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Friday, July 20, 2018

मन से कुछ विचार निकाल डालना है, किंतु वह विचार बारंबार हृदय में जबरदस्ती उठता है। उसको कैसे निकाल डालें?



होता है, किसी विचार को हम अपने मन से बाहर निकालना चाहते हैं। हो सकता है विचार प्रीतिकर न हो, दुखद हो, चिंता लाता हो, उदासी लाता हो, घृणा का विचार हो, हिंसा का विचार हो। कोई ऐसा विचार हो जिसे हम अपने मन से बाहर कर देना चाहते हैं, कोई ऐसी स्मृति हो पीड़ा से भरी हुई, अपमान की कोई स्थिति हो, दुख की कोई घटना हो, हम उसे भूल जाना चाहते हैं, विस्मरण करना चाहते हैं, मन से हटाना चाहते हैं। लेकिन जितना उसे हटाते हैं, वह और हमारे पास आती है। जितना हम उसे दूर फेंकते हैं, वह और लौट-लौट कर हमारे पास आ जाती है। तो यह पूछा है कि यह कैसे हो? कैसे उसे अलग किया जाए?


मन की प्रकृति को समझना जरूरी है, तभी कुछ किया जा सकता है। मन की प्रकृति का पहला नियम यह है कि अगर किसी चीज को भूल जाना है तो उसे भूलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। क्योंकि भूलने की कोशिश के ही कारण बार-बार उसकी याद बनी रहती है। तुम जब भी उसे भूलना चाहो तभी उसको फिर याद करना पड़ता है। और भूलने की तो कोशिश होती है, लेकिन पीछे उसकी याद वापस खड़ी हो जाती है। तुम्हें एक कहानी सुनाऊं, उससे यह समझ में आ सकेगा।


तिब्बत में मिलारेपा नाम का एक बहुत बड़ा साधु हुआ। उसके पास एक आदमी आया और उसने कहा कि मैं कोई मंत्र सिद्ध करना चाहता हूं ताकि मेरे पास बड़ी शक्तियां आ जाएं, मैं कोई चमत्कार, मिरेकल कर सकूं। मिलारेपा ने कहा कि मैं तो सीधा-सादा फकीर हूं, मुझे कोई चमत्कार नहीं मालूम और न कोई शक्ति और न कोई मंत्र। लेकिन जितना उसने इनकार किया उतना ही उस आदमी को ऐसा लगा कि जरूर इसके पास कुछ होना चाहिए, इसीलिए बताता नहीं है। वह उसके पीछे ही पड़ गया, वह उसके...रात वहीं पड़ा रहता उसके दरवाजे पर। आखिर मिलारेपा घबड़ा गया। उसने एक रात, अमावस की रात थी, उससे कहा कि ठीक है, तुम नहीं मानते, यह मंत्र ले जाओ। एक कागज पर पांच पंक्तियों का छोटा सा मंत्र लिख दिया और कहा, इस मंत्र को ले जाओ, अमावस की रात को ही यह सिद्ध होता है, इसे तुम पांच बार पढ़ना, पांच बार पढ़ते से ही यह सिद्ध हो जाएगा।


वह आदमी तो कागज को लेकर भागा। उसे धन्यवाद देने का भी खयाल न रहा, उसने नमस्कार भी नहीं की, उस दिन उसने पैर भी नहीं छुए। वह तो भागा जल्दी से कि घर जाए और मंत्र को सिद्ध करे। मंदिर की कोई बीस-पच्चीस सीढ़ियां थीं, वह उनसे नीचे उतर ही रहा था, बीच सीढ़ियों पर था, तभी उस साधु ने चिल्ला कर कहा कि सुनो, एक शर्त और है! मंत्र जब पढ़ो तो खयाल रखना बंदर की स्मृति न आए, बंदर दिखाई न पड़े। अगर मन में बंदर का खयाल आ गया तो मंत्र बेकार हो जाएगा। 


उस आदमी ने कहा, यह भी क्या बात बताई! मुझे जिंदगी हो गई, आज तक बंदर का खयाल नहीं आया, स्मृति नहीं आई। कोई डर की बात नहीं, कोई चिंता का कारण नहीं। 


