फिल्म पर जो स्त्री हम देख रहे हैं वह स्त्री असली नहीं है। वह
स्त्री नब्बे प्रतिशत आदमी की ईजाद है। उसकी सारी बनावट, उसका सारा सौंदर्य, उसके अंग का अनुपात, वह सब ईजाद है। वह सारी
व्यवस्था है। वह सब फोटोग्राफी है, वैज्ञानिक टेक्नीक है। और
एक ऐसी स्त्री हम देख रहे हैं जिसको पहले ऋषि-मुनि स्वर्ग में अप्सरा को देखा करते
थे, अब हम उसको फिल्म में देख रहे हैं। ऋषि-मुनियों को
अप्सरा देखनी पड़ती थी, क्योंकि फिल्म उपलब्ध नहीं थी। हमको
फिल्म देखने को मिल गई इसलिए अप्सरा की हमने फिक्र छोड़ दी।
लेकिन वह जो अप्सरा जैसी स्त्री खड़ी हो गई है वह नुकसान
पहुंचाएगी। क्योंकि उसका एक बिंब हमारे मन में बनने वाला है, बनेगा ही। हमारी मांग भी
वही है। और कोई असली स्त्री उस बिंब को पूरा नहीं कर पाएगी। तो कठिनाई हो ही जाने
वाली है। कोई असली स्त्री न उतनी सुगंधित मालूम पड़ेगी, न
उतनी सुंदर मालूम पड़ेगी, न उतनी अदभुत मालूम पड़ेगी। असली
स्त्री असली होगी, ठोस होगी। शरीर होगा, शरीर में पसीना भी होगा, बदबू भी होगी। और सौंदर्य
दो दिन में फीका भी पड़ जाएगा। ठीक ही है। वह सौंदर्य न फीका पड़ता, फासले पर है, दूर है।
तो यह हमने जो नैतिक आरोपण से एक व्यवस्था पैदा की है, उस व्यवस्था से अश्लीलता आ
गई है। अश्लीलता से मांग आ गई है। और मांग को पूरा करना जरूरी हो गया है। लेकिन
पुराना नीतिवादी कहता है, यह मांग से जो सप्लाई पैदा हुई है
यह बंद कर दो। उसका कहना है कि सप्लाई बंद कर देने से मांग मिट जाएगी।
यह मुझे अवैज्ञानिक मालूम पड़ता है। मांग कैसे मिट जाएगी? नई मांगें पैदा हो जाएंगी।
और खतरनाक मांगें भी हो सकती हैं। आज अगर कलकत्ते में यह हालत है कि सड़क पर चलती
हुई स्त्री का कपड़ा उतार लें, पूरी धोती उतार लें और उसे
नंगा कर दें। गहने छीनने की हमने बात सुनी थी। पूरी धोती ही उतार लें और नंगी
स्त्री को बीच सड़क पर छोड़ दें और उससे कहें कि जाओ, पास में
दुकान है, वहां से धोती खरीद लेना।
अगर हम चित्रों में मौका और किताबों में मौका नहीं देते हैं, तो यह हो सकता है। यह
बढ़ेगा। इसकी संभावना बढ़ती चली जाएगी। स्त्री को धक्का मारना भी रसपूर्ण हो गया है।
हालांकि धक्का मारने में कोई भी रस नहीं हो सकता। एक प्रेमपूर्ण स्पर्श में तो रस
हो सकता है, लेकिन सड़क पर चलती एक स्त्री को धक्का मार कर
निकल जाने में कौन सा रस हो सकता है, यह समझ के बाहर है।
लेकिन जब प्रेमपूर्ण स्पर्श का कोई उपाय न रहा हो तो धक्का मारना भी रसपूर्ण हो
सकता है। और एक लड़की पर एसिड फेंकना कौन सा अर्थ रखता होगा या कौन सा सेक्स से
संबंधित होगा, इसकी कल्पना करनी मुश्किल है; कि लड़की पर एसिड फेंकना, सेक्स की किसी किताब में
कभी नहीं सुझाया गया है कि यह कोई सेक्स की रिलेशनशिप होगी! लेकिन अगर लड़की से
दूर-दूर रखोगे तो यह फल होने वाला है--कि जो हमें इतने जोर से आकर्षित कर रहा है,
उसके पास भी नहीं जा सकते, उसको मिटा दो। ये
विकृतियां पैदा होने वाली हैं, ये परवर्शन पैदा होने वाले
हैं।
हमारी नीति को और हमारे परवर्शंस को, हमारी विकृतियों को मैं एक
ही चीज के दो हिस्से मानता हूं। और इसलिए परवर्शंस जो मांगें पैदा कर रहे हैं उनको
मिटाने का सवाल नहीं है। परवर्शंस जहां से कॉज़ की तरह आ रहे हैं, ओरिजिनल सोर्स जहां से है, उसे बदलने का सवाल है।
मौलिक कारण हमारी नैतिक व्यवस्था है, जहां से विकृतियां पैदा
हो रही हैं। लेकिन पुराना नीतिशास्त्री उस नैतिक व्यवस्था पर संदेह भी नहीं उठने
देना चाहता।
चेत सके तो चेत
ओशो
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