जीवन में एक सचेतन लक्ष्य न हो, तो कोई कहीं पहुंचता नहीं। सचेतन लक्ष्य की
प्यास इस बात से पैदा होगी कि आप चिंतन करें और मनन करें और विचार करें।
बुद्ध के बाबत आपने सुना होगा। उन्हें जिस बात से विराग हुआ, जिस बात से वे विराग के
जीवन में प्रविष्ट हुए, जिस बात से उन्हें सत्य की आकांक्षा
पैदा हुई, वह कहानी बड़ी प्रचलित है, बड़ी
अर्थपूर्ण है। उनके मां-बाप ने, बचपन में ही उनको कहा गया कि
यह व्यक्ति या तो बहुत बड़ा सम्राट होगा, चक्रवर्ती होगा या
बहुत बड़ा संन्यासी होगा। उनके पिता ने सारी व्यवस्था की उनकी सुख-सुविधा की कि
उन्हें कोई दुख दिखायी भी न पड़े, जिससे कि संन्यास पैदा हो।
उनके पिता ने उनके लिए मकान बनवाए, उस समय की सारी कला और
कौशल सहित। उन्होंने सारी व्यवस्था की बगीचों की। हर मौसम के लिए अलग भवन बनाया और
आज्ञा दी परिचारकों को कि एक कुम्हलाया हुआ फूल भी गौतम को दिखायी न पड़े, सिद्धार्थ को दिखायी न पड़े। उसे यह खयाल न आ जाए कहीं कि फूल मुर्झा जाता
है, कहीं मैं तो न मुर्झा जाऊंगा?
तो रात उनके बगीचे से सारे कुम्हलाए फूल और पत्ते अलग कर दिए
जाते थे। जो दरख्त थोड़े भी कमजोर हो जाते,
वे उखाड़कर अलग कर दिए जाते थे। उनके आस-पास युवक और युवतियां इकट्ठी
थीं, कोई वृद्ध नहीं प्रवेश पाता था; कहीं
सिद्धार्थ को यह विचार न उठ आए कि लोग बूढ़े हो जाते हैं, कहीं
मैं तो बूढ़ा न हो जाऊंगा? जब तक वे युवा हुए, उन्हें पता नहीं था कि मृत्यु भी होती है। उन तक कोई खबर मृत्यु की नहीं
पहुंचायी जाती थी। उनके गांव में लोग मरते भी हैं, इससे
उन्हें बिलकुल अपरिचित रखा गया; कहीं उन्हें यह चिंतन पैदा न
हो जाए कि लोग मरते हैं, तो मैं भी तो नहीं मर जाऊंगा?
मैं चिंतन का मतलब समझा रहा हूं। चिंतन का मतलब यह है कि चारों
तरफ जो घटित हो रहा है, उस पर विचार करिए। मृत्यु घटित हो रही है, तो सोचिए
कि मैं तो नहीं मर जाऊंगा? बुढ़ापा घटित हो रहा है, तो सोचिए कि मैं तो बूढ़ा नहीं हो जाऊंगा?
चिंतन न पैदा हो जाए बुद्ध में, इसलिए उनके पिता ने सारा उपाय किया। और मैं
चाहता हूं कि आप सारा उपाय करें कि चिंतन पैदा हो जाए। उन्होंने उपाय किया कि
चिंतन पैदा न हो जाए, लेकिन चिंतन पैदा हुआ।
एक दिन बुद्ध गांव से निकले और राह पर उन्होंने देखा, एक बूढ़ा आदमी चला आता है।
उन्होंने अपने सारथी को पूछा, 'इस आदमी को क्या हो गया है?
ऐसा आदमी भी होता है?' सारथी ने कहा, 'झूठ मैं कैसे बोलूं? हर आदमी अंत में ऐसा ही हो जाता
है।' बुद्ध ने तत्क्षण पूछा, 'मैं भी?'
उस सारथी ने कहा, 'भगवन, झूठ मैं कैसे कहूं? कोई भी अपवाद नहीं है।' बुद्ध ने कहा, 'वापस लौट चलो। मैं बूढ़ा हो गया।'
बुद्ध ने कहा, 'वापस लौट चलो, मैं बूढ़ा हो गया। अगर कल हो ही जाना है, तो बात
समाप्त हो गयी।'
इसको मैं चिंतन कहता हूं।
लेकिन सारथी ने कहा,
'हम एक युवक महोत्सव में जा रहे हैं। सारे गांव के लोग प्रतीक्षा
करेंगे, इसलिए चलें।' बुद्ध ने कहा,
'अब चलने में कोई रस न रहा। युवक महोत्सव व्यर्थ है, क्योंकि बुढ़ापा आता है।' लेकिन वे गए। और आगे बढ़े और
उन्होंने देखा, एक अर्थी लिए जाते हैं लोग, कोई मर गया है। बुद्ध ने पूछा, 'यह क्या हुआ?
ये लोग क्या करते हैं? ये कंधों पर किस चीज को
लिए हैं?' सारथी ने कहा, 'कैसे कहूं!
आज्ञा नहीं। लेकिन असत्य न बोल सकूंगा। यह आदमी मर गया। एक आदमी मर गया है,
उसे लोग लिए जाते हैं।' बुद्ध ने पूछा,
'मरना क्या है?' और उन्हें पहली दफा पता चला,
एक दिन जीवन की सरिता सूख जाती है और आदमी मर जाता है। बुद्ध ने कहा,
'अब बिलकुल वापस लौट चलो। मैं मर गया। यह आदमी नहीं मरा, मैं मर गया।'
इसको मैं चिंतन कहता हूं। वह आदमी चिंतन और मनन में समर्थ हुआ
है, जिसने दूसरे
पर जो घटा है, उससे समझा और जाना है कि वह उस पर भी घटित
होगा। वे लोग अंधे हैं, जो चारों तरफ जो घटित हो रहा है,
उसे नहीं देख रहे हैं। और इस अर्थ में हम सब अंधे हैं। और इसलिए
मैंने वह कहानी कही, अंधे आदमी की, जो
सांप को हाथ में लिए चलता है।
इसलिए आपके लिए पहली जो बहुत महत्वपूर्ण बात है, वह यह कि आंख खोलकर चारों
तरफ देखिए, क्या घटित हो रहा है! और उस घटित होने से चिंतन
पैदा होगा, मनन पैदा होगा। और वह मनन प्यास देगा और किसी
विराट सत्य को जानने की।
ध्यान सूत्र
ओशो
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