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Sunday, April 8, 2018

आप के आश्रम में यदि कोई एक ही साधना पद्धति हो, तो क्या साधकों को ज्यादा सुविधा नहीं होगी?

 
एक तरह के साधकों को होगी, जिनको वह पद्धति अनुकूल पड़ेगी। लेकिन वह तो छोटा सा अल्प मत होगा। यह द्वार सब के लिए है। यहां भिन्न-भिन्न वृत्ति, भिन्न-भिन्न ढंग, भिन्न-भिन्न रंग के लिए मार्ग है।


यही तो अड़चन अतीत में हो गई। इसी सुविधा के कारण तो दुनिया में इतने धर्म पैदा हो गए--इसी सुविधा के खयाल से।


तो जो भक्ति की विधि से चलेगा, वहां ज्ञान की चर्चा न होगी। जो ज्ञान की विधि से चलेगा, वहां भक्ति की चर्चा न होगी। चर्चा तो दूर, जो ज्ञान की विधि से चलेगा, वह भक्ति का खंडन करेगा। क्यांेकि ज्ञान की विधि को पूरी तरह हृदय में बिठाने के लिए वह खंडन जरूरी हो जाएगा। और जो भक्ति का समर्थक है, वह ज्ञान का खंडन करेगा।


तो सारे शास्त्र खंडनों से भर गए। और प्रत्येक पद्धति थोड़े से लोगों के काम की है। इसलिए कोई धर्म सार्वलौकिक नहीं हो पाया। कोई धर्म सार्वभौम नहीं हो पाया। सब को जगह न बची उसमें।


अब जैसे जैन धर्म है। वह पुरुषार्थ का धर्म है; जो जिन लोगों को बहुत पुरुषार्थ में रस है, जिनके होने का ढंग पुरुष का ढंग है--आक्रमक--उनके लिए तो जमा। संकल्प का मार्ग है। लेकिन जिनका ढंग स्त्रैण है, जिनका ढंग समर्पण का है, जिनका रास्ता प्रेम का है, जिनके हृदय में बड़े भाव उदभूत होते हैं, उनके लिए नहीं जमा।


तो जो भक्त जैन घर में पैदा हो जाए--अभागा। क्योंकि उसे वहां मार्ग नहीं मिलेगा। और दूसरी तरफ जाने की सुविधा भी नहीं मिलेगी। क्योंकि बचपन से सुनेगाः भक्ति गलत है। बचपन से सुनेगा कि भक्त की तो बात ही छोड़ो; भक्तों के जो भगवान हैं कृष्ण, वे भी नरक में पड़े हैं! जैनों ने उन्हें नरक मे डाल रखा है। क्योंकि जैनों के हिसाब से यह तो बड़े राग की बात हो गईः मोरमुकुट बांधे, पितांबर पहने, बांसुरी हाथ में लिए, गहनों से सजे! यह कोई वीतराग का ढंग है? महावीर नग्न खड़े है। यह है ढंग मोक्ष जाने का।


कृष्ण और महावीर को सामने खड़ा करो, तो किसी के मन में महावीर के प्रति सद्भाव उत्पन्न होगा कि यह है त्याग। सब छोड़ा। नग्न हुए। सब छोड़ा; घर-द्वार, धन-सम्पत्ति। यह है त्याग।


