मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने गांव के मेयर को कई बार फोन किया, एक स्त्री बहुत अभद्र
व्यवहार कर रही है मेरे साथ। अपनी खिड़की में इस भांति खड़ी होती है कि उसकी
मुद्राएं आमंत्रण देती हैं, आ र कभी-कभी अर्धनग्न भी वह
खिड़की से दिखाई पड़ती है। इसे रोका जाना चाहिए। यह समाज की नीति पर हमला है। कई बार
फोन किया तो मेयर मुल्ला के घर आया।
मुल्ला अपनी चौथी मंजिल पर ले गया, खिड़की के पास कहा--देखिए,
वह सामने का मकान, उसी में वह स्त्री रहती है।
मकान नदी के उस पार कोई आधा मील दूर था। उस मेयर ने कहा--वह स्त्री उस मकान में
रहती है और उस मकान की खिड़कियों से आपको टेम्पटेशंस पैदा करती है? उधर से आपको उकसाती है? यहां से तो खिड़की भी ठीक से
नहीं दिखाई पड़ रही, वह स्त्री कैसे दिखाई पड़ती होगी? मुल्ला ने कहा--ठहरो--उसके देखने का ढंग--स्टूल पर चढ़ो, यह दूरबीन हाथ में लो, तब दिखाई पड़ेगी। लेकिन दोष उस
स्त्री का ही है जो आधा मील दूर है!
और फिर एक दिन ऐसा भी हुआ कि मुल्ला ने अपने गांव के
मनोचिकित्सक के दरवाजे को खटखटाया। भीतर गया,
पूरा नग्न था।
मनोचिकित्सक भी चौंका। नीचे से ऊपर तक देखा।
मुल्ला ने कहा कि मैं यही पूछने आया हूं और वही भूल आप कर रहे
हैं। मैं सड़कों पर से निकलता हूं तो लोग न मालूम पागल हो गए हैं, मुझे घूर-घूरकर देखते हैं।
ऐसी क्या मुझमें कमी है या ऐसी क्या भूल है कि लोग जिससे मुझे घूर-घूरकर देखते
हैं। मनोवैज्ञानिक खुद ही घूर-घूरकर देख रहा था, क्योंकि
मुल्ला निपट नग्न खड़ा था। मुल्ला ने कहा--यह पूरा गांव पागल हो गया है, मालूम पड़ता है। जहां से भी निकलता हूं, वहीं लोग
घूर- घूरकर देखते हैं। आपका विश्लेषण क्या है?
मनोवैज्ञानिक ने कहा--ऐसा मालूम पड़ता है कि आप अदृश्य वस्त्र
पहने हुए हैं, दिखाई
न पड़ने वाले वस्त्र पहने हुए हैं। शायद उन्हीं वस्त्रों को देखने के लिए लोग
घूर-घूरकर देखते होंगे।
मुल्ला ने कहा--बिलकुल ठीक है। तुम्हारी फीस क्या है?
मनोवैज्ञानिक ने सोचा ऐसा आदमी, इससे फीस ठीक से ले लेनी चाहिए। उसने सौ रुपए
फीस के बताए।
मुल्ला ने खीसे में हाथ डाला, नोट गिने, दिए।
मनोवैज्ञानिक ने कहा लेकिन हाथ में कुछ भी नहीं है।
मुल्ला ने कहा--यह अदृश्य नोट हैं। ये दिखाई नहीं पड़ते।
घूर-घूरकर देखो तो दिखाई पड़ सकते हैं।
आदमी खुद नग्न घूमता हो बाजार में तो भी शक होता है कि दूसरे
लोग घूर-घूरकर क्यों देखते हैं?
और अपने घर से वह दूरबीन लगाकर आधा मील दूर किसी की खिड़की में देख
सकता है और कह सकता है कि वह स्त्री मुझे प्रलोभित कर रही है। हम सब ऐसे ही हैं।
हम सबका ताल-मेल ऐसा ही है व्यक्तित्व का। तो विनय तो कैसे पैदा होगी? विनय के पैदा होने का कोई उपाय नहीं है। अहंकार ही पैदा होगा। जब कोई किसी
की हत्या भी कर देता है तो वह यह नहीं मानता कि हत्या में मैं अपराधी हूं। वह
मानता है कि उस आदमी ने ऐसा काम ही किया था कि हत्या करनी पड़ी। दोषी वही है।
मुल्ला ने तीसरी शादी की थी। तीसरी पत्नी घर में आयी तो दो
बड़ी-बड़ी तस्वीरें देखकर उसने पूछा कि ये तस्वीरें किसकी हैं? मुल्ला ने कहा--मेरी पिछली
दो पत्नियों की। मुसलमान घर में तो चार पत्नियां तो हो ही सकती हैं। उसने
पूछा--लेकिन वे हैं कहां? मुल्ला ने कहा--अब वे कहां?
पहली मर गयी मशरूम पायजँनिंग से। उसने कुकुरमुत्ते खा लिए जोजहरीले
थे। उसने पूछा--और दूसरी कहां है? मुल्ला ने कहा--वह भी मर
गयी। फ्रैक्चर आफ द स्कल, खोपड़ी के टूट जाने से। बट द फाल्ट वाजँ
हर। शी वुड नाट ईट मशरूम्स। भूल उसकी ही थी। मैं कितना ही कहूं वह मशरूम खाने को,
वह कुकुरमुत्ते खाने को राजी नहीं होती थी। तो खोपड़ी के टूटने से मर
गयी। खोपड़ी मुल्ला ने तोड़ी, क्योंकि वह मशरूम नहीं खाती थी।
मगर दोष उसका ही था, भूल उसकी ही थी।
भूल सदा दूसरे की है। भूल शब्द ही दूसरे की तरफ तीर बनकर चलता
है। वह कभी अपनी होती ही नहीं। और जब अपनी नहीं होती तो विनय का कोई भी कारण नहीं
है। तो अहंकार, यह
दूसरे की तरफ जाते हुए तीरों के बीच में निश्चिंत खड़ा होता है, बलशाली होता है। सघन होता है।
इसलिए महावीर ने प्रायश्चित को पहला अंतरत्तप कहा है कि पहले तो
यह जान लेना जरूरी होगा कि न केवल मेरे कृत्य गलत हैं बल्कि मैं ही गलत हूं। तीर
सब बदल गए, रुख
बदल गया। वे दूसरे की तरफ नहीं जाते, अपनी तरफ मुड़ गए। ऐसी
स्थिति में हम्बलनेस, विनय को साधा जा सकता है। फिर भी
महावीर ने निरअहंकारिता नहीं कही। महावीर कह सकते थे निरअहंकार, लेकिन महावीर ने इगोलैसनैस नहीं कही; कहा विनय।
क्योंकि निरअहंकार नकारात्मक है और उसमें अहंकार की स्वीकृति है। अहंकार को इनकार
करने के लिए भी उसका स्वीकार है। और जिसे हमें इनकार करने के लिए भी स्वीकार करना
पड़े, उसका इनकार किया नहीं जा सकता। जैसे कोई आदमी यह नहीं
कह सकता कि मैं मर गया हूं क्योंकि मैं मर गया हूं, यह कहने
के लिए मैं हूं जिंदा, इसे स्वीकार करना पड़ेगा। जैसे कोई
आदमी यह नहीं कह सकता कि मैं घर के भीतर नहीं हूं क्योंकि मैं घर के भीतर नहीं हूं,
यह कहने के लिए भी मुझे घर के भीतर होना पड़ेगा।
महावीर वाणी
ओशो
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