शास्त्रों का सार इतना ही है कि प्रश्न करने का नहीं, जानने का है। समस्त ज्ञानियों
को एक छोटे सूत्र में निचोड़ा जा सकता है कि करने से कुछ न होगा, जानने से होगा। अगर जानने की घटना न घटी तो तुम जो भी करोगे, तुम्हारे अज्ञान में ही उसकी जड़ें होंगी। अज्ञान से किया गया शुभ कर्म भी अशुभ
हो जाता। ज्ञान से अशुभ जैसा जो दिखाई पड़ता, वह भी शुभ है। इसलिए
मौलिक रूपांतरण प्रज्ञा का है, ज्ञान का है, ध्यान का है, आचरण का नहीं।
पहला सूत्र अष्टावक्र का?
'अज्ञानी कर्मोंको नहीं करता हुआ भी सर्वत्र संकल्प विकल्प
के कारण व्याकुल होता है: नहीं करता हुआ भी व्याकुल होता है और
ज्ञानी सब कर्मों को करता हुआ भी शांत चित्त वाल्रा ही होता है।’
इसलिए प्रश्न कर्म को छोड़ कर भाग जाने का नहीं है, कर्म संन्यास
का नहीं है। प्रश्न है, अज्ञान से मुक्त हो जाने का। और अज्ञान
से तुम यह मत समझना : सूचनाओं की, जानकारी की कमी। नहीं,
अज्ञान से अर्थ है आत्मबोध का अभाव। तुम कितनी ही सूचनाएं इकट्ठी कर
लो, कितना ही ज्ञान इकट्ठा कर लो, उससे
ज्ञानी न होओगे जब तक कि भीतर का दीया न जले, जब तक कि प्रभा
भीतर की प्रकट न हो। तब तक तुम बाहर से कितना ही इकट्ठा करो, उस कचरे से कुछ भी न होगा। पंडित बनोगे, प्रज्ञावान न
बनोगे। विद्वान हो जाओगे, लेकिन विद्वान हो जाना धोखा है। विद्वान
हो जाना ज्ञानी होने का धोखा है। बुद्धिमानी नहीं है विद्वान हो जाना। दूसरों को तो
धोखा दिया ही दिया, अपने को भी धोखा दे लिया।
बुद्ध से कम हुए बिना न चलेगा। जागे मन, हो प्रबुद्ध, तो ही कुछ गति है। न करते हुए भी अज्ञानी उलझा रहता है। विचार में ही करता
रहता है। बैठ जाए गुफा में तो भी सोचेगा बाजार की। ध्यान के लिए बैठे तो भी न मालूम
कहां कहां मन विचरेगा। संकल्प विकल्प उठेंगे ऐसा कर लूं ऐसा न करूं। कल्पना में करने लगेगा। कल्पना में ही हत्या कर देगा,
हिंसा कर देगा, चोरी कर लेगा, बेईमानी कर लेगा। हाथ भी नहीं हिला, पलक भी नहीं हिली
और भीतर सब हो जाएगा। क्योंकि संसार अज्ञान में फैलता है।
संसार के होने के लिए और कोई चीज जरूरी नहीं है, सिर्फ अज्ञान जरूरी है। जैसे
स्वप्न के होने के लिए और कुछ जरूरी नहीं है, केवल निद्रा जरूरी
है। सो गए कि सपना शुरू। और कोई साधन सामग्री नहीं चाहिए सिर्फ
नींद काफी है। नींद एकमात्र जरूरत है। फिर तुम यह नहीं कहते कि कहां है मंच?
कहां हैं परदे? कहां है निर्देशक? कहां है अभिनेता? कैसे हो यह खेल सपने का? नहीं, एक चीज के पूरे होने से सब पूरा हो गया नींद आ गई तो तुम ही बन गए अभिनेता, तुम ही बन गए निर्देशक,
तुम्हीं ने लिख ली कथा, तुम्हीं ने लिख लिए गीत,
तुम्हीं बन गए मंच, तुम्हीं फैल गए सब चीजों में।
तुम्हीं बन गए दर्शक भी। और सारा खेल रच डाला।
एक चीज जरूरी थी नींद।
ऐसे ही संसार के लिए भी एक चीज जरूरी है मूर्च्छा, बेहोशी। बस, फिर संसार फैला। फिर किसी की भी आवश्यकता
नहीं है।
तो तुम यह मत सोचना कि बाजार को छोड़ कर अगर हिमालय चले गए तो संसार छूट जाएगा। क्योंकि संसार के होने के लिए एक ही चीज जरूरी है मूर्च्छा। गाव में
बैठे बैठे मूर्च्छा
की झपकी आ गई, झोंका आ गया, संसार फैल गया।
वहीं राम विवाह रचा लोगे, वहीं बच्चे पैदा हो जाएंगे।
अष्टावक्र महागीता
ओशो
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