भगवान,
समय कब बदलेगा?
हम नारियों की स्थिति कब सुधरेगी?
रामप्यारी अग्रवाल,
बदलेगा बाई,
जरूर बदलेगा। बदल ही रहा है। ठहरा कब था? जो
बदलता है उसी का नाम तो समय है। और जोर से बदल रहा है। थोड़ा सब्र, थोड़ा सा धीरज और। यूं भी अनादि काल से धीरज रखा है। थोड़ा सा धीरज और ऐसा
बदलने वाला है--समय बदलता जा रहा है--कि सदियों का बदला इकट्ठा ले लेना।
चंद रोज और मेरी जान फकत चंद ही रोज
जुल्म की छांव में दम लेने पे मजबूर हैं हम
और कुछ देर सितम सह लें,
तड़प लें, रो लें
अपने अजदाद की मीराज से माजूर हैं हम
जिस्म पर कैद है,
जज्बात पे जंजीरें हैं
फिक्र महबूस है,
गुफ्तार पे ताजीरें हैं
अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिए जाते हैं
जिंदगी क्या किसी मुफलिस की कबा है जिसमें
हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं
लेकिन अब जुल्म की मीयाद के दिन थोड़े हैं
इक जरा सब्र कि फरियाद के दिन थोड़े हैं
अर्साए-दहर की झुलसी हुई वीरानी में,
हमको रहना है तो यूं ही तो नहीं रहना है
अजनबी हाथों का बेनाम गिरांबार सितम
आज सहना है,
हमेशा तो नहीं सहना है
ये तेरे हुस्न से लिपटी हुई आलाम की गर्द
अपनी दोरोजा जवानी की शिकस्तों का शुमार
चांदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द
दिल की बेसूद तड़प,
जिस्म की मायूस पुकार
चंद रोज और मेरी
जान फकत चंद
ही रोज
बस, थोड़ा ही सा सब्र। पुरुष का बनाया हुआ घर गिरा जा रहा है। खंडहर ही रह गए
हैं। यूं भी पुरुष बाहर ही बाहर मालिक रहा है। कहने को ही मालिक रहा है। दिखाने को
ही मालिक रहा है। लाख उसने उपाय किए हैं मालकियत के, मगर
जीता कब? जीत उसकी हुई कब? घर में
घुसते ही पूंछ दबा लेता है।
और स्त्रियां होशियार हैं। कहती हैं, बाजार में चलो अकड़कर चलो,
छाती फैलाकर चलो, ताल ठोंककर चलो, कोई फिक्र नहीं। बस, घर में आए कि ढंग से रहो कि ढंग
से उठो, ढंग से बैठो। और बैठता है ढंग से; ढंग से उठता है।
मगर इतने से भी,
रामप्यारी बाई, तू राजी नहीं है, कुछ और चाहिए! वह कुछ और भी हो जाएगा। जल्दी ही वक्त आ जाएगा कि मर्दों को
डोली में बैठकर जाना पड़े। घर का कामकाज तो करने ही लगे हैं, डोली
में ही बैठना रह गया है, घूंघट ही डालना रह गया है। वह भी
होगा। आखिर इतने दिन स्त्रियां डोलियों में बैठीं और घूंघट डाले, तो उसकी प्रतिक्रिया तो होने ही वाली है।
एक दिन जब म्हारी मां दफ्तर से घर आई तो बापू बोल्यो: ऐजी, थाने दीखे कोई न छोरो जवान होरियो
है। कोई अच्छो सो घर देखके याको हाथ पीलो कर दो। कालने कोई ऊंच-नीच हो जावेगी तो
खानदान की नाक ही कट जावेगी।
बापू जब म्हारी मां से म्हारे ब्याह की बात कर रियो थो तो मैं
केंवाड़ के छेंक में से सारी बात सुन रियो थो। सुणता ही म्हारो चेहरो शरम से लाल हो
रियो थो। पंण कई छोरिया आवें और म्हाणे रिजेक्ट करके चली जावें। पंण एक दिन तन की
सूखी, मन की
रूखी, दहेज की भूखी एक छोरी म्हाणे देखवाने आई। मैं सर पर
पल्यौ, आंखां नीची करके उनकी तरफ पान की तश्तरी बढ़ाई। पंण वा
छोरी थी खेल खिलाई। पान लेता वा मोरौ आंगली दबाई। मैं दूसरा कमरा में बापू ने ले
जाके सारी बात बताई। तो बापू बोल्यो: तेरी तो तबियत यहीं घबराई। तेरी मां भी
म्हारी आंगली यांई दबाई।
पंण वा छोरी मां ने पास करी और एक दिन वो भी आयौ जब म्हारे मन
में बाजोड़ी शहनाई। म्हारे घर में भी बाजी। फिर आवै पुत्रदान के बाद जब विदा को
नम्बर आयौ तो बापी बोला, बेटा क्यूं रोवै है? मैं भी कैं करा, बेटो परायो धन होवै है। मैं डोली में बैठो-बैठो, रोतो-रोतो
गारियो था--
कि मैं अबला मरदन की बस यही कहानी,
कि मुंह पर मूंछ
और आंखों
में पानी।
ससुराल में जब म्हारा कमरा में प्राणेश्वरी आई तो मैं ऊंके
चरणों में धोक लगाई। पंण ऊंसे पहले ही वो म्हारो घूंघट उठायो और मुंह दिखाई में
जिल्लट को शेविंग सेट थंभायो। इम्पोर्टेड थो। एक दिन मैं प्राणनाथिनी ने शिकायत
करी--जी, थारी
चाची नी नीयत म्हाणे खराब नजर आवे है। वह बिना खांसा ही म्हार कमरा में घुस आवे
है। कालने मैं आइयां-वाइवां बैठे होऊं तो के होवैगो? मैं
मर्दां की तो एक इज्जत ही है, यांई लुट जावैगी तो कैने मुंह
दिखावैगो?
मत घबड़ा, रामप्यारी बाई, समय बदल रहा है, जोर से बदल रहा है। सदियों-सदियों की तकलीफ है, बस
जरा सब्र और। बाई, जरा सब्र और! फकत चंद रोज। फकत चंद ही
रोज।