मैंने सुबह कहा,
जो अनुभव हो आनंद का, जो शांति का, आनंद का अनुभव हो, उसे हम सतत चौबीस घंटे अपने भीतर
बनाए रखें। कैसे बनाए रखेंगे?
दो रास्ते हैं। एक रास्ता तो है कि हम उस चित्त-स्थिति को, जो ध्यान में अनुभव हुई,
उसका जब भी हमें अवसर मिले, पुनः स्मरण करें।
जैसे ध्यान के समय शांत श्वास ली है। जब भी दिन में समय मिले, जब आप कोई विशेष काम में नहीं लगे हैं, उस समय श्वास
को धीमा कर लें और नाक के पास जहां श्वास का कंपन हो, उसका
थोड़ा-सा स्मरण करें। उस स्मरण के साथ ही उस भाव को फिर से आरोपित कर लें कि आप
आनंदित हैं, प्रफुल्लित हैं, शांत हैं,
स्वस्थ हैं। उस भाव को पुनः स्मरण कर लें। जब भी स्मरण आ जाए--सोते
समय, उठते समय, रास्ते पर जाते
समय--जहां भी स्मरण आ जाए, उस भाव को पुनः आवर्तित कर लें।
उसका परिणाम होगा कि दिन में अनेक बार वह स्मृति, वह स्मरण आपके भीतर आघात
करेगा और कुछ समय में आपको उसे अलग से याद करने की जरूरत न रह जाएगी। वह आपके साथ
वैसे ही रहने लगेगा, जैसे श्वासें आपके साथ हैं।
एक तो इस भाव-स्थिति को बार-बार स्मरण करना। जब भी खयाल मिल
जाए--बिस्तर पर लेट गए हैं, स्मरण आया है, ध्यान की स्थिति को वापस दोहराने का
भाव कर लें। रास्ते पर घूमने गए हैं, रात्रि को चांद के नीचे
बैठे हैं, किसी दरख्त के पास बैठे हैं, कोई नहीं है, कमरे में अकेले बैठे हैं, पुनः स्मरण कर लें। बस में सफर कर रहे हैं, या ट्रेन
में सफर कर रहे हैं, अकेले बैठे हैं, आंख
बंद कर लें, उस भाव-स्थिति को पुनः स्मरण कर लें। दिन के
व्यस्त काम-काज में भी, दफ्तर में भी, दो
मिनट के लिए कभी उठ जाएं, खिड़की के पास खड़े हो जाएं, गहरी श्वास ले लें, उस भाव-स्थिति को स्मरण कर लें।
दिन में ऐसा अगर दस-पच्चीस बार, मिनट आधा मिनट को भी उस स्थिति को स्मरण किया,
तो उसका सातत्य घना होगा और कुछ दिनों में आप पाएंगे, उसे स्मरण नहीं करना होता है, वह स्मरण बना रहेगा।
तो यह एक रास्ता, ध्यान में जो अनुभव हो, उसे इस भांति निरंतर विचार के माध्यम से स्वयं की स्मृति में प्रवेश
दिलाने का है।
दूसरा रास्ता,
रात्रि को सोते समय, जैसे अभी मैंने आपको
संकल्प करने के लिए कहा है, जब संकल्प आपका प्रगाढ़ जिस
रास्ते से होता है, उसी रास्ते से ध्यान की स्मृति को भी
कायम रखा जा सकता है। जब ध्यान का एक अनुभव आने लगे, तो
रात्रि को सोते समय वही प्रक्रिया करें और उस वक्त यह भाव मन में दोहराएं कि ध्यान
में मुझे जो भी अनुभव होगा, उसकी स्मृति मुझे चौबीस घंटे बनी
रहेगी। जो मैंने संकल्प के लिए प्रयोग बताया है--श्वास को बाहर फेंक कर संकल्प
करने का या श्वास को भीतर लेकर संकल्प करने का--जब आपको कुछ अनुभव आने लगे शांति
का, तो इसी प्रक्रिया के माध्यम से यह संकल्प मन में दोहराएं
कि ध्यान में मुझे जो भी अनुभव होगा, वह मुझे चौबीस घंटा,
एक सतत अंतःस्मरण उसका मेरे भीतर बना रहेगा।
इसको दोहराने से आप पाएंगे कि आपको बिना किसी कारण के अचानक दिन
में कई बार ध्यान की स्थिति का खयाल आ जाएगा। ये दोनों संयुक्त करें, तो और भी ज्यादा लाभ होगा।
फिर अभी हम विचार और भाव की शुद्धि के संबंध में जब बात करेंगे, तो इस संबंध में और बहुत-सी बातें चर्चा हो सकेंगी। लेकिन इन दोनों बातों
का प्रयोग किया जा सकता है।
बहुत-सा समय चौबीस घंटे का हमारे पास व्यर्थ होता है, जिसका हम कोई उपयोग नहीं
करते। उस व्यर्थ के समय में अगर ध्यान की स्मृति को दोहराते हैं, तो बहुत अंतर पड़ेगा।
इसको कभी इस तरह खयाल करें। अगर आपको दो वर्ष पहले किसी व्यक्ति
ने गाली दी थी, दो
वर्ष पहले आपका किसी ने अपमान किया था, दो वर्ष पहले कहीं
आपके साथ कोई दुर्घटना घटी थी, अगर आप आज भी उसे स्मरण करने
बैठेंगे, तो उस पूरी घटना को स्मरण करते-करते आप यह भी हैरान
हो जाएंगे कि घटना को स्मरण करते-करते आपके शरीर की और चित्त की अवस्था भी उसी छाप
को ले लेगी, जो दो वर्ष पहले घटित हुआ होगा। अगर दो वर्ष
पहले आपका कोई भारी अपमान हुआ था, आप आज बैठकर अगर उसका
स्मरण करेंगे कि वह घटना कैसे घटी थी और कैसे अपमान हुआ था, तो
आप स्मरण करते-करते हैरान होंगे कि आपका शरीर और आपका चित्त उसी अवस्था में पुनः
पहुंच गया है और आप जैसे फिर से अपमान को अनुभव कर रहे हैं।
हमारे चित्त में संग्रह है और वह विलीन नहीं होता। जो भी अनुभव
होते हैं, वे
संगृहीत हो जाते हैं। अगर उनकी स्मृति को फिर से पुकारा जाए, तो वे अनुभव जगाए जा सकते हैं और हम दुबारा उन्हीं अनुभूतियों में प्रवेश
पा सकते हैं। मनुष्य के मन से कोई भी स्मृति नष्ट नहीं होती है।
तो अगर आज सुबह आपको ध्यान में अच्छा लगा हो, तो दिन में दस-पांच बार
उसका पुनर्स्मरण बहुत महत्वपूर्ण होगा। उस भांति वह स्मृति गहरी होगी। और बार-बार
स्मरण आ जाने से वह चित्त के स्थायी स्वभाव का हिस्सा बनने लगेगी। इसे, यह जो प्रश्न पूछा है, इस भांति अगर इस पर प्रयोग
हुआ, तो लाभ होगा। और यह करना चाहिए।
ध्यान सूत्र
ओशो
No comments:
Post a Comment