मगर किसी के मन में कृष्ण की मनमोहिनी सूरत बस जाएगी। कोई मस्त होने लगेगा--वे प्यारी आंखें देखकर। कोई डोलने लगेगा, वह बांसुरी का धुन सुन कर। वह कृष्ण के पैरों में बंधे घुंघरू सी के हृदय में बजने लगेंगे। कोई ऐसे मस्त हो जाएगा, जैसे बिना पिए शराब पी गया हो। महावीर उसे रूखे-सूखे लगेंगे। वह यह सोचेगाः अगर महावीर जैसे लोग मोक्ष जाते हैं, तो मुझे मोक्ष जाना ही नहीं। ऐसे सज्जन वहां खड़े होंगे जगह-जगह--नंग-धड़ंग; ऐसा मोक्ष, मुझे जाना ही नहीं। ऐसा सूखा-साखा मोक्ष क्या करेंगे?--खाएंगे, पीएंगे, ओढ़ेंगे--क्या करेंगे ऐसे मोक्ष को? आप ही लोग सम्हालो।
जहां कृष्ण हों, वहीं जाएंगे। भक्त तो कहेगाः अगर नरक में पड़े हैं, तो नरक ही जाएंगे। क्योंकि यह संगीत की वर्षा, यह समारोह, यह आनंद का झरना, यह गीत; कृष्ण के साथ नरक भी किसी को प्यारा लगेगा। और किसी को महावीर के साथ स्वर्ग में बैठ कर भी ऐसा लगेगा कि कहां फंस गए। अब कैसे इन सज्जन से मुक्ति पाएं! छुटकारा अब मोक्ष से कैसे हो?


तुम जरा सोचना। और दोनों मेें कोई भी गलत नहीं है। अपनी-अपनी वृत्ति, अपने-अपने रुझान, अपने-अपने व्यक्तित्व की बात है।


जो बुद्धि से सोचेगा, उसे महावीर जमेंगे। जो हृदय से सोचेगा, उसे कृष्ण जमेंगे। मगर हृदय भी है और बुद्धि भी है। और किन्हीं में हृदय प्रबल है और किन्हीं में बुद्धि प्रबल है।


तुम्हारी बात मैं समझा। तुम्हारा प्रश्न समझा। तुम पूछ रहे हो कि जब आप अष्टवक्र पर बोलते हैं, तो फिर अष्टावक्र पर ही रुकें।


परसों ही किसी ने मुझे कहा कि हम तो समझे थे कि महागीता में सब मिल गया। अब हम जब संतों की बात सुनते हैं, तो हमें बड़ी बेचैनी होती है। अब हम क्या करें? हम तो समझे थे, अष्टावक्र की बात आपने कह दी--ब मिल गया। तो अपना साक्षीभाव सम्हालेंगे।


यह तो भक्त की बात तो साक्षी की है ही नहीं। भक्त तो कहता हैः लीनभाव, तल्लीन-भाव। साक्षी--ात ही गलत है। साक्षी का मतलबः खड़े होकर देखो। भक्त कहता हैः डुबकी लगाओ। कहां दूर खड़े हो कर देखोगे? भगवान को दूर खड़े होकर देखोगे?--ससे ज्यादा और कुफ्र क्या होगा? भगवान में तो डूब जाओ; बचो ही मत, लीन हो जाओ।


तो तुम्हारी अड़चन मैं समझता हूं। तुम्हारे प्रश्न का प्रसंग भी मैं समझता हूं। तुम्हें अड़चन होती है।
कभी मैं भक्त पर बोलता; कभी ज्ञानी पर बोलता। कभी ध्यानियों पर बात करता; कभी प्रेमियों की बात करता। फिर उनमें भी बहुत-बहुत रूप हैं। ध्यान के भी अनेक ढंग हैं। ऐसे ही भक्ति के भी अनेक ढंग हैं। मैं सारे ढंगों की बात करता।


तुम कहते होः इस बगीचे में अगर एक ही तरह के वृक्ष होते तो ज्यादा सुविधा होती। मैं तुमसे कहता हूंः इस बगीचे में सब तरह के वृक्ष हैं। तुम्हें जो वृक्ष रुचे, उसके नीचे बैठ जाओ। लेकिन दूसरों के लिए भी यहां वृक्ष हैं। तुम्हें जो सुगंध रुचे, उसमें रम जाओ। किसी को बेले की सुगंध जंचती है,किसी को रजनीगंधा की। तुम जिससे मस्त हो जाओ। कुछ ऐसे भी लोग हैं, जिन्हें फूलों में उतना रस नहीं है, जितना पत्तों की हरियाली में है। तो यहां ऐसे पौधे भी हैं। जिनमें पत्तों का ही वैभव है; उनमें रम जाओ।

कहे कबीर मैं पूरा पाया 

ओशो 

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