लेकिन वह सीढ़ियां पूरी भी नहीं उतर पाया कि उसके भीतर बंदर की स्मृति आनी शुरू हो गई। वह जैसे घर की तरफ चला, भीतर बंदर भी उसके मन में स्पष्ट होने लगा, बंदर बहुत साफ दिखाई पड़ने लगा घर पहुंचते-पहुंचते। वह बहुत घबड़ाया। उसने कहा, यह क्या मुश्किल हो गई! वह बंदर को भगाने लगा कि हटो मेरे मन से। लेकिन बंदर था कि जितना वह हटाने लगा, और स्पष्ट होने लगा। मन में उसका बिंब, बंदर की प्रतिमा स्पष्ट होने लगी। वह घर गया, आंख बंद करे तो बंदर दिखाई पड़े, अब मंत्र को कैसे पढ़ा जाए जब तक बंदर दिखाई पड़े! रात भर में परेशान हो गया, लेकिन बंदर से छुटकारा नहीं हो सका।


सुबह वापस लौटा, उसने वह मंत्र उस साधु को लौटा दिया और कहा, क्षमा करें, अगर यही शर्त थी तो आपको मुझे बताना नहीं था। बताने से सब गड़बड़ हो गई। बंदर मुझे कभी स्मरण नहीं आता था, आज रात भर बंदर मेरे पीछे पड़ा रहा। और दुनिया का कोई जानवर मुझे दिखाई नहीं पड़ा, सिर्फ बंदर दिखाई पड़ा। और मैं इसे रात भर निकालने की कोशिश करता था, लेकिन वह नहीं निकलता था।


जिसको कोई निकालना चाहेगा उसे निकालना कठिन हो जाएगा, क्योंकि निकालने के कारण ही उसकी स्मृति परिपक्व होती है, मजबूत होती है। तो फिर क्या रास्ता है


अगर किसी विचार को, किसी स्मृति को निकालना हो मन से, तो पहली तो बात यह है, निकालने की कोशिश मत करना। पहली शर्त! फिर क्या होगा? अगर नहीं निकालेंगे तब तो वह आएगा। सिर्फ उसको देखना। निकालना मत, मात्र चुपचाप बैठ कर उसे देखना। न उसे निकालना, न उसे हटाना। तटस्थ-भाव से विटनेस भर हो जाना, उसके साक्षी भर हो जाना। 


जैसे कोई रास्ते पर बैठ जाए--रास्ते पर लोग निकलते हैं, तांगे निकलते हैं, कारें निकलती हैं, जानवर निकलते हैं--किनारे पर हम बैठ कर चुपचाप देख रहे हैं। रास्ता चल रहा है, न हम चाहते हैं कि फलां आदमी रास्ते पर चले, न हम यह चाहते हैं कि फलां आदमी न चले, हम सिर्फ देख रहे हैं। हमारा कोई लगाव नहीं, हम मात्र देख रहे हैं अनासक्त भाव से, बिना किसी लगाव के, अनअटैच्ड, सिर्फ देख रहे हैं।


ठीक ऐसे ही, अगर मन से किन्हीं विचारों से मुक्ति पानी हो, तो सिर्फ देखना, उनसे लड़ना मत। लड़ने के बाद तो उनको हटाना असंभव है। मात्र उनको देखना। जब भी कोई स्मृति ऐसी है जो हटाने जैसी है, कोई विचार ऐसा है जिसे विदा करना है--एकांत में बैठ जाओ, उसे आने दो, आंख बंद कर लो, चुपचाप देखो। जैसे फिल्म देखते हैं हम, सिनेमा में बैठ कर एक पर्दे पर चलते हुए चित्रों को देखते हैं, वैसे चुपचाप उसे देखो। कुछ करो मत, छेड़ो मत, हटाओ मत, बुलाओ मत, मात्र देखो--जैसे केवल एक दर्शक मात्र। तुम हैरान हो जाओगे, अगर दर्शक मात्र की तरह देखो तो थोड़ी देर में वह विलीन हो जाएगी। और जब भी वह आए तब दर्शक की तरह देखो, कुछ दिनों में वह विलीन हो जाएगी, उसका आना बंद हो जाएगा।

