मैंने सुना है,
दीवाल से कान लगाए खड़े एक गधे ने दूसरे गधे से पूछा: "यहां
क्यों खड़े हो? ' यहां क्या कर रहे हो? पहले
गधे ने जवाब दिया: "मेरा बच्चा खो गया है। इस घर से लड़ने की आवाज आ रही है।
एक कहता है तू गधे का बच्चा है। और दूसरा कहता है तू गधे का बच्चा है। सोचता हूं,
कब लड़ाई खत्म हो, मेरा बच्चा घर से बाहर निकले,
तो लेकर जाऊं!' गधा अपने बच्चे की तलाश में
है। उसे क्या पता कि यह आदमी, जो एक-दूसरे को गधा कह रहे हैं,
गधा नहीं हैं। उसे क्या पता कि इनको गधे कहने का अर्थ बड़ा और है।
उसे क्या पता कि ये सिर्फ गालियां दे रहे हैं। ये किसी तथ्य की घोषणा नहीं कर रहे
हैं। मगर गधे को कैसे पता चले? गधा तो अपने बच्चे की तलाश
में निकला है। वह सोचा है कि यह भी खूब रही, इस घर के भीतर
मेरा बच्चा है, अब निकल आए तो ठीक है, ले
जाऊं। झगड़ा खत्म हो तो मैं ले जाऊं।
मैं जब तुमसे बोल रहा हूं तो निरंतर ऐसा होगा। मैं कहूंगा कुछ, तुम समझोगे कुछ। मैंने कहा
तुम जो भी करोगे, गलत होगा, क्योंकि
तुम गलत हो, क्योंकि तुम्हारा होना ही गलती है। तुम्हारे न
होने में सब ठीक हो जाएगा। तुम नहीं हुए कि परमात्मा हुआ। तुम जब तक हो, परमात्मा नहीं है। और जब तुम नहीं रहोगे, तब
परमात्मा हो सकता है। परमात्मा ठीक है और तुम गलत हो। तुम तो ठीक हो ही नहीं सकते
और परमात्मा गलत नहीं हो सकता। ऐसा गणित है। तुमने अपने को ज़रा भी बचाया तो गलती
जारी रहेगी; तुम बेसुरा सुर पैदा करते रहोगे। तुम तो विदा हो
जाओ।
इसीलिए तो कहा पलटू ने कि मर्दों का काम है। जो मिटने को तैयार
हो, जो अपनी
गर्दन अपने हाथ से उतार कर रखने को तैयार हो--वही, केवल वही
दुस्साहसी उस परमप्रिय अवस्था को पाने के लिए योग्य हो पाता है; उस परम प्यारे के द्वार में प्रवेश कर पाता है।
तुम पूछते हो: "साफ-साफ क्यों नहीं बताते हैं कि हम क्या
करें?' तुम
सोचते हो कि जितना साफ-साफ मैं बताता हूं, इससे और ज्यादा
साफ-साफ बताया जा सकता है? साफ-साफ बताता हूं। रोज वही-वही
फिर-फिर बताता हूं। कुछ नई बात कहने को नहीं है। बात तो एक ही कहने को है। संदेश
तो छोटा-सा है; एक पोस्टकार्ड पर लिखा जा सकता है। और ऐसे तो
दुनिया के सारे शास्त्र भी उसे लिख-लिख कर पूरा नहीं कह पाते हैं। संदेश तो इतना
ही है कि तुम शून्य हो जाओ, तो तुम्हारे शून्य में परमात्मा
उतर आता है। तुम हुए शून्य कि हुए पूर्ण। बूंद खोई सागर में कि हो गई सागर।
मगर तुम साफ-साफ नहीं समझ पाते, यह मैं समझता हूं। तुम कह रहे हो मुझसे कि आप
साफ-साफ क्यों नहीं बताते? इतना ही कहो कि हम साफ-साफ क्यों
नहीं समझ पाते हैं? वहां तक ठीक है। मेरी तरफ से बिल्कुल
साफ-साफ बता रहा हूं। इससे ज्यादा साफ-साफ न कभी बताया गया है और न कभी बताया जा
सकेगा। और क्या साफ-साफ हो सकता है? एक-एक ताना-बाना खोलकर
तुम्हारे सामने रख दिया है। कुछ छिपाना नहीं है। कुछ रहस्य नहीं है। सब पत्ते
तुम्हारे सामने खोलकर रख दिए हैं।
हां, तुम्हें साफ-साफ नहीं हो रहा है, वह मैं समझता हूं।
क्योंकि तुम समझने को उत्सुक ही नहीं हो। तुम तो जल्दी से कुछ करने को उत्सुक हो,
तुम्हारी पकड़ ही गलत है। तुम मुझे सुनते वक्त यह भीतर गणित्री ही
बिठाते रहते हो कि इसमें क्या-क्या करने योग्य मिल जाए तो करके दिखा दें। उसी करने
की आकांक्षा के कारण तुम समझना भी चूक जाते हो।
अजहुँ चेत गंवार
ओशो
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