पहली बात, यह थोड़ी अटपटी मालूम होती है कि शिष्य गुरु को नहीं खोज सकता। साधारणतः हम
यही सोचते हैं कि शिष्य गुरु को खोजता है। लेकिन यह संभव नहीं है। शिष्य को तो कुछ
भी पता नहीं है, खोजेगा कैसे? शिष्य को
तो यह भी पता नहीं है कि सत्य क्या है, असत्य क्या है?
शिष्य को यह भी पता नहीं है कि कौन सद्गुरु कौन असद्गुरु? शिष्य को अपना ही पता-ठिकाना नहीं है। और शिष्य अगर अपने हिसाब से
खोजेगा-- और अपने ही हिसाब से खोज सकता है, और तो कोई हिसाब
नहीं है--तो गलत को ही खोजेगा।
शिष्य ने जब गुरु खोजा तो गलत गुरु खोजा। शिष्य ठीक खोज ही नहीं
सकता। ठीक दृष्टि चाहिए न! आंखें कहां हैं अभी जो ठीक को देख लें? तो शिष्य खोजेगा परंपरागत ढंग
से। अगर जैन घर में पैदा हुआ है, जैन मुनि को खोजेगा। फिर
चाहे उसके द्वार के सामने ही एक मुसलमान फकीर, पहुंचा हुआ
फकीर खड़ा रहे, तो भी उसे नहीं खोज सकेगा। क्योंकि उसके पास
बंधी लकीरें हैं। अगर दिगंबर हैं . . . तो ज्ञानी को नग्न होना चाहिए--और यह फकीर
कपड़े पहने खड़ा है। बात अटक गई। अगर हिंदू है तो हिंदू को खोजेगा। अगर मुसलमान है
तो मुसलमान को खोजेगा। बंधे हुए लक्षण उसके हाथ में हैं। आंख तो नहीं है, देखने की क्षमता तो नहीं है कि आर-पार हृदय में देख ले, कि झांक ले कहां घटना घटी है, कहां कौन जागा है।
जागने की पहचान तो तभी आएगी जब थोड़ी-सी जागरण की किरण तुम्हारे भीतर
भी आए। रोशनी का थोड़ा स्वाद मिले तो वे जो परम रोशनी से मंडित हो गए हैं, पहचान में आ जाएंगे। जल थोड़ा
एक घूंट ही क्यों न पीया हो, फिर सारे जल की पहचान आ गई;
फिर सागरों की भी पहचान आ गई। क्योंकि एक घूंट जल में भी जल के पूरे
लक्षण आ जाते हैं।
लेकिन साधारणतः अज्ञान की दशा में, तो हम शास्त्र से खोजेंगे,
परंपरा से खोजेंगे, सुनी बातों से खोजेंगे;
जिस घर में पैदा हुए हैं, जैसे संस्कार मिले हैं,
उससे खोजेंगे। इसीलिए तो महावीर को हिंदू न खोज पाए। महावीर मौजूद
रहे, हिंदुओं से कोई संबंध न बन सका। बुद्ध को जैन न खोज पाए;
बुद्ध मौजूद रहे, जैनों से कोई संबंध न बन
सका। रामकृष्ण जिंदा थे, कोई दूसरा नहीं पहुंचा; जो काली के भक्त थे वही पहुंच पाए। रमण जीवित थे, कौन
गया? वे ही गए जो परंपरागत रूप से पहुंच सकते थे।
खयाल करना, पहले तो तुम परंपरागत रूप से खोजोगे, तो सत्य को खोज
न पाओगे। और अगर कभी भूल-चूक से परंपरा में भी कोई सत्य को उपलब्ध व्यक्ति पैदा हुआ,
तो भी तुम उसे थोड़े ही देख पाओगे, सिर्फ
लक्षणों का हिसाब रखोगेः कब उठता कब बैठता; क्या खाता क्या
पीता--यही तुम्हारा गणित होगा। अगर तुम हिंदू होने के कारण रमण के पास भी पहुंच गए,
तो भी रमण को न देख पाओगे; तुम हिंदू को
देखोगे।
ऐसा समझो कि तुम अपने अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देख सकते। तुम जहां
जाओगे, अपनी ही
शक्ल देखोगे। तो गुरु कैसे खोजोगे?
इसलिए इस बात को समझ लेना कि गुरु ही खोजता है। मगर खोज का मतलब
यह नहीं है कि गुरु खोजता हुआ तुम्हारे पास आएगा। खोजने तो तुम्हें ही निकलना पड़ता
है। एक घाट से दूसरे घाट, एक गुरु से दूसरे गुरु, एक द्वार से दूसरे द्वार--खोजने
तो तुम्हें ही निकलना पड़ता है। कुआं तुम्हारे पास नहीं आता है; प्यासे को ही जाना पड़ता है। लेकिन जब तुम किसी गुरु की नजर में आ जाओगे .