समाधि कमल 

ओशो

ब्रह्मचर्य कामवासना का त्याग नहीं है


जब दो शरीर के बीच आकर्षण होता है तो काम; जब दो मनों के बीच आकर्षण होता है तो प्रेम--जिसे हम प्रेम कहते हैं; जब दो आत्माओं के बीच आकर्षण होता है तब प्रार्थना; और जब दो बिलकुल खो जाते हैं, दो ही नहीं रह जाते, तब इसक, जिसको दादू प्रेम कहते हैं; जिसको जीसस ने प्रेम कहा है। वह आखिरी ऊंचाई है। 

वे सीढ़ियां तुम्हारे भीतर हैं। तुम पहली ही सीढ़ी पर खड़े रह जाओ तो कोई और जिम्मेवार नहीं है। दूसरी सीढ़ी पास ही थी। लेकिन कोई अड़चन होनी चाहिए। कोई गहरी बाधा होनी चाहिए। इतने लोग चूक जाते हैं कि करीब-करीब ऐसा लगता है, चूकना स्वाभाविक है। और इतने कम लोग उपलब्ध हो पाते हैं कि ऐसा लगता है, पाना अपवाद है, नियम नहीं। कोई बुद्ध, कोई चैतन्य, कोई दादू, कोई नानक--कभी करोड़ों लोगों में एक। 

बाधा है: मरने का डर। क्योंकि जितनी ऊंचाई पर तुम जाते हो, उतना ही तुम्हारा अहंकार क्षीण होने लगता है, गलने लगता है। जितनी ऊंचाई होगी, उतने ही तुम कम हो जाओगे। यह डर है। जितनी नीचाई होगी, उतने ही तुम रहोगे। ठीक जमीन पर पड़े रहो तो पत्थर की चट्टान की तरह तुम होओगे। स्वभावतः ऊपर उठना हो तो पत्थर की चट्टानें ऊपर नहीं उठतीं; सुगंध उठती है, अग्नि की शिखा उठती है, भाप उठती है। विरल हो जाना पड़ता है। स्वयं को खोना पड़ता है।

कामवासना में कोई खोता नहीं अपने को। कामवासना में तुम तुम रहते हो। तुम दूसरे का उपयोग कर लेते हो। तुम मिटते नहीं, वस्तुतः तुम दूसरे को मिटाने की चेष्टा करते हो।

इसीलिए तो पति-पत्नियों में इतनी कलह है सारे संसार में पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास में। हजार तरह से सोचा गया है कि पति-पत्नी की कलह कैसे मिटे। कोई उपाय नहीं दिखता। कलह मिट नहीं सकती, ऐसा लगता है। 


जब तक मनुष्य ऊपर न उठना सीखे, कलह नहीं मिट सकती। कलह यही है कि पत्नी पति को मिटाने की चेष्टा कर रही है, पति पत्नी को मिटाने की चेष्टा कर रहा है। एक गहन संघर्ष है, जो चाहे उन्हें ज्ञात भी न हो। पति कोशिश कर रहा है कि मैं सब कुछ हूं, तू मेरी परिधि है। पत्नी भी यही कोशिश कर रही है कि मैं केंद्र हूं, तुम परिधि हो। दोनों के अहंकार अपने को बचाने की चेष्टा में संलग्न हैं। कहीं दूसरा मिटा न दे। इसके पहले कि दूसरा मिटाए, मैं उसे मिटा दूं; यही सुरक्षा का उपाय मालूम पड़ता है। 


इसलिए कामवासना प्रेम की तो बड़ी दूर की खबर है, हिंसा की ज्यादा। और अगर ज्ञानियों ने कामवासना से ऊपर उठने को कहा है, तो इसीलिए कहा है। महावीर ने तो स्पष्ट कहा है कि कामवासना हिंसा है। ये जैन शास्त्र अब तक नहीं समझा पाए हैं इस बात को कि कामवासना को हिंसा कहने का अर्थ क्या है? उन्होंने मूढ़तापूर्ण बातें खोज ली हैं, पंडितों ने, कि संभोग करने में कीटाणुओं की हिंसा होती है। क्योंकि दो शरीर का घर्षण होता है, इसलिए कुछ कीटाणु छोटे हवा के मर जाते हैं। इसलिए महावीर ने कामवासना को हिंसा कहा है।


