यदि अश्लीलता सुन कर,
देख कर पैदा होती हो तो यह कहना पड़ेगा कि अश्लीलता अप्रकट होगी,
पोटेंशियल होगी, थोड़ी-बहुत छिपी होगी स्वयं
उनसे, जो फिल्मों और चित्रों को देख कर प्रकट हो गई है।
लेकिन चित्र और फिल्म अश्लीलता पैदा नहीं कर सकते हैं। ज्यादा से ज्यादा दो बातें
हो सकती हैं। पहली तो जो मैं कहता हूं कि हमारे मन की मांग है, वे मांग की पूर्ति करते हैं।
यह हो सकता है कि जितनी हमारे मन की मांग हो उतनी हमको भी पता न
हो। बहुत सी मांग हमारे सामने भी जाहिर न हो,
अचेतन हो, अनकांशस हो। तो जब हम नंगे चित्र को
देखें, तो जो हमें पता नहीं था, उतनी
मांग और जग जाए। लेकिन वह जगना भी हमारे भीतर ही छिपा हुआ है। वह कोई फिल्म,
नंगी फिल्म देख कर पैदा नहीं हो जाने वाला है। मनुष्य के मन में
बहुत सा उसके सामने ही प्रकट नहीं है, जो किन्हीं बहानों और
मौकों को पाकर प्रकट हो सकता है।
इसलिए मैं कहूंगा कि फिल्म बंद करने का सवाल नहीं है और न गंदे
चित्र बंद करने का सवाल है। अगर गंदे चित्र बंद भी कर दिए, तो भी जो अश्लीलता छिपी है,
न हो प्रकट, तो भी मौजूद है। और चाहे अचेतन
में मौजूद हो, उसकी क्रिया हमारे जीवन के बहुत व्यवहारों को
आंदोलित और प्रभावित करती ही रहेगी। और हमारी खोज भी जारी रहेगी।
आकस्मिक नहीं है अश्लील चित्रों का बन जाना। हमारी मांग की
पूर्ति है। और फिर कुछ समझदार लोग देख लेते हैं कि मांग किस बात की है। उसका
व्यावसायिक फायदा भी उठाया जा सकता है। वे उसका व्यावसायिक फायदा भी उठा रहे हैं।
पर ऐसा मुझे नहीं दिखाई पड़ता है कि हमारे चित्त में जो छिपा न
हो, मौजूद न हो,
वह कोई अश्लील किताब पढ़ कर हममें पैदा हो जाए। और यह भी मजा है कि
अगर हमारे भीतर छिपा हो, तो जो अश्लील नहीं भी है वह भी हमें
अश्लील दिखाई पड़ सकता है।
गांधी जी की आत्मकथा तो कोई अश्लील नहीं कहेगा। लेकिन जब गांधी
जी ने आत्मकथा लिखी तो अनेक लोगों ने पत्र लिखे कि आपकी किताब अश्लील है, हमें पढ़ कर कामोत्तेजना हो
जाती है। तो कृपा करके ये-ये हिस्से अपनी आत्मकथा से अलग कर दीजिए। गांधी जी तो
बहुत हैरान हुए। और गांधी जी के आस-पास के लोग भी बहुत हैरान हुए कि गांधी जी की
आत्मकथा भी अश्लील उत्तेजना किसी को देती हो!
तो खयाल यही पड़ा कि जिनके मन में छिपा हुआ बहुत हो, तो सामने अश्लीलता न भी हो,
थोड़ा सा इशारा भी मिल जाए, तो भी भीतर की
अश्लीलता जग जा सकती है। और अगर भीतर चित्त परिपूर्ण रूप से अश्लीलता से मुक्त हुआ
हो, तो कोई भी चित्र, नग्न स्त्री भी
बेमानी है।
तांत्रिकों ने बहुत गहरे प्रयोग इस संबंध में किए हैं। संभवतः
दुनिया में किसी और ने नहीं किए। लेकिन उन प्रयोगों को तो हमने इस मुल्क में सब
तरफ से, जड़-मूल
से काट डाला है। उनका गहरा से गहरा प्रयोग यह था कि अगर नग्न स्त्री के सामने
पुरुष चिंतन करे, ध्यान करे, तो उसके
भीतर जो नग्न स्त्री की मांग छिपी है, वह धीरे-धीरे तिरोहित
हो जाती है। और एक क्षण आ सकता है कि उसके चेतन-अचेतन में नग्न स्त्री की कोई मांग
न रह जाए। उस दिन उस आदमी के लिए कोई नग्न चित्र और नग्न गीत कोई अर्थ नहीं रखेगा।
लेकिन हमारे सबके भीतर मांग छिपी हुई है। छिपी हुई मांग दो तरह
की है--एक तो जो थोड़ी-बहुत हमें ज्ञात होती है, और एक जो हमें भी अज्ञात होती है। नग्न चित्र
इतना काम कर सकते हैं कि जो हमें अज्ञात है, उसे भी ज्ञात कर
दें; लेकिन वे पैदा नहीं करते हैं। ऐसी मेरी समझ है। यह गलत
हो सकती है। लेकिन ऐसी मेरी समझ है कि कोई चित्र, कोई फिल्म,
कोई गीत, कोई कविता, कोई
