प्रेम में ईष्या हो तो प्रेम ही नहीं है; फिर प्रेम के नाम से कुछ और
ही रोग चल रहा है। ईष्या सूचक है प्रेम के अभाव की।
यह तो ऐसा ही हुआ,
जैसे दीया जले और अंधेरा हो। दीया जले तो अंधेरा होना नहीं चाहिए।
अंधेरे का न हो जाना ही दीए के जलने का प्रमाण है। ईष्या का मिट जाना ही प्रेम
का प्रमाण है। ईष्या अंधेरे जैसी है; प्रेम प्रकाश जैसा
है। इसको कसौटी समझना। जब तक ईष्या रहे तब तक समझना कि प्रेम प्रेम नहीं। तब तक
प्रेम के नाम से कोई और ही खेल चल रहा है; अहंकार कोई नई
यात्रा कर रहा है--प्रेम के नाम से दूसरे पर मालकियत करने का मजा, प्रेम के नाम से दूसरे का शोषण, दूसरे व्यक्ति का
साधन की भांति उपयोग। और दूसरे व्यक्ति का साधन की भांति उपयोग जगत में सबसे बड़ी
अनीति है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा है। प्रत्येक व्यक्ति साध्य है,
साधन नहीं। तो भूल कर भी किसी का उपयोग मत करना। किसी के काम आ सको
तो ठीक, लेकिन किसी को अपने काम में मत ले आना। इससे बड़ा कोई
अपमान नहीं है कि तुम किसी को अपने काम में ले आओ। इसका अर्थ हुआ कि परमात्मा को
सेवक बना लिया। सेवक बन सको तो बन जाना, लेकिन सेवक बनाना
मत।
असली प्रेम उसी दिन उदय होता है जिस दिन तुम इस सत्य को समझ
पाते हो कि सब तरफ परमात्मा विराजमान है। तब सेवा के अतिरिक्त कुछ बचता नहीं।
प्रेम तो सेवा है: ईष्या नहीं। प्रेम तो समर्पण है; मालकियत नहीं।
पूछा है: "प्रेम में ईष्या क्यों है?'
लेकिन, प्रश्न पूछने वाले की तकलीफ मैं समझ सकता हूं। सौ में निन्यानबे मौके पर
जिस प्रेम को हम जानते हैं वह ईष्या का ही दूसरा नाम है। हम बड़े कुशल हैं। हम
गंदगी को सुगंध छिड़क कर भुला देने में बड़े निपुण हैं। हम घावों के ऊपर फूल रख देने
में बड़े सिद्ध हैं। हम झूठ को सच बना देने में बड़े कलाकार हैं। तो होती तो ईष्या
ही है; उसे हम कहते प्रेम हैं। ऐसे प्रेम के नाम से ईष्या
चलती है। होती तो घृणा ही है; कहते हम प्रेम हैं। होता कुछ
और ही है।
एक देवी ने और प्रश्न पूछा है। पूछा है कि "मैं सूफी ध्यान
नहीं कर पाती और न मैं अपने पति को सूफी ध्यान करने दे रही हूं। क्योंकि सूफी
ध्यान में दूसरे व्यक्तियों की आंखों में आंखें डाल कर देखना होता है। वहां
स्त्रियां भी हैं। और पति अगर किसी स्त्री की आंख में आंख डाल कर देखे और कुछ से
कुछ हो जाए तो मेरा क्या होगा?
और वैसे भी पति से मेरी ज्यादा बनती नहीं है।'
जिससे नहीं बनती है उसके साथ भी हम प्रेम बतलाए जाते हैं। जिसको
कभी चाहा नहीं है उसके साथ भी हम प्रेम बतलाए चले जाते हैं। प्रेम हमारी कुछ और ही
व्यवस्था है--सुरक्षा, आर्थिक, जीवन की सुविधा। कहीं पति छूट जाए तो घबराहट
है। पति को पकड़ कर मकान मिल गया होगा, धन मिल गया होगा--जीवन
को एक ढांचा मिल गया है। इसी ढांचे से अगर तुम तृप्त हो तो तुम्हारी मर्जी। इसी
ढांचे के कारण तुम परमात्मा को चूक रहे हो, क्योंकि परमात्मा
प्रेम से मिलता है। प्रेम के अतिरिक्त परमात्मा के मिलने का और कोई द्वार नहीं है।
जो प्रेम से चूका वह परमात्मा से भी चूक जाएगा।
जगत तरैया भोर की
ओशो
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