पंडितों से मूढ़ आदमी खोजने मुश्किल हैं। उनके पास आंखें तो नहीं हैं, अंधे हैं। शब्दों के कुछ भी अर्थ तो निकालने ही पड़ेंगे। तो वे अपने अंधेपन से यह अर्थ निकाल लेते हैं। कामवासना को महावीर ने इसलिए हिंसा नहीं कहा है। इसलिए हिंसा कहा है कि जहां भी काम है वहां दूसरे को मिटाने की चेष्टा है। वही हिंसा है। और जब तक काम प्रेम न बन जाए तब तक हिंसा जारी रहेगी। और जब तक काम प्रेम न बन जाए तब तक ब्रह्मचर्य का कोई आविर्भाव न होगा।


तो ब्रह्मचर्य कामवासना का त्याग नहीं है, बल्कि कामवासना के भीतर जो छिपे हुए प्रेम का तत्व है, उसको मुक्त करना है। कामवासना की हत्या नहीं कर देनी है। यह तो ऐसे हुआ जैसे बीज को कुचल कर मार डाला। अब तुम बैठे रहो, सुगंध न आएगी। यद्यपि बीज के रहते भी सुगंध न आ सकती थी। बीज को टूटना था--टूटना था भूमि में; ताकि बीज तो मिट जाए, लेकिन बीज में छिपी हुई जो सुवास है वह मुक्त हो जाए। उसको मुक्त होने पर लंबी यात्रा करनी पड़ेगी। बीज को वृक्ष बनना पड़ेगा, वृक्ष को फूल बनना पड़ेगा, फूल से सुवास मुक्त होगी। लंबी यात्रा है। 

सबै सयाने एक मत 

ओशो

मैं न सत्य को देखता हूं न सौंदर्य को। प्रभु का भी मुझे कुछ आभास नहीं होता है। आपकी बातें न समझ पाता हूं न पचा पाता हूं। मैं क्या करूं?




प्रभु को देखने का प्रश्न नहीं है, आंख खोलने का प्रश्न है। सौंदर्य को अनुभव करने की बात ऐसी नहीं है कि सौंदर्य वहां पड़ा है और अनुभव हो जाए। सौंदर्य को अनुभव करनेवाला संवेदनशील हृदय जगाना पड़ता है। भीतर संवेदनशील हृदय हो तो बाहर सौंदर्य है। अंधा आदमी प्रकाश को तलाशे और प्रकाश उसे न मिले, तो प्रकाश का कोई कसूर है? अंधे आदमी को आंख का इलाज खोजना चाहिए, आंख की औषधि खोजनी चाहिए। अंधे आदमी को सूरज की खोज में नहीं जाना चाहिए, वैद्य की खोज में जाना चाहिए।


इसलिए संतों ने निरंतर कहा है कि परमात्मा को मत खोजो, गुरु को खोजो। परमात्मा को कैसे खोजोगे? परमात्मा को खोजने में तुम सीधे समर्थ होते तो तुमने कभी का खोज लिया होता।
 
एक अंधे आदमी को बुद्ध के पास लाया गया था। वह अंधा आदमी बड़ा तार्किक था। अंधे अकसर तार्किक हो जाते हैं। अंधों को तार्किक होना पड़ता है। तार्किकता अंधेपन के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ी है। कारण है। अंधा आदमी अगर यह चुपचाप मान ले कि प्रकाश है तो उसने यह भी मान लिया कि मैं अंधा हूं। और कौन मानना चाहता है  कि मैं अंधा हूं! मन को पीड़ा होती है। अहंकार को चोट पड़ती है। छाती में घाव हो जाता है। प्रकाश को मानो तो यह मानना पड़ेगा कि मैं अंधा हूं, क्योंकि मुझे दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए उचित यही है कि प्रकाश को ही न मानो। जड़ से ही काट दो बात, प्रकाश है ही नहीं। और जब प्रकाश नहीं है तो मुझे क्यों दिखाई पड़ेगा, कैसे दिखाई पड़ेगा? प्रकाश को इनकार करके अंधे आदमी ने अपने अंधेपन को इनकार कर दिया। उसने अपने घाव से बचा लिया। वह जो पीड़ा होती है, वह जो अवमानना होती है, वह जो अपने ही सामने दीनता हो जाती कि मैं अंधा हूं, अभागा हूं, उससे बचने का उपाय क्या है? उससे बचने का एक ही उपाय है कि प्रकाश है ही नहीं। इसलिए अंधा तार्किक हो जाता है।