उपन्यास, जो हममें नहीं छिपा है उसे पैदा नहीं कर दे सकता
है। कहीं हममें छिपा हुआ कोई हिस्सा उभर कर आ सकता है, प्रकट
हो सकता है।
इसलिए मैंने कहा था कि नग्न चित्र और तस्वीरें बंद करने की
जरूरत नहीं है, बल्कि
मनुष्य के मन में नग्न की मांग क्यों है, अश्लील की मांग
क्यों है--उसे हम समझें और उस मांग को मिटाने की कोशिश करें, तो शायद अपने आप व्यर्थ हो जाएं नग्न तस्वीरें।
लेकिन हमारा जो प्यूरिटन माइंड है, वह जो हजारों साल से हमको
परेशान किए हुए है...और सच तो यह है कि उस प्यूरिटन माइंड की वजह से ही अश्लीलता
हममें पैदा हुई है। उसने जितना हमें दबाने को कहा है, जितना
बदलने को कहा है, जितना रोकने को कहा है, उतना हम अश्लील होते चले गए हैं। वह माइंड, वह चित्त
हमसे कहता है कि नहीं, नग्न चित्र नहीं, नग्न मूर्ति नहीं, गीत नहीं, शब्द
नहीं, कोई भी नहीं। लेकिन उससे कुछ मिटता नहीं। इधर से मिटाओ,
नीचे के रास्तों से नग्न चित्र चलने शुरू हो जाते हैं। चोरी से
बिकेंगे। बाथरूम में बनाए जाएंगे, लोग वहां जाकर देखेंगे।
और यह भी हो सकता है कि नग्न चित्रों को देखने से मन की जो
रिलीज होती हो, अगर
वह न हो, तो यह भी हो सकता है कि सड़क पर चलती हुई स्त्रियों
को लोग नंगा करें। यह भी बहुत आश्चर्यजनक नहीं है, कठिन नहीं
है। अगर चित्त की मांग बहुत बढ़ जाए, तो मैं समझता हूं नंगी
फिल्म ही देखना बेहतर है। उससे रिलीज होती है। वह जो चित्त की मांग थी वह पूरी
होती है। अगर वह पूरी होना बिलकुल बंद कर दी जाए सब तरफ से, तो
यह भी संभव है कि स्त्री का जीना मुश्किल हो जाए। और हमारे जैसे समाज में जीना
वैसे भी मुश्किल है। और उसका कारण है कि मांग है, हम उसकी
कहीं से पूर्ति करेंगे।
मेरी दृष्टि में तो,
अगर मांग है तो चित्र पैदा होने दो। सारे बंधन अलग करो चित्रों पर
से। आदमी को देखने दो। अगर मांग है तो क्या करोगे? अगर मांग
है तो क्या करें? उसे देखने दो। उसके मन को हलका होने दो। और
अगर हलका नहीं होने देते हैं, तो शायद आदमी व्यवहार ऐसे शुरू
करे जो कि हमारी कल्पना के बाहर हैं। उसका व्यवहार पैथालॉजिकल हो सकता है। अभी
उसकी पैथालॉजी, उसकी बीमारी चित्र देखने में भी निकलती है।
अभी वह एक गीत और कहानी पढ़ कर भी आइडेंटिटी करके बहुत कुछ हलका करता है अपने मन
को। एक नंगी फिल्म देख कर एक आदमी राहत से भरा हुआ घर लौटता है। थोड़ा हलका हो जाता
है। उसके टेंशन थोड़े हलके हो जाते हैं। जो उसने देखना चाहा था असलियत में नहीं सही,
फिल्म में देख लिया है। थोड़ी देर को तो असलियत मालूम पड़ी है। वह घर
ज्यादा शांत और हलका होकर आया है।
अगर वह हम रोक देते हैं और आदमी को बदलते नहीं, जैसा कि साधु-संत समझाते
हैं कि वह रोको। और आदमी तो जैसा है वैसा रहेगा। आदमी को बदलने की जरूरत है
बुनियाद में। यह हो सकता है, जैसे कि अभी मैंने, आपने शायद अखबारों में पढ़ा भी होगा। सिडनी में एक अमेरिकी नग्न अभिनेत्री
को ले जाकर प्रदर्शन किया एक थियेटर में। संयोजकों ने सोचा था कि लाखों रुपये कमा
लेंगे। लेकिन पूरे थियेटर में, जहां दो हजार लोग बैठ सकते थे,
केवल दो आदमी उस नग्न स्त्री को देखने आए।
थोड़ा सोचना पड़ेगा! अगर यह अहमदाबाद में हो, तो मैं नहीं समझता कि हम सब
देखने न जाएं। जाना पड़ेगा। हम यह भी नहीं सोचते कि जो हमको समझाते हैं कि नग्न
स्त्री का देखना बुरा है, वे भी न जाएं। वे हो सकता है कपड़े
बदल कर जाएं, छिप कर जाएं, कोई उपाय
खोजें। मगर यह होगा। हमारी मांग है!
चेत सके तो चेत
ओशो
No comments:
Post a Comment