. . इतना तुम्हें करना ही पड़ेगा कि गुरु की नजर में पड़ जाओ। और उसे अगर लगा कि
पात्र हो, तो उंडेल देगा। वही खोजने का मतलब है। उसे अगर लगा
कि तैयार हो तो दे देगा धक्का। उसे अगर लगा अभी तैयार नहीं हो, तो चुप रह जाएगा; तुम्हें गुजर जाने देगा; तुम्हें कहीं और चले जाने देगा; प्रतीक्षा करेगा कि जब
तैयार हो जाओ तब आ जाना।
पूछते हो : "शिष्य कोई कैसे समझे कि सदगुरु ने खोजा है?' समझने की बात ही नहीं है यह।
जब सदगुरु की आंख तुम्हारी आंख में पड़ जाती है तो बात हो जाती है। यह प्रेम जैसी
बात है, समझ जैसी बात नहीं है।
तुम कैसे समझते हो कि कोई स्त्री तुम्हारे प्रेम में पड़ गयी? तुम कैसे समझते हो कोई पुरुष
तुम्हारे प्रेम में पड़ गया? कैसे समझते हो? समझने का वहां कुछ भी नहीं है। जब गुरु प्रेम से तुम्हारी आंख में झांकता है
तो तुम्हारे हृदय में सुगबुगाहट पैदा हो जाती है। वह समझ की बात ही नहीं है। मस्तिष्क
में नहीं घटती घटना; घटना हृदय में घटती है। जहां समझ
इत्यादि की बातें चल रही हैं, वहां नहीं घटती; तर्क के तल पर नहीं घटती, प्रेम के तल पर घटती है।
शिष्य और गुरु के बीच जो नाता है वह हृदय और हृदय का है--दो आत्माओं
का है। यह बात जब घटती है तो पहचान में आ ही जाती है; इससे बचने का कोई उपाय नहीं
है।
अगर तुम मेरी बात समझो तो मैं ऐसा कहूंगाः जब गुरु तुम्हें
चुनेगा तो तुम कैसे बचोगे समझने से?
असंभव है बचना! वे आंखें तुमसे कह जाएंगी। वह भाव तुमसे कह जाएगा।
गुरु की उपस्थिति तुमसे कह जाएगी कि तुम अंगीकार हो गए हो; किसी
ने तुम्हें चाहा है और किसी ने बड़ी विराट ऊंचाई से चाहा है। उसकी चाहत में ही तुम्हारी
आंखें शिखरों की तरफ उठने लगेंगी। किसी ने तुम्हें पुकारा है और अनंत की दूरी से
पुकारा है और उसकी पुकार में ही तुम्हारे भीतर हजार फूल खिलने लगेंगे।
मगर यह बात समझ की नहीं है, फिर भी दोहरा दूं। यह घटना घटेगी भाव के तल पर,
समझ के तल पर नहीं। मस्तिष्क का इसमें कुछ लेना-देना नहीं है। और अगर
तुमने बहुत जिद की मस्तिष्क से समझने की, तो शायद तुम चूक ही
जाओ। गुरु चुन भी लेता है बहुत बार और फिर भी शिष्य चूक सकता है, अगर वह अपनी खोपड़ी ही लड़ाता रहा; अगर उसने अपने हृदय
की न सुनी, तो चूक भी हो जाती है। ऐसा जरूरी नहीं है कि गुरु
चुने और तुम चुन ही लिए जाओ। दुर्भाग्य के बहुत द्वार हैं; सौभाग्य
का एक द्वार है। पहुंचने के बहुत द्वार नहीं हैं; भटक जाने के
बहुत द्वार हैं। पहुंचने का एक मार्ग है; भटक जाने के हजार
मार्ग हैं। भूल-चूक होना बहुत संभव है। एक तो गुरु के पास पहुंचना करीब-करीब असंभव-सा
मालूम होता है। पहुंच भी जाओ तो उन आंखों की भाषा को समझ पाओगे? समझने से मेरा मतलब : हृदय को आंदोलित होने दोगे। कहीं ऐसा तो नहीं है कि हृदय
को बंद रखो, हृदय को
दूर रखो और बुद्धि को बीच में ले जाओ। और बुद्धि से सोचो तो चूक जाओगे। समझने की
कोशिश की तो बिना समझे लौट जाओगे। अगर समझने की फिक्र नहीं की, यही श्रद्धा का अर्थ है।
अजहुँ चेत गंवार
ओशो
No comments:
Post a Comment