नास्तिक का इतना ही अर्थ होता है कि वह आदमी आत्मरक्षा में लगा है। कह रहा है : ईश्वर नहीं है। क्योंकि अगर ईश्वर है, तो फिर मैं दीन हूं। अगर ईश्वर है, तो फिर मैंने अपने जीवन का कोई सदुपयोग नहीं किया। अगर ईश्वर है, तो मैंने ऐसे ही कूड़े-कांकर को इकट्ठा करने में जीवन गंवा दिया। मैं व्यर्थ गया। 


कौन मानना चाहता है कि मैं व्यर्थ गया! मैं सार्थक हूं, तो एक ही उपाय है कि ईश्वर नहीं है। होता तो मुझे भी मिल गया होता, मुझमें क्या कमी थी? मेरी पात्रता में कौन-सी कमी है? होता तो मुझे भी मिल गया होता। नहीं मिला, तो इसके दो ही कारण हो सकते हैं : या तो मैं अपात्र हूं या वह नहीं है। दूसरी ही बात माननी आसान मालूम पड़ती है, अहंकार के विपरीत नहीं जाती । इसलिए मैंने कहा कि अंधे तार्किक हो जाते हैं। साधारण अंधों की बात नहीं कर रहा हूं, आध्यात्मिक अंधों की बात कर रहा हूं।


उस अंधे आदमी को बुद्ध के पास ले जाया गया। बड़ा तार्किक था! जो भी सिद्ध करना चाहते कि प्रकाश है, वह असिद्ध कर देता और भी एक बात खयाल में ले लेना, जिसको प्रकाश दिखाई नहीं पड़ा है, तुम उसके सामने प्रकाश को सिद्ध करना भी चाहोगे तो कर न पाओगे। वह तुम्हें असिद्ध कर देगा। यद्यपि तुम जानते हो कि प्रकाश है, मगर जानना एक बात है और जनाना दूसरी बात है। जानने से क्या होता है? कैसे सिद्ध करोगे अंधे आदमी के सामने कि प्रकाश है? न तो प्रकाश को उसके हाथ में दे सकते हो कि वह छू ले, चख ले, गंध ले ले, प्रकाश को बजाकर ध्वनि सुन ले। ये चार इंद्रियां उसके पास हैं।


वह अंधा आदमी भी अपने मित्रों को कहता था कि तुम प्रकाश को मुझे दे दो, मैं ज़रा हाथ में प्रकाश लेकर स्पर्श कर लूं। और ऐसा भी नहीं है कि प्रकाश हाथ में नहीं पड़ता है, लेकिन प्रकाश का स्पर्श नहीं होता। खड़े हो धूप में तो हाथ पर प्रकाश बरस रहा है, लेकिन स्पर्श नहीं होता।


वह अंधा आदमी कहता था कि मुझे दे दो, ज़रा मैं चख लूं--मीठा है, कड़वा है, तिक्त है, स्वाद क्या है? कोई भी चीज हो तो उसका स्वाद तो होगा। उसे बजाकर, ठोक कर देख लूं, कुछ आवाज तो निकलेगी! ऐसे मैं मान लूंगा कि आज प्रकाश है।


