शायद उनका खयाल है कि अनुभव और सत्य दो चीजें हैं। अनुभव यानी
सत्य! लेकिन कौन सा अनुभव सत्य है?
असत्य अनुभव भी तो होते हैं। एक आदमी रास्ते पर जा रहा है और एक
रस्सी पड़ी है और सांप का अनुभव हो जाता है, वह भाग खड़ा होता
है। वह लौट कर कहता है, सांप था, मैंने
अनुभव किया। लेकिन सांप तो वहां था नहीं, रस्सी पड़ी थी।
असत्य अनुभव भी होते हैं।
असत्य अनुभव भी होते हैं,
शायद इसीलिए उन्होंने पूछा, कि आप जो कह रहे
हैं, अनुभव है कि सत्य है। असत्य अनुभव भी होते हैं, लेकिन कौन सा? और सत्य कौन सा अनुभव? और सत्य पर्यायवाची हो जाते हैं। जब तो मैं की प्रतीति चलती है, तब तक अनुभव का कोई भरोसा नहीं कि वह सत्य है कि झूठ। सच तो यह है,
कि जब तक कोई भीतर मैं है, तब तक सत्य का
अनुभव नहीं हो सकता है।
मैं सभी अनुभवों को असत्य कर देता है। लेकिन जिस दिन भी मैं चला
गया, मैं नहीं
है, सिर्फ अनुभव हुआ। आप ऐसा नहीं कहते कि मैंने अनुभव किया,
आप कहते हैं, मैं नहीं था, तब अनुभव हुआ।
फिर असत्य नहीं होता,
फिर असत्य करने वाली चीज ही चली गई। जैसे हम एक लकड़ी पानी में
डालें। पानी में डालते से ही लकड़ी तिरछी हो जाती है। लकड़ी तिरछी नहीं होती,
लेकिन लकड़ी तिरछी दिखाई पड़ने लगती है। वह जो पानी की सघनता है,
वह लकड़ी को तिरछा कर देती है। लकड़ी तिरछी फिर भी नहीं होती, लकड़ी बाहर निकालिए, लकड़ी सीधी है। फिर पानी में
डालिए, लकड़ी तिरछी दिखाई फिर भी नहीं होती, लकड़ी बाहर निकालिए, लकड़ी सीधी है। फिर पानी में
डालिए, लकड़ी फिर तिरछी हो गई। वह पानी का जो माध्यम है,
वह लकड़ी को तिरछी करता है। अहंकार का जो माध्यम है, ईगो का जो माध्यम है, वह सत्य को असत्य करता है।
तो जब तक अहंकार के द्वारा कोई देख रहा है जगत को, तब तक उसके अनुभव असत्य के
अनुभव होंगे। यही असत्य के अनुभव का अर्थ हुआ, अहंकार के
द्वारा देखी गई वस्तु। और सत्य के अनुभव का अर्थ हुआ, निर-अहंकार
दशा में जाना गया, जहां कोई मैं नहीं है वहां जाना गया।
इसलिए भूल कर भी कभी आप यह मत सोचना, कि मैं सत्य को जान लूंगा।
मैं कभी सत्य को नहीं जानता। जब सत्य जाना जाता है तब मैं होता ही नहीं, और जब तक मैं होता है, तब सत्य का कोई प्रयोजन नहीं।
और हम सब मैं से भरे हुए हैं। हम जीवन भर मैं को ही मजबूत करते हैं। और मैं के लिए
अनुभवों का आधार लेकर सब अनुभव इकट्ठे करते हैं। और जब तक मैं का आधार है, तब तक सब अनुभव झूठे होते हैं, कोई अनुभव सत्य नहीं
हो सकता।
इसलिए अगर ठीक से समझें,
तो मैं के द्वारा देखा गया परमात्मा ही माया है। मैं के द्वारा देखा
गया परमात्मा ही जगत है। मैं के द्वारा देखा गया वह है, जो
नहीं है। और जिस दिन मैं समाप्त हो जाता है, उस दिन जो देखा
जाता है, उस दिन जो प्रतीति होती है, वह
प्रतीति प्रभु है, सत्य है। कोई और नाम दें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ती है।
जीवन संगीत ( साधना शिविर)
ओशो
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