मैं देख रहा हूं कि जब स्वामी आनंद तीर्थ अंग्रेजी में सूत्र—पाठ करते हैं तब आप उसे बड़े गौर
से सुनते हैं और जब मां कृष्ण चेतना महागीता के सूत्र पढ़ती हैं, तब आप आंखें बंद कर लेते हैं! ऐसा फर्क क्यों? उसका राज
क्या है? ऐसा तो नहीं है कि मां चेतना के अशुद्ध पाठ और उच्चारण
के कारण उन्हें नहीं सुनते? कृपापूर्वक इसके संबंध में हमें
समझाएं।
अंग्रेजी मैं ज्यादा जानता नहीं; सो गौर से सुनता हूं कि कहीं चूक न जाए,
और संस्कृत मैं बिलकुल नहीं जानता; सो आंख बंद
करके सुनने का मजा ले सकता हूं चूकने को कुछ है नहीं।
'चेतना' के पाठ में कोई भूल चूक
नहीं, क्योंकि मैं भूल चूक निकाल ही नहीं
सकता; जानता ही नहीं हूं।
फिर, संस्कृत कुछ ऐसी भाषा है कि आंख बंद करके ही सुननी चाहिए। वह अंतर्मुखी भाषा
है। अंग्रेजी बहिर्मुखी भाषा है; वह आंख खोल कर ही सुननी
चाहिए। अंग्रेजी पश्चिम से आती है। पश्चिम है बहिर्मुखी। पश्चिम ने जो भी पाया है
वह आंख खोल कर पाया है।
संस्कृत पूरब के गहन प्राणों से आती है। पूरब ने जो भी पाया है, आंख बंद करके पाया है। पश्चिम
का उपाय है : आंख खोल कर देखो। पूरब का उपाय है अगर देखना है, आंख बंद करके देखो। क्योंकि पश्चिम देखता है पर को; पूरब
देखता है स्व को। दूसरे को देखना हो, आंख खुली चाहिए;
स्वयं को देखना हो, खुली आंख बाधा है। स्वयं को
देखना हो, आंख बंद चाहिए।
संस्कृत तो स्वयं को देखने वालों की भाषा है।
फिर अंग्रेजी,
मौलिक रूप से अर्थ—निर्भर है। संस्कृत मौलिक रूप
से ध्वनि— निर्भर है। अंग्रेजी में कोई संगीत नहीं। संस्कृत
में संगीत ही संगीत है। पुरानी भाषाएं काव्य की भाषाएं हैं। संस्कृत, अरबी काव्य की भाषाएं हैं। अगर कुरान को पढ़़ना हो तो गाकर ही पढ़ा जा सकता
है। कुरान काव्य है। संस्कृत काव्य है। उसे सुनना हो तो आंख बंद करके, मौन में, संगीत की—भांति सुनना
चाहिए। अर्थ—निर्भर नहीं है, ध्वनि—निर्भर है। अंग्रेजी अर्थ—निर्भर है।
अंग्रेजी विज्ञान की भाषा है। संस्कृत धर्म की भाषा है। अंग्रेजी
में चेष्टा है प्रत्येक शब्द का साफ—साफ, स्पष्ट—स्पष्ट अर्थ हो।
अंग्रेजी बड़ी गणितिक है। संस्कृत में एक—एक शब्द के अनेक
अर्थ हैं। बड़ी तरलता है। बड़ा बहाव है! बड़ी सुविधा है।
अगर गीता अंग्रेजी में लिखी गई होती तो एक हजार टीकाएं नहीं हो सकती
थीं। कैसे करते! शब्दों के अर्थ तय हैं,
सुनिश्चित हैं। गीता संस्कृत में है; एक हजार क्या, एक लाख टीकाएं हो सकती हैं। क्योंकि शब्द तरल हैं। उनके अनेक अर्थ हैं।
एक— एक शब्द के दस—दस बारह—बारह अर्थ हैं। जो मर्जी हो।
अंग्रेजी जैसी भाषाएं सुनने वाले, पढ़ने वाले को बहुत मौका नहीं देतीं। तुम्हारे लिए
कुछ छोड़ती नहीं। जो है वह साफ बाहर है। संस्कृत—अरबी जैसी
भाषाएं पूरा नहीं कहतीं; बस शुरुआत मात्र है, फिर बाकी सब तुम पर छोड़ देती हैं। बड़ी स्वतंत्रता है। फिर तुम सोचो। पूरा तुम
करो। प्रारंभ है संस्कृत में, पूरा तुम्हें करना होगा। सूत्रपात
है। इसीलिए तो इनको हम 'सूत्र' कहते
हैं। इन संस्कृत के वचनों को हम 'सूत्र' कहते हैं। सिर्फ धागा। सब साफ नहीं है, जरा सा इशारा
है। फिर इशारे का साथ पकड़ कर तुम चल पड़़ना। फिर पूरा अर्थ तुम अपने भीतर खोजना।
अर्थ बाहर से तैयार चबाया हुआ उपलब्ध नहीं है। तुम्हें पचाना होगा, तुम्हें अर्थ अपने भीतर जन्माना होगा।
पश्चिम की भाषाएं गणित और विज्ञान के साथ—साथ विकसित हुई हैं। इसलिए पाश्चात्य
विचारक बड़े हैरान होते हैं कि संस्कृत के एक—एक वचन के कितने
ही अर्थ हो सकते हैं, यह कोई भाषा है! भाषा का मतलब होना
चाहिए : अर्थ सुनिश्चित हो। नहीं तो गणित और विज्ञान विकसित ही नहीं हो सकते। अगर
गणित और विज्ञान में भी भाषा अनिश्चित हो तो बहुत कठिनाई हो जाएगी। सब साफ होना
चाहिए। हर शब्द की परिभाषा होनी चाहिए। संस्कृत में कुछ भी परिभाष्य नहीं है!
अपरिभाष्य है। एक तरंग दूसरी तरंग में लीन हो जाती है। एक तरंग दूसरी तरंग को पैदा
कर जाती है।
इसलिए अंग्रेजी को तो मैं आंख खोल कर सुनता हूं वह अंग्रेजी का समादर
है। संस्कृत को आंख बंद करके सुनता हूं वह संस्कृत का समादर है। और उच्चारण और पाठ
इन सब में मेरा बहुत रस नहीं है,
क्योंकि मैं कोई भाषाशास्त्री नहीं हूं। और व्याकरण और पाठ और उच्चारण
सब गौण बातें हैं। मुझे रस है संस्कृत के संगीत में। वह जो ध्वनियों का आघात है
चेतना पर; वह जो ध्वनियों से पैदा होता हुआ मंत्रोच्चार है;
उच्चारण नहीं, उच्चार; व्याकरण
नहीं, शब्दों में छिपा हुआ जो संगीत है—उसे पकड़ने की चेष्टा करता हूं।
मैं भाषाशास्त्री नहीं हूं यह सदा याद रखना।
अष्टावक्र महागीता
ओशो
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