वे थक गए थे, हार गए थे। उनका सारा अनुभव दो कौड़ी का कर दिया था उस अंधे आदमी ने। एक नास्तिक हजारों अनुभव से भरे हुए लोगों को हरा सकता है। नकार की वह बड़ी खूबी है। तुम कहो कि चांद सुंदर है और हजार लोग कहें कि चांद सुंदर है, लेकिन एक आदमी खड़ा हो जाए और कहे कि सिद्ध करो,क्या सौंदर्य है, कौन-सा सौंदर्य, कहां है सौंदर्य?--तो हजार व्यक्ति जो अनुभव कर रहे थे चांद का सौंदर्य, अपने भीतर सिकुड़ जाएंगे, कोई उपाय न पाएंगे। अनुभव को सिद्ध करने का कोई उपाय होता ही नहीं।


वे उस आदमी को बुद्ध के पास ले आए, सोचा कि बुद्ध तो सिद्ध कर सकेंगे! लेकिन बुद्ध अनूठे व्यक्ति थे। बुद्ध ने कहा, तुम इसे मेरे पास लाए क्यों, इसे किसी वैद्य के पास ले जाओ। मेरा अपना वैद्य है, जो कभी-कभी मेरी चिकित्सा करता है। जीवक उसका नाम है, तुम उसके पास ले जाओ। इसकी आंख पर जाली है, जाली कटनी चाहिए। जाली कट गई। छह महीने के बाद वह अंधा आदमी नाचता हुआ आया, बुद्ध के चरणों में गिरा और कहा : मुझे क्षमा कर दें। मैंने उस समय जो बातें कही थीं, मैं अज्ञानी था। मैंने जो दंभ दिखलाया था कि प्रकाश नहीं है, वह मेरी भ्रांति थी। मगर मैं और कर भी क्या सकता था? मुझे दिखाई नहीं पड़ता था, तो मुझे ऐसा ही लगता था कि जितने लोग कहते हैं प्रकाश है, वे सब मुझे अंधा सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं। मुझे पीड़ा होती थी। प्रकाश शब्द ही मुझे कांटे की तरह चुभता था। आपने भला किया मुझे समझाया नहीं, समझाते तो मैं समझता नहीं। मैं आपसे भी जूझा होता, आपसे भी विवाद किया होता। और अब मैं जानता हूं, मैंने देख लिया। मैं भी किसी अंधे आदमी को समझा न सकूंगा। अब मैं आपकी तकलीफ भी समझता हूं। और मेरे मित्रों की तकलीफ भी समझता हूं; उनसे भी क्षमा मांग आया हूं।


तुम पूछो कि मैं न सत्य को देखता हूं न सौंदर्य को। प्रभु का भी मुझे कुछ आभास नहीं होता है, तो इसका एक ही अर्थ है कि तुम्हारे भीतर जो संवेदना के स्रोत होने चाहिए, वे सोए पड़े हैं। उन्हें जगाना होगा। तुम परमात्मा की बात ही छोड़ दो। तुम ध्यान करो। 

ज्योति से ज्योति जले 

ओशो

एक और मित्र ने पूछा है कि मैंने कहा कि शास्त्रों में सत्य नहीं है, तो फिर मेरी किताबें क्यों हैं? क्यों बेची जाती हैं? क्यों लोगों को दी जाती हैं?




वे शास्त्र और किताब के फर्क को नहीं समझ पाए। किताबों के विरोध में मैं नहीं हूं। गीता एक किताब हो, तो ठीक। कुरान एक किताब हो, तो ठीक। जिस दिन कोई किताब शास्त्र बनती है, उसी दिन से खतरा शुरू होता है।


शास्त्र और किताब में फर्क क्या है?


जब कोई किताब आथारिटी बन जाती है, आप्त बन जाती है--जब कोई किताब यह दावा करती है कि ईश्वरीय है, होली है, पवित्र है--जब कोई किताब यह दावा करती है कि इसमें जो लिखा है, वह त्रिकाल में सत्य है--जब कोई किताब यह दावा करती है कि इससे अन्यथा जो है, वह सब गलत है--जब कोई किताब यह कहती है कि मेरी पूजा करो--जब कोई किताब पूजा पाने लगती है, आप्त बन जाती है, दावे करने लगती है कि जो कुछ है मैं हूं, यही सत्य है, इस पर श्रद्धा लाने से ही ज्ञान उपलब्ध होगा--तब किताब, किताब नहीं रह जाती, शास्त्र बन जाती है। और शास्त्र खतरनाक सिद्ध होते हैं--किताबें--किताबें तो बहुत निर्दोष हैं। उनमें कोई खतरा नहीं है।


