहिमन धागा प्रेम का 

ओशो

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