तो ये जो मेरी किताबें हैं, जब तक किताबें हैं, तब तक कोई खतरा नहीं है। लेकिन अगर कुछ नासमझ यहां इकट्ठे हो गए, और इनमें से किसी किताब को उन्होंने शास्त्र कह दिया, तो खतरा शुरू हो जाएगा। उस दिन इनको जला देना, इनको एक क्षण बचने मत देना--जिस दिन भी कोई इनको शास्त्र कहे। क्योंकि तब यह मनुष्य को बांधने वाली हो जाती हैं।


एक खलीफा सिकंदरिया पहुंचा था। और सिकंदरिया के बहुत बड़े विराट पुस्तकालय में उसने आग लगवा दी थी। उस पुस्तकालय में, कहा जाता है संभवतः दुनिया की सर्वाधिक किताबें संगृहीत थीं। एक बड़ी संपदा थी वह। इतनी पुस्तकें थीं वहां कि आग लगाने पर छह महीने तक आग बुझ नहीं सकी। छह महीने तक पुस्तकालय जलता रहा।


जिस खलीफा ने वहां आग लगाई थी, वह अपने हाथ में एक शास्त्र लेकर पहुंचा था, वह कुरान लेकर पहुंचा था। अगर कुरान भी एक किताब होती तो उस लाइब्रेरी में आग लगाने की कोई जरूरत न थी। वहां और किताबें थीं, कुरान भी एक किताब थी। यह भी उन किताबों में सम्मिलित हो सकती थी।
लेकिन कुरान था एक शास्त्र। लाइब्रेरी में कोई शास्त्र नहीं था। क्योंकि एक शास्त्र, दूसरे शास्त्र को नहीं मानता; दूसरे शास्त्र के प्रति बड़ार् ईष्यालु होता है, क्योंकि शास्त्र हो सकता है एक, पच्चीस दावे सही नहीं हो सकते। एक ही दावा सही हो सकता है।


उस खलीफा ने जाकर उस पुस्तकालय के अध्यक्ष को कहा था--एक हाथ में कुरान लेकर और एक हाथ में मशाल--उससे कहा था कि मैं यह पूछने आया हूं कि कुरान में जो कुछ लिखा है, तुम्हारे इस पुस्तकालय में जो किताब हैं, क्या उनमें भी वही लिखा है जो कुरान में लिखा है? अगर वही लिखा है तो इतनी किताबों की कोई जरूरत नहीं, कुरान काफी है, कुरान पर्याप्त है। अगर वही बातें लिखी हैं तो इतना यहां...इतना उपद्रव मचाने की क्या जरूरत है? और अगर तुम्हारी इन किताबों में ऐसी बातें भी लिखी हैं जो कुरान में नहीं हैं, तब तो इस पुस्तकालय को एक क्षण बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। क्योंकि कुरान के अतिरिक्त जो कुछ भी है, सब गलत है। सत्य तो कुरान है।


तो उस खलीफा ने कहा, दोनों हालत में--तुम्हारा उत्तर चाहे कुछ भी हो, मैं आग लगाने आया हूं। चाहे तुम कहो कि इनमें भी वही बातें लिखी हैं जो कुरान में हैं, तब मैं कहूंगा कि फिजूल हैं ये किताबें। और अगर तुम कहो कि इनमें ऐसी बातें भी हैं जो कुरान में नहीं, तो मैं कहूंगा खतरनाक हैं ये किताबें। इनको इसी वक्त जला देना जरूरी है।


उसने एक हाथ में...कुरान को नमस्कार करके और उस पुस्तकालय में आग लगा दी।


यह कुरान शास्त्र था, अगर किताब होती तो इस पुस्तकालय में आग नहीं लग सकती थी।

मैंने किताबों के विरोध में कुछ भी नहीं कहा है। जो कहा है शास्त्र के विरोध में कहा है। शास्त्र किताब नहीं है--पागल हो गई किताब है।

असंभव क्रांति 

